[ओमप्रकाश तिवारी]। महाराष्ट्र के कोंकण इलाके में प्रचलित एक कहावत है- ‘हांव मरीन पर तुका रांड करीन’। अर्थात मैं चाहे मर जाऊं पर तुझे बर्बाद करके छोड़ूंगा। कोंकणी पुरुष के आत्मसम्मान की इसी आत्मघाती कल्पना को आज शिवसेना चरितार्थ करती दिखाई दे रही है। उसने भाजपा के साथ गठबंधन करके प्रचार का नारियल साथ-साफ फोड़ा। दोनों के झंडे साथ-साथ लहराते रहे। प्रचार सभाओं में दोनों के नेता साथ-साथ भाषणबाजी करते दिखाई दिए। कुछ सभाओं में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी एक साथ एक ही मंच पर नजर आए।

‘जय महाराष्ट्र’ का संदेश

प्रधानमंत्री ने उद्धव ठाकरे को अपना ‘लहान भाऊ’ यानी छोटा भाई कहकर संबोधित किया, तो उद्धव भी उनकी तारीफों के पुल बांधने में पीछे नहीं रहे। राज्य की जनता ने वोट भी शिवसेना-भाजपा गठबंधन को दिया, ना कि इन दोनों में से किसी एक दल को। और अब शिवसेना कांग्रेस- राकांपा के साथ मिलकर शिवतीर्थ पर अपने मुख्यमंत्री को शपथ दिलाने का स्वप्न देख रही है, और राकांपा के नेताओं को ‘जय महाराष्ट्र’ का संदेश भेज रही है।

राजनीतिक गठबंधनों द्वारा पद के लिए सौदेबाजी

यह सोशल मीडिया का युग है। आम मतदाता न सिर्फ अपनी पसंद के राजनीतिक दलों के पक्ष में खुलकर विचार व्यक्त करते हैं, बल्कि वाट्सएप और फेसबुक पर अपने विरोधी विचार के अपने ही मित्रों-रिश्तेदारों से तू-तू मैं-मैं भी कर बैठते हैं। ऐसे युग में गठबंधन किसी एक दल से और सरकार किसी और दल के साथ, यह जादूगरी शिवसेना के मतदाताओं को पसंद आए, यह जरूरी नहीं। राजनीतिक गठबंधनों द्वारा पद के लिए सौदेबाजी कोई नई बात नहीं है। सियासत करने उतरे दलों को अपने विस्तार के लिए यह करना ही पड़ता है। लेकिन एक ही गठबंधन के दो दलों के बीच इस प्रकार की सार्वजनिक बयानबाजी उस मतदाता को भी पसंद नहीं आती, जिसने इन दलों को चुनकर सरकार बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है।

 

महाराष्ट्र सरकार के लिए शिवसेना का 50:50 फॉर्मूला

विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही शिवसेना की तरफ से ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री पद और मंत्रालयों के 50-50 बंटवारे की जिद सामने आ रही है। जबकि शिवसेना की सीटें भाजपा से लगभग आधी आई हैं। शिवसेना किस तर्क के आधार पर यह मांग कर रही है, यह समझ से परे है। करीब तीन दशक पुराने शिवसेना-भाजपा गठबंधन के लंबे दौर में 1995 के चुनाव को मानक माना जाए या उसके बाद 2009 तक के किसी भी अन्य विधानसभा चुनाव को, लड़ी गई सीटों पर जीत का प्रतिशत हमेशा भाजपा का ही ज्यादा रहा है। इसके बावजूद 1995 में शिवसेना का मुख्यमंत्री और भाजपा का उपमुख्यमंत्री बना था। वर्ष 1999 के चुनाव के बाद भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे भी ढाई साल के मुख्यमंत्री की ऐसी ही जिद किए बैठे रहे, जैसी आज शिवसेना कर रही है।

एक बार फिर शिवसेना दोहरा रही वही गलती 

नतीजा यह रहा कि 11 दिन चले नाटक के बाद मिलकर चुनाव लड़ीं शिवसेना-भाजपा सत्ता से दूर रह गईं, और अलग-अलग चुनाव लड़ीं कांग्रेस राकांपा ने मिलकर ऐसी सरकार बनाई कि अगले 15 वर्षों तक भाजपा-शिवसेना को सत्ता का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ। आज वही गलती एक बार फिर शिवसेना दोहराती दिखाई दे रही है। यह सच है कि चुनाव में भाजपा की सीटें घटी हैं। लेकिन यह भी सच है कि सीटों में यह कमी लोकप्रियता घटने के कारण नहीं, बल्कि लोकप्रियता बढ़ने के कारण आई है। दोनों दलों के बागी उम्मीदवारों की संख्या इस बार  अभूतपूर्व रही है।

बागी उम्मीदवार उन्हीं दलों के ज्यादा होते हैं, जिनके चुनकर आने की संभावना अधिक होती है। 15 से अधिक सीटों पर भाजपा के बागी उम्मीदवार चुनकर आए हैं। इन सीटों पर भाजपा के अधिकृत उम्मीदवारों को भी उसके बागी उम्मीदवार से कुछ ही कम वोट मिले हैं। जाहिर है, ऐसी सभी सीटों पर बागी और अधिकृत उम्मीदवारों को मिले मत कांग्रेस राकांपा के कोटे से आए मत तो नहीं रहे होंगे। यानी भाजपा की सीटें भले घटी हों, लेकिन उसका मत प्रतिशत बढ़ा है।

वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़कर जमीनी हकीकत जान चुकी शिवसेना को यह तथ्य नजरंदाज नहीं करना चाहिए। संभव है, उसके समर्थन के बगैर भाजपा को अल्पमत सरकार के रूप में शपथ लेनी पड़े। संभव है, ऐसी स्थिति में विपक्ष में बैठने का जनादेश पाने वाली कांग्रेस- राकांपा शिवसेना को अंदर या बाहर से समर्थन देने पर राजी हो जाएं।

संभव है, शिवसेना अपने चिर विरोधी इन दोनों दलों के सहयोग से मंत्रालय में शिवसेना का मुख्यमंत्री बैठाने का स्व. बालासाहब ठाकरे का सपना पूरा कर ले। लेकिन कांग्रेस- राकांपा कितने दिनों या महीनों तक शिवसेना के मुख्यमंत्री को झेलती रहेंगी, या शिवसेना का मुख्यमंत्री कितनी निश्चितता से राज्य का शासन चला पाएगा, इसका अनुभव एक बार कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी से शिवसेना को जरूर लेना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति में शिवसेना की सरकार गिरती है, तो उसके पास न आगे जाने का रास्ता रहेगा, न पीछे लौटने का। यह कदम उसके लिए आत्मघाती ही साबित होगा। जबकि शिवसेना की जिद वश सरकार से दूर हो जाने वाली भाजपा तब जनता की सहानुभूति की हकदार होगी।

[मुंबई ब्यूरो प्रमुख]

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