[प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल]। लोकतांत्रिक समाज संवाद पर आधारित होता है और वह विचार-विनिमय से विकसित होता है। वह युक्ति और तर्क के आधार पर मतभेदों का समापन करता है और एक निर्णय पर पहुंचकर उसे क्रियान्वित करता है। वैदिक सभासमितियों से लेकर भारत की संविधान सभा तक सैकड़ों ऐसे उदाहरण बिखरे पड़े हैं जिसमें चर्चा है, तार्किक वाद-प्रतिवाद हैं, लेकिन विरोधों का शमन करते हुए सार्थक निर्णय पर पहुंचने की उपलब्धि भी है।

वस्तुत: तर्क का प्रयोग भारतीय समाज तथ्य और ज्ञान पर छाए हुए आवरण को तोड़ने के लिए करता है। भ्रम और अज्ञान का आवरण टूटे, इसके लिए ही तर्क की जरूरत पड़ती है। बहस के नाम पर कुतर्क, नाहक छींटाकशी, चरित्र हनन को कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। संवाद तभी गरिमामय होता है जब वह तार्किक आधार पर चले। भारत की संसद में अंकित श्लोक के भावार्थ को हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए। उस श्लोक का भावार्थ है कि या तो किसी सभा में प्रवेश मत करो। यदि करो तो समन्वित और उचित बोलो। सभा में चुप रहने वाला या अनुचित बात बोलने वाला मनुष्य पापी होता है।

गणतांत्रिक व्यवस्था में संवाद का एक मूल्य

भारतीय इतिहास बताता है कि जब-जब युक्तिवाद की पराकाष्ठा होती है, थोथी बौद्धिकता पर आधारित ज्ञान प्रणाली समाज का आधार बनती है। इससे श्रेष्ठतम समाज भी पराभूत होता रहा है। इसलिए गणतांत्रिक व्यवस्था में संवाद को एक मूल्य के रूप में लेना पड़ता है। आस्था के विरुद्ध होने पर भी संवाद से निकले हुए निष्कर्ष को स्वीकार करना पड़ता है। इसके लिए भारत में जो प्रचलित प्रक्रिया है उसे शंकराचार्य जैसा युक्तिवादी भी स्वीकार करता है।

गांधी जी अपने विचारों को भी खारिज करने से नहीं हिचकिचाते थे

शंकराचार्य कहते थे कि धर्म कोई स्थूल वस्तु नहीं, अत्यंत सूक्ष्म विचार है। इसलिए इसके मूल को समझने के लिए चर्चा सत्र होने चाहिए, पर चर्चा भीड़ में नहीं, समूह में होती है। भीड़ में हल्ला हो सकता है, सत्य का बोध नहीं। सत्य का बोध तो अपने विचार के प्रति भी नि:संगता की मांग करता है। गांधी जी इसके उदाहरण हैं। वह अपने विचारों को भी खारिज करने से हिचकिचाते नहीं थे। लोक, जन को सामने रखकर, उसके लिए जो हितकारी है, उस दिशा में लिया गया निर्णय ही सत्यानुसंधान है। भारत के अंदर ऐसे बहुत सारे अवसर आए हैं जब जीवन व्यवहार के स्तर पर, राज व्यवहार के स्तर पर मतभेद हुए हैं। मत विभाजन हुआ है, पर राष्ट्र के महत्तम हितों को सामने रखकर अपनी अहंमन्यता का त्याग करते हुए सर्वानुमति की ओर बढ़ने और निर्मित व्यवस्था को स्वीकार करते हुए उसमें परिष्कार के बौद्धिक यत्न के भी उदाहरण हैं।

भारत फिर गांव-शहर में विखंडन के कगार पर

भारत के जन भी विपत्ति पर ऐसा ही करते रहे हैं। विभाजित मन किसी भी राष्ट्र की समूह चेतना को नष्ट कर सकता है। विरोध का होना आवश्यक है, लेकिन विरोध का बने रहना खतरनाक है। विरोध के शमन का एक तरीका है कि अनुरोध के रास्ते स्थापित व्यवस्था के सम्मुख खड़े अवरोध को खत्म किया जाए। देश में कुछ दिनों से बंटे हुए लोगों को उत्तेजित करना और उत्तेजित समूह को अव्यवस्था की ओर धकेलने के सामूहिक यत्न दिखाई दे रहे हैं। लगता है कि भारत फिर गांव-शहर में विखंडन के कगार पर है।

छोटे-छोटे मतभेद टुकड़ों-टुकड़ों का समाज बना रहे 

यह भारतीय समाज की ताकत है कि वह मतभेदों को दूर कर फिर एक होने के लक्ष्य की ओर बढ़ता है, पर आज यह लोक स्वीकृत प्रणाली तिरोहित हो रही है। इसका परिणाम है कि छोटे-छोटे मतभेद भयावह रूप ले रहे हैं। छोटे-छोटे मतभेद टुकड़ों-टुकड़ों का समाज बना रहे हैं। ऐसे में हमें याद रखना होगा कि किसी भी समूह की भाषा और उसकी विचार प्रणाली अर्थात साथ आना, साथ बैठना, विचार अभिव्यक्त करना, वैचारिक भेद पर चर्चा करना और चर्चा के दौरान युक्ति के आधार पर संपूर्ण संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ दूसरे के सत्य बोध को अंगीकार करना प्रगतिगामी होना है। यह भारत के इतिहास में गार्गी और याज्ञवल्क्य के संदर्भ में, जनक और अष्टावक्र के संदर्भ में देखा जा सकता है। कुमारिल और शंकराचार्य के संवाद में, शंकराचार्य और मंडन मिश्र के संवाद में भी यह विशिष्टता परिलक्षित होती है। यह सावरकर और गांधी के संवाद, सुभाष और गांधी के संवाद में भी प्रतिध्वनित होता है।

बुद्धिधर्मी व्यक्तियों का है प्रमुख दायित्व

मतभेदों के होते हुए भी अपने देश और समाज के लिए एक-दूसरे के सत्य बोध को स्वीकार कर साथ-साथ संवाद बनाकर आगे बढ़ते रहने की प्रक्रिया ही भारत में विचार का अनुशासन है। भारत वैचारिक सत्य की मर्यादा भूमि है, पर अभी वह कमजोर पड़ रहा है। दावे हैं और दावों को सत्य मनवाने की जिद है। ऐसी जिद में समाज का अंतिम व्यक्ति आंखों से ओझल हो जाएगा। इससे मुक्ति के लिए स्वाभाविक तौर पर बुद्धिमत्ता की नहीं, बुद्धि धर्म की आवश्यकता है और बुद्धिधर्मी व्यक्तियों का दायित्व है कि वे बिखर गए संवाद सूत्रों को समेटें, उलझे विचारों को सुलझाएं और इस अव्यवस्था के बीच उपजे शोर को अत्यंत धीरज से स्वर में परिवर्तित करें। स्वर सात हैं, भिन्न हैं, किंतु संगीत की सृष्टि करते हैं। भिन्नता परस्पर पूरकता है। यही भारत की धरती की विशेषता है। शास्त्रार्थ किसी आधार भूमि पर ही होता है। भारत के लिए यह आधार संविधान, संवैधानिक विधियां हैं जिसमें सभी प्रकार के उपचार की संभावनाएं सन्निहित हैं।

यदि भारत रूपी शरीर में कोई रोग है तो उसकी अहिंसक चिकित्सा संभव है। इसीलिए बुद्ध ने अपने को सबसे बड़ा चिकित्सक कहा था, क्योंकि उन्होंने समाज के कष्ट को, दुख को दूर करने के लिए विचार की ऐसी प्रणाली विकसित की जो करुणा और नैतिकता पर आधारित है। आज का शोर-शराबे का परिवेश विविध स्वरों के बीच सामंजस्य के संगीत की अपेक्षा कर रहा है और यह संगीत केवल भारत का जन ही बजा सकता है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)