[ केसी त्यागी ]: जॉर्ज फर्नांडिस से मेरी पहली मुलाकात 1969 में तब हुई थी जब वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सिलसिले में गाजियाबाद में एक सभा को संबोधित करने आए थे। वह उस समय तक एक बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। 1967 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता एसके पाटिल को भारी मतों से पराजित किया था। उस समय पाटिल की गिनती कांग्रेस के शीर्ष नेताओं मेंं होती थी। तब मुंबई में जॉर्ज फर्नांडिस, बाल ठाकरे, नानी पालकीवाला और राम जेठमलानी मुखर कांग्रेस विरोधी नेताओं में शुमार होते थे। खैर करीब एक घंटे के उनके भाषण ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया और शहर की फिजा बदल दी। मजदूर आंदोलन से जुड़े नेता आमतौर पर विदेश की घटनाओं पर कम ही टिप्पणियां करते हैैं, लेकिन उनका भाषण राष्ट्रीय राजनीति के साथ अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर भी केंद्रित था। अपने भाषण में उन्होंने सोने-चांदी की तस्करी में लिप्त तस्करों और खासतौर से हाजी मस्तान पर भी जोरदार हमले किए।

फर्नांडिस ने कर्नाटक के मंगलौर शहर से मुंबई आकर खुद को मजदूर नेता के रूप में स्थापित किया। उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाई थी, लेकिन वह एक दर्जन भाषाओं के जानकार थे। वह मुंबई की टैक्सी यूनियन और बस यूनियन के साथ महानगर पालिका के एकछत्र नेता बन गए। ये तीनों ही मुंबई शहर की लाइफलाइन माने जाते थे। उनकी पकड़ इतनी थी कि वह मुंबई से बाहर होते हुए भी पूरे शहर को बंद करा सकने में समर्थ थे। चूंकि उस समय बैंकों की ओर से मजदूरों को कर्ज देने का रिवाज नहीं था इसलिए उन्होंने मजदूरों के लिए एक बैंक की स्थापना की। इसमें टैक्सी खरीदने हेतु सस्ता लोन उपलब्ध कराने के प्रावधान थे।

डॉ. राममनोहर लोहिया की आकस्मिक मृत्यु के बाद राज नारायण, कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये और जॉर्ज फर्नांडिस के कंधों पर उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आई। जॉर्ज ने उनके आंदोलन की मशाल को बुझने नहीं दिया। 1971 में इंदिरा गांधी के पक्ष में बने माहौल के चलते वह चुनाव हार गए, लेकिन उनके जोश और सक्रियता में कोई कमी नहीं आई। जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में बनी रेलवे मेंस फेडरेशन मृतप्राय हो चुकी थी, लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस ने उसका अध्यक्ष बनकर उसमें एक नई ऊर्जा भर दी। 1974 में रेलवे की सबसे बड़ी और सफल हड़ताल का आयोजन कर वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हो गए। यह वह दौर था जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्षी दल एकजुट होकर इंदिरा गांधी सरकार के विरोध में मुहिम छेड़े हुए थे। जॉर्ज इस मुहिम का अहम हिस्सा थे। इस मुहिम को आगे ले जाने का श्रेय रेलवे की मजदूर हड़ताल को जाता है।

विपक्ष की सक्रियता से घबराकर इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। इसी के साथ सभी दलों की गतिविधियां प्रतिबंधित हो गईं। करीब-करीब सभी प्रमुख विपक्षी नेता जेल में बंद कर दिए गए। इसी मुश्किल दौर में एक नए जॉर्ज का जन्म हुआ। आपातकाल की घोषणा वाले दिन वहउड़ीसा के सुदूर इलाके में थे। वहीं से भेष बदल कर वह कलकत्ता पहुंचे। भूमिगत रहकर वह द रेजिस्टेंस नामक एक बुलेटिन निकालने लगे। इसमें सरकारी जुल्म-ज्यादती के बारे में जानकारी दी जाती। इसके पहले वह सरकार विरोधी एक अन्य पत्रिका प्रतिपक्ष का भी संपादन कर चुके थे। दरअसल वह तभी से सरकार की आंख की किरकिरी बने हुए थे। उस दौरान वह इस कदर कांग्रेस के विरोध में थे कि उसके खिलाफ किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे।

चूंकि उस समय राजनीतिक गलियारों में ऐसी सुगबुगाहट थी कि पकड़े जाने पर उनकी जान को खतरा हो सकता है इसलिए उनके करीबी कार्यकर्ताओं को यह सख्त निर्देश था कि उनकी गिरफ्तारी होते ही बीबीसी को तुरंत सूचित करें। उन दिनों वह कलकत्ता के एक चर्च में पादरी बनकर रहे थे। किसी ने मुखबिरी कर दी और वह पकड़े गए। कार्यकर्ताओं ने तत्काल बीबीसी को सूचित किया और उसने उनकी गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रसारित की। उन्हें गिरफ्तार करने के पहले उनकी मां और भाई को भी गिरफ्तार किया जा चुका था। उनके साथ भी अपमानजनक व्यवहार किया गया। एक खूंखार अपराधी की तरह उन्हें हथकड़ी और बेड़ी पहनाई गई। चूंकि वह अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन से भी जुड़े थे इसलिए पश्चिमी जर्मनी के चांसलर विली ब्रांड समेत करीब पांच-छह देशों के शासनाध्यक्षों ने उनकी रिहाई की मांग की।

आपातकाल हटने के बाद जब आम चुनावों की घोषणा हुई तो सरकारी जुल्म से कुपित जॉर्ज चुनावों के बहिष्कार की पैरवी करने लग गए, लेकिन जनता पार्टी ने उन्हें मुजफ्फरपुर से प्रत्याशी घोषित किया। वह जेल में रहते हुए चुनाव लड़े और जीते। वह मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बने। जल्द ही जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो गया। इसी दौर में उन्होंने मोरारजी सरकार के पक्ष में संसद में जोरदार भाषण दिया। यह लंबे समय तक चर्चा का विषय बना रहा, लेकिन इसके अगले दिन वह मोरारजी को छोड़कर चौधरी चरण सिंह के साथ आ गए। इसके लिए उनकी आलोचना भी होती है। दरअसल उनके लिए मधु लिमये के निर्देश को ठुकराना संभव नहीं था। 1980 में वह फिर से लोकसभा के लिए चुने गए। वह गैर कांग्रेसी दलों में टूट-फूट से तंग थे। 1988 में जब वीपी सिंह के नेतृत्व में राजीव गांधी के विरुद्ध जन मोर्चा और जनता दल के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तो वह उसमें प्रमुख किरदार बने, लेकिन बिहार में लालू यादव के नेतृत्व में सब कुछ ठीक नहीं था। अपराध चरम पर था और संवैधानिक संस्थाएं दम तोड़ रही थीं।

जॉर्ज का विद्रोही मन फिर जागा और वह नीतीश कुमार को साथ लेकर जनता दल से अलग हो गए। उन्होंने समता पार्टी का गठन किया। 1998 में फिर एक नया प्रयोग शुरू हुआ जब एक समझौते के तहत राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चे का गठन हुआ। अटल जी इसके अध्यक्ष और जॉर्ज संयोजक बने। यह भारतीय राजनीति का अनूठा प्रयोग था। अयोध्या ढांचे के ध्वंस के बाद जब सभी दल भाजपा से परहेज कर रहे थे तब यह जॉर्ज का ही करिश्मा था कि उन्होंने करीब दो दर्जन दलों को गोलबंद कर कांग्रेस को परास्त किया। अटल सरकार में वह रक्षामंत्री रहे। वह इससे आहत हुए कि उन पर झूठे आक्षेप लगाए गए। जॉर्ज का कोई राजनीतिक वारिस नहीं है, लेकिन नागरिक अधिकारों, पंथनिरपेक्षता, समाजवादी संघर्ष और प्रतिरोध की जब भी चर्चा होगी उनका नाम अवश्य लिया जाएगा। वह गैर कांग्रेसवाद के प्रतीक के तौर पर भी जाने जाएंगे। वह खुद को गांधीवादी कहते थे, लेकिन जुल्म-ज्यादती से लड़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे।

( लेखक जनता दल-यू के राष्ट्रीय महासचिव एवं प्रवक्ता हैैं )