[ डॉ. एके वर्मा ]: लोकसभा चुनाव अंतिम पड़ाव पर है। सबकी निगाहें मतदान के आखिरी चरण से ज्यादा नतीजे वाले दिन यानी 23 मई पर लगी हैं। मोदी सरकार को लेकर परस्पर विरोधाभासी आकलन हुए हैं, लेकिन इस दौरान चुनाव प्रचार की रणनीतियों की कम चर्चा हुई। पूरा ध्यान आरोप-प्रत्यारोप पर रहा। विपक्ष की कोई समन्वित रणनीति नहीं रही, कोई साझा-मंच या महागठबंधन नहीं बन पाया, न नेतृत्व पर कोई सहमति बनी और न ही जनता के समक्ष भावी वैकल्पिक नीतिगत ब्लूप्रिंट पेश किया जा सका। सब कुछ छितरा-बिखरा सा रहा। इसके विपरीत मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने लक्ष्य-केंद्रित, समन्वित और आक्रामक प्रचार किया। प्रचार के दौरान दलों और प्रत्याशियों द्वारा प्राय: भाषा और विचारों की मर्यादा की लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन होता है। इस बार भी वही हुआ और असहाय मतदाता तमाशा देखता रह गया।

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन की कुछ रणनीतिक साझेदारी दिखी जरूर, लेकिन वह सतही रही और जमीनी हकीकत न बन सकी। इसके कई कारण थे। दो सामाजिक जाति समूहों पिछड़ों और दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले इन दलों ने दो दशकों से सामाजिक-आर्थिक संघर्ष को अपने राजनीतिक अस्तित्व का आधार बना लिया था। इसकी वजह से दलितों को एससी-एसटी एक्ट का प्रयोग यादवों के विरुद्ध करना पड़ा। यादवों के पास जमीन है और दलितों के पास उस पर श्रम करने की बाध्यता।

करतार सिंह यादव बनाम उत्तर प्रदेश मामले (2015) में, ममता देवी और सुमेर सिंह यादव बनाम मध्य प्रदेश मामले (2018) में एक अन्य दलित ने यादवों के खिलाफ मुकदमा किया। दोनों मुकदमों में अदालत ने आरोपी पक्ष को कोई राहत न दी। इसी प्रकार मुस्लिमों द्वारा भी दलितों के उत्पीड़न के कारण उन पर भी उस कानून का प्रयोग हुआ। कुल मिलाकर जमीन पर दलितों और यादवों या दलितों और मुस्लिमों के साथ आने में और भी कठिनाई है। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा ने पूरे प्रचार में कुछ ऐसे रणनीतिक प्रयोग किए जिसके राजनीतिक परिणामों का अहसास विपक्ष को सहसा हो ही नहीं पाया। इनमें पहला प्रयोग ‘मन-की-बात’ का है जिसमें मोदी ने पूरे पांच वर्ष में 50 से अधिक एपिसोड में लगभग प्रति माह जनता से एक बार जरूर बात की। यह काम भारत में आज तक किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया।

सामान्यत: प्रधानमंत्री की व्यस्तता की दुहाई दी जाती है, लेकिन यह विचार कितना क्रांतिकारी है कि प्रधानमंत्री भारत की जनता से प्रतिमाह बातचीत करें, जिसका विषय कभी भी राजनीतिक न रहा हो। उस बातचीत में प्रधानमंत्री अक्सर ऐसे लोगों के नाम उद्घाटित करते रहे जो गुमनाम रहकर अच्छे काम करते हैैं। प्रधानमंत्री का यह संबोधन टीवी चैनलों और आकाशवाणी के सभी स्टेशनों से सजीव प्रसारित होता था। यह स्मार्ट-पॉलिटिक्स थी जिसमें मोदी पूरे पांच वर्ष भारत की जनता से जुड़े रहे। यही वह जुड़ाव है जो देश की जनता अपने प्रतिनिधियों से चाहती है, लेकिन वे यह जुड़ाव दे नहीं पाते। सामान्यत: नेता चुनाव घोषित होने के बाद अपने टिकट के लिए आश्वस्त नहीं रहते और टिकट मिलने के बाद उनके पास प्रचार के लिए बहुत कम समय बचता है। उसमें भी चुनाव आयोग की बंदिशें और आचार-संहिता का भय उनको सताता है।

लोकसभा का निर्वाचन क्षेत्र इतना बड़ा होता है कि एक सीमित समय में सबके पास पहुंच पाना संभव नहीं होता। प्रत्याशी कभी यह नहीं सोचते कि क्यों न पूरे पांच वर्ष को अपने चुनाव प्रचार हेतु प्रयोग किया जाए, जिसमें न चुनाव आयोग की कोई बंदिशें हो, न खर्च की कोई सीमा? मोदी ने इसी को अपनी स्मार्ट पॉलिटिक्स का आधार बनाया। उन्होंने पांच वर्ष कठिन परिश्रम कर न केवल जनता का दिल जीता, वरन ‘मन की बात’ द्वारा स्वयं को जनता से जोड़े रहे। इसीलिए आज जाति और धर्म से ऊपर उठकर मतदाता को लग रहा है कि मोदी उससे और वह मोदी से जुड़ा हुआ है। बस यही वह जुड़ाव है जिसे अधिकतर विश्लेषक पकड़ नहीं पा रहे हैं।

‘स्मार्ट-पॉलिटिक्स’ से मोदी ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ नारे को सार्थकता दी। मुस्लिमों का एक तबका इसी वजह से मोदी की ओर आकर्षित हुआ। आज मोदी को सांप्रदायिक कहने वाले बैकफुट पर हैं, क्योंकि जिन मुस्लिमों को मोदी की योजनाओं का लाभ मिला है वे भला मोदी से नाराज क्यों हों? मोदी ने ‘मन की बात’ में कभी सांप्रदायिकता का पुट नहीं आने दिया, विकास का लाभ देने में जाति और धर्म देखा नहीं तो फिर मोदी से नाराजगी की क्या वजह हो सकती है।

किसी को भी मोदी के खिलाफ कुछ भी कहने की आजादी है। मोदी के अनुसार बीते पांच वर्षों में उनकी पाचनशक्ति बढ़ी है। यह बात उन्होंने खुद को दी जा रही गालियों के संदर्भ में कही। कई मीडिया माध्यम मोदी-विरोधी अभिव्यक्तियों से भरे हैं और कुछ ने तो जैसे ‘मोदी-विरोध की सुपारी’ सी ले रखी है। अपने विकासोन्मुखी शासन, समावेशी राजनीति के कारण मोदी ने जातीय समीकरण तोड़कर ‘सामाजिक-वर्ग’ के क्षेत्र में प्रवेश कर लिया। आज उनको शहरी और ग्रामीण महिलाओं, नौजवानों, गरीबों और उपेक्षितों में एक नया मतदाता समूह मिला है जो उनके प्रति आकर्षित है और जिसे उनके नेतृत्व में आशा की किरण दिखाई देती है। जहां अनेक विश्लेषक अभी भी पुराने चश्मे से भारतीय राजनीति को समझने की कोशिश कर रहे हैं वहीं मोदी ने सामाजिक समीकरण तैयार कर राजनीति का एक नया विमर्श गढ़ा है, एक नया व्याकरण लिखा है। ये दोनों काफी समय तक भारतीय राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे। यह स्मार्ट पॉलिटिक्स का दूसरा बिंदु है जो मोदी को अपनी पार्टी और विरोधी पार्टियों के अनेक नेताओं से बहुत आगे ले गया।

मोदी की स्मार्ट पॉलिटिक्स का तीसरा अहम बिंदु संगठनात्मक मजबूती है। प्राय: ऐसा देखा गया है कि एक सशक्त और प्रभावशाली प्रधानमंत्री धीरे-धीरे पार्टी संगठन पर भी हावी हो जाता है, लेकिन न वह ठीक से सरकार चला पाता है, न पार्टी। धीरे-धीरे ये दोनों घटक एक व्यक्ति के हाथ में आने से अधिनायकवादी प्रवृत्ति पनपने लगती है। इंदिरा गांधी का कार्यकाल इसका प्रमाण है। मोदी ने पार्टी की पूरी जिम्मेदारी शाह को सौंप रखी है और उसमें उनका कोई खास दखल नहीं है। दोनों में एक-दूसरे के प्रति भरोसा भी है।

शाह ने भी बड़ी निष्ठा से भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों को समय पर सक्रिय करने और उन्हें सशक्त बनाने का काम किया। इस प्रकार मोदी की स्मार्ट-पॉलिटिक्स में भाजपा के सरकारी पक्ष और संगठनात्मक पक्ष में कोई अंतर्विरोध नहीं हो पाया है। यह स्थिति मोदी को न केवल अनावश्यक संगठनात्मक विवादों से मुक्त रखती है, वरन उनको सरकार के भावी कार्यक्रमों पर भी ध्यान देने का समय देती है। इस प्रकार जनता से जुड़ाव, विकासोन्मुखी समावेशी राजनीति और शासक दल के संगठनात्मक और कार्यपालिका के घटकों में समन्वय और संतुलन बनाकर मोदी ने अपनी स्मार्ट पॉलिटिक्स का बेहतर प्रदर्शन किया है। देखना है कि 23 मई को उनकी इस स्मार्ट-पॉलिटिक्स को जनता का कैसा आशीर्वाद मिलता है।

( लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैैं )

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