[ राजीव सचान ]: धरना-प्रदर्शन या फिर आंदोलन करने वालों की ओर से सड़क पर काबिज होकर आवागमन ठप करना कोई नई बात नहीं है। अपने देश में यह काम रह-रह कर होता ही रहता है। इसके चलते आम लोग परेशान भी होते हैं। दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में सड़क पर काबिज होकर दिए जा रहे धरने के कारण हर दिन लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है। दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले इस रास्ते पर दिए जा रहे धरने के 50 दिन बीत चुके हैं, लेकिन आंदोलनकारी अपनी जिद पर अड़े हैं।

छद्म आभास: प्रदर्शनकारी धरने पर बैठकर नेक काम और जायज मांगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं

इसका एक कारण विपक्षी दलों, खुद को सिविल सोसायटी कहने वाले किस्म-किस्म के समूहों और मीडिया के एक हिस्से की ओर से धरना दे रहे लोगों को यह छद्म आभास कराया जाना है कि वे कोई नेक और बहादुरी का काम कर रहे हैं। दूसरा कारण धरना देने वालों का इस मुगालते से ग्रस्त होना है कि वे अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह भी कोई नई बात नहीं। अक्सर सड़कों पर उतरे लोग यही मानकर चलते हैं कि उनकी मांगें सही हैं।

शाहीन बाग के आंदोलनकारी वार्ता तो दूर सुनने को भी तैयार नहीं

राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान देश ने यह देखा है कि किस तरह लोग रेल पटरियों पर काबिज होकर रेल संचालन बाधित कर देते थे। अपनी जिद पर अड़े रहने के बावजूद वे बात करने को तैयार रहते थे और राज्य सरकार भी उन्हें वार्ता का निमंत्रण देती थी। शाहीन बाग के लोग, जिन्हें मीडिया का एक हिस्सा शानदार बता रहा है, बातचीत तो क्या किसी की सुनने को भी तैयार नहीं।

धरना-प्रदर्शन करने वालों की बात सरकार तक पंहुचाने को कोई भी इच्छुक नहीं

करीब 40 दिनों तक सरकार ने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं जाहिर की कि वह इन लोगों से बात करना चाह रही है और जब केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद की ओर से वार्ता की पेशकश की भी गई तो उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इस धरने को प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर समर्थन दे रहे नेताओं और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों की कमी नहीं, लेकिन कोई भी आगे आकर उनकी बात सरकार तक पंहुचाने को इच्छुक नहीं। इस अनिच्छा की वजह यही है कि इन सबको अपना हित धरना जारी रहने में ही दिख रहा है।

सीएए और एनआरसी के विरोध में और भी शाहीन बाग तैयार किए जा रहे हैं

इसी कारण देश के अन्य हिस्सों में भी छोटे-छोटे शाहीन बाग तैयार किए जा रहे हैं। इनके जरिये लोगों को यही संदेश दिया जा रहा है कि उनके धरने पर बैठे रहने से सीएए वापस हो जाएगा, एनपीआर का काम रुक जाएगा और एनआरसी तो सदा के लिए ठंडे बस्ते में चला जाएगा। ऐसा नहीं होने वाला और होना भी नहीं चाहिए।

चंद लोगों के सड़क पर बैठने से संसद से पारित कानून वापस नहीं हो जाएगा

कम से कम यह सोचना तो निरा पागलपन ही है कि चंद लोगों के सड़क पर बैठने से संसद से पारित और अधिसूचित कानून वापस हो जाएगा। हालांकि इस सच से वे भी अवगत हैं जो सड़क पर उतरने वालों को उकसा रहे हैं, लेकिन अंध विरोध ने उन्माद का ऐसा रूप धारण कर लिया है कि शाहीन बाग धरने में शिरकत करने वाले उस गरीब दंपती को बड़ा जीवट वाला बताया जा रहा है जिसका चार माह का बच्चा ठंड का शिकार होकर मर गया। यह बच्चा इसलिए नहीं रहा, क्योंकि उसके मां-बाप शीतलहर की अनदेखी कर उसे धरने पर लाते रहे। इस अबोध शिशु की मौत को शहादत की संज्ञा देना जानलेवा लापरवाही के महिमामंडन के अलावा और कुछ नहीं, लेकिन दुर्भाग्य से इस काम में मीडिया के लोग भी शामिल दिख रहे हैं।

शाहीन बाग में उन्माद भरने का काम मीडिया के एक वर्ग ने किया

वास्तव में शाहीन बाग में उन्माद भरने का जैसा काम मीडिया के एक वर्ग और खासकर अंग्रेजी मीडिया ने किया है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। यह वही मीडिया है जिसके लिए गोली चलाने वाला नाबालिग तो दूसरा गोडसे है, लेकिन असम को शेष देश से काटने की हिमायत करने वाला स्कॉलर। एक जैसे उन्माद से भरे दो लोगों में ऐसा अंतर वही कर सकते हैं जो खुद उन्माद अथवा अंध विरोध से भरे हों या फिर किसी खास एजेंडे से लैस हों।

धरना- प्रदर्शनों में मुस्लिम समाज ही बढ़-चढ़कर भाग ले रहा, सभी वर्गों की हिस्सेदारी नहीं है

मीडिया का ऐसा हिस्सा शाहीन बाग और इसी तरह के अन्य धरना-प्रदर्शनों को इस रूप में पेश करने की भरसक कोशिश कर रहा है कि इनमें सभी वर्गों की हिस्सेदारी है। यह कोरा झूठ है। सच यही है कि इस तरह के धरना- प्रदर्शनों में मुस्लिम समाज ही बढ़-चढ़कर भाग ले रहा है। इसका कारण यही है कि उसके दिमाग में यह भर दिया गया है कि सीएए उसके खिलाफ है। इस झूठ को बड़े जतन से फैला रहा मीडिया का एक खास हिस्सा यह दिखाने के लिए भी अतिरिक्त श्रम कर रहा है कि सीएए के खिलाफ खड़े लोग इतने मानवतावादी हैं कि वे तो दुनिया के हर प्रताड़ित शख्स की परवाह कर रहे हैं। एक नाकाम कोशिश यह भी की जा रही है कि इस तरह के धरना-प्रदर्शनों में कहीं कोई मजहबी बातें नहीं की जा रही हैं। यह भी झूठ है और इसका कई बार पर्दाफाश भी हो चुका है।

शाहीन बाग और इसी तरह के अन्य आयोजनों को मीडिया के एक हिस्से से खुराक मिल रही है

क्या इससे हास्यास्पद और कुछ हो सकता है कि शाहीन बाग में धरने पर बैठे जो लोग दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद के लाखों लोगों की परेशानी को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं उन्हें संविधान के प्रति प्रतिबद्ध, संवेदनशील और मानवतावादी बताने की कोशिश हो रही है? इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं कि शाहीन बाग और इसी तरह के अन्य आयोजनों को मीडिया के एक हिस्से से खुराक मिल रही है, लेकिन यह भी नई बात नहीं। अन्ना आंदोलन के दौरान भी ऐसा हो रहा था।

आस्था, अंधविश्वास, अफवाह, अज्ञानता के चलते आम लोग असामान्य व्यवहार करते हैं

भारत सरीखे विशाल देश में आस्था, अंधविश्वास, अफवाह, उन्माद, अज्ञानता के चलते आम लोगों का असामान्य व्यवहार करना नई बात नहीं। नई बात है बुद्धिजीवियों और सिविल सोसायटी की अगुआई करने वालों की ओर से झूठ का सहारा लेकर अविवेकपूर्ण आचरण करना। वास्तव में यह वह नई बात है जो कहीं अधिक चिंतित करने वाली है। जिस देश में ऐसी सिविल सोसायटी या फिर बौद्धिक वर्ग हो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )