[विवेक काटजू]। पाकिस्तान के इतिहास में 17 दिसंबर की तारीख एक अहम पड़ाव के रूप में दर्ज की जाएगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसी दिन पाकिस्तान की एक विशेष अदालत ने पूर्व राष्ट्रपति एवं सेनाप्रमुख परवेज मुशर्रफ को देशद्रोह के आरोप में मृत्युदंड की सजा सुनाई। एक जज ने तो यहां तक कहा कि यदि मुशर्रफ मृत पाए जाएं तब भी उनके शव को घसीटकर इस्लामाबाद के चौक पर तीन दिन के लिए सूली पर चढ़ाया जाए।

हालांकि उनके साथी जज इससे सहमत नहीं थे। यह टिप्पणी पाकिस्तानी सेना को बहुत चुभने वाली है। इससे पहले पाकिस्तान की ताकतवर सेना और उसके पिट्ठू माने जाने वाले प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार ने मुशर्रफ को बचाने के लिए सारी तिकड़में आजमाईं, लेकिन वे अदालती फैसले को रोकने में नाकाम रहे। तीन न्यायाधीशों द्वारा 2-1 के बहुमत से दिए गए इस फैसले की धमक बहुत दूर तक सुनी जा सकती है। इससे पाकिस्तान की राजनीति, समाज और सेना में भूचाल सा आ गया है।

गंभीर बीमारी का इलाज करा रहे मुशर्रफ

मुशर्रफ 2016 से देश के बाहर हैं और आजकल दुबई में गंभीर बीमारी का इलाज करा रहे हैं। मुशर्रफ को झटका देने वाले इस फैसले का आधार पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद छह और उसके तहत बने कानून हैं। उनके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति पाकिस्तान के संविधान को दरकिनार करने की कोशिश भी करता है तो वह देशद्रोह का दोषी माना जाएगा।

नवाज शरीफ का तख्तापलट कर मुशर्रफ ने अपनाई सत्ता 

इसे 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पहल पर बनाए गए पाकिस्तानी संविधान में शामिल किया गया था। इसमें दोषी पाए जाने पर उम्रकैद या मृत्युदंड का प्रावधान किया गया। भुट्टो ने इसे इस मंशा के साथ लागू किया था ताकि पाकिस्तानी सेना प्रमुख देश की हुकूमत पर काबिज न हो सकें। उनका मकसद था कि अयूब खान और याह्या खान जैसे फौजी तानाशाह फिर से न उभरें, लेकिन विडंबना यह रही कि उसके शिकार वह स्वयं हुए। इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, क्योंकि उनके द्वारा नियुक्त जनरल जिया उल हक ने न केवल उन्हें सत्ता से बेदखल किया, बल्कि उन्हें फांसी पर लटका दिया। इस वाकये के बीस साल बाद 1999 में परवेज मुशर्रफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का तख्तापलट कर स्वयं सत्ता हथिया ली। जिया उल हक और फिर परवेज मुशर्रफ द्वारा किए गए सैन्य तख्तापलट को पाकिस्तान की न्यायपालिका से पूर्ण सहमति मिली।

जिस मामले में मुशर्रफ को सजा मिली है उसकी कड़ियां 2007 से जुड़ी हैं जब वह राष्ट्रपति के साथ-साथ सेना प्रमुख भी थे। तब राजनीतिक वर्ग पर शिकंजा कसने के बाद मुशर्रफ ने न्यायपालिका पर भी दबिश बढ़ा दी थी। इसी सिलसिले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी को बर्खास्त कर नजरबंद करा दिया था। पाकिस्तान की न्यायिक बिरादरी ने इसका भारी विरोध किया।

आठ महीने बाद राष्ट्रपति पद छोड़ा 

नवंबर, 2007 में मुशर्रफ ने संविधान को निलंबित कर दिया। छह हफ्ते बाद संविधान की फिर बहाली हुई। इस अवधि में उन्होंने सेना प्रमुख का पद छोड़ा और एक सिविलियन राष्ट्रपति बने। आठ महीने बाद उन्होंने राष्ट्रपति पद भी छोड़ दिया। उनके राष्ट्रपति पद छोड़ने से पहले ही मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी ने संविधान के निलंबन को अवैध करार दिया।

यही पहलू इस मुकदमे का आधार बना। जैसी उम्मीद जताई जा रही थी, इस मामले में पाकिस्तानी फौज ने बेहद तल्ख प्रतिक्रिया जताई। उसने इस फैसले पर कई सवाल उठाए हैं। फौज का यह आक्रोश बेवजह नहीं। वह मौजूदा सेना प्रमुख जरनल बाजवा के सेवा विस्तार में अदालती अवरोध को लेकर पहले ही तिलमिलाई हुई है। उनसे जुड़े फैसले में भी अदालत ने स्पष्ट किया है कि यदि पाकिस्तानी संसद ने छह महीने में उनकी नियुक्ति को लेकर उचित कानून नहीं बनाया तो उनका सेवा विस्तार अटक सकता है।

पाकिस्तान का इतिहास सेना की कारगुजारियों से भरा

स्वाभाविक है कि पाकिस्तानी सेना इन अदालती फैसलों को अपनी साख से जोड़कर देख रही है। पाकिस्तानी सेना श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त है। उसे यह मुगालता है कि केवल वही पाकिस्तानी सीमाओं एवं वैचारिक बुनियाद को महफूज रख सकती है। पाकिस्तानी नेताओं के बारे में उसकी धारणा है कि वे कमजोर, अक्षम और भ्रष्ट हैं जो राष्ट्रीय हितों का संरक्षण नहीं कर सकते। नौकरशाही को भी वह नकारा और स्वार्थी समझती है। उसकी नजर में केवल वही एकमात्र ऐसा पवित्र संगठन है जिसे देश और जनता की फिक्र है और जिसका दामन भ्रष्टाचार से बचा है। राष्ट्र की स्वयंभू संरक्षक मानते हुए वह कानून और परंपराओं को तोड़ने से भी गुरेज नहीं करती। इसी कारण पाकिस्तान का इतिहास सेना की कारगुजारियों से भरा है।

पाकिस्तानी सेना ने न्यायपालिका को कभी गंभीरता से नहीं लिया 

हालांकि यदाकदा पाकिस्तानी न्यायपालिका ने सेना को असहज करने वाले फैसले भी सुनाए, परंतु यह तभी हुआ जब न्यायपालिका के शीर्ष पर सख्तमिजाज और विधि के लिए समर्पित न्यायाधीश मौजूद रहे हों। मिसाल के तौर पर बलूचिस्तान में लापता लोगों के मामले में पाकिस्तानी न्यायपालिका ने सक्रियता के साथ सख्ती दिखाई। कुछ मामलों में तो सैन्य अधिकारियों को फटकार तक लगी, लेकिन सेना के शीर्ष नेतृत्व पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। बलूचिस्तान में उसकी दमनकारी नीतियां यथावत जारी रहीं। इससे यही पता चलता है कि पाकिस्तानी सेना ने न्यायपालिका को कभी गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन अब एक पूर्व सेनाध्यक्ष को सजाए मौत और मौजूदा सैन्य मुखिया के सेवा विस्तार पर लटकी तलवार से उसका खीझना स्वाभाविक है।

गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा पाकिस्तान 

पाकिस्तानी फौज न्यायपालिका को उसकी हैसियत जरूर दिखाना चाहेगी, पर फिलहाल उसके लिए ऐसा संभव नहीं दिखता। पाकिस्तान इस वक्त गंभीर आर्थिक संकट से दो-चार है। उसकी अंतरराष्ट्रीय साख तार-तार है। मोदी सरकार ने कश्मीर को लेकर भी उसकी चुनौती और बढ़ा दी है। ऐसे में फौज कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश जाए कि वहां लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बलि दी जा रही है। वह सार्वजनिक रूप से अदालत को पूर्णत: बेइज्जत करने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है।

सवाल उठता है कि आगे क्या? इसमें संदेह नहीं कि फौज इमरान सरकार के कंधे पर बंदूक रख अपने हित साधेगी। इसमें पहला काम तो बाजवा के सेवा विस्तार के लिए कानून बनाना होगा। बाजवा भी कोई बीच का रास्ता निकालने की सोचेंगे जिससे उनका और फौज का स्वाभिमान कायम रह सके। जहां तक मुशर्रफ के मामले का सवाल है तो ऊपरी अदालतों में इस फैसले को पलटवाने के पूरे प्रयास किए जाएंगे। वैसे भी इस फैसले को अमल में लाना लगभग असंभव है, लेकिन देखना है कि मुशर्रफ देशद्रोह के दाग से मुक्त होते हैं या नहीं? जो भी हो, न्यायपालिका के जरिये फौज को लगे लगातार दो झटकों के बावजूद ऐसे कोई आसार नहीं कि पाक की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव आएगा। भारत नीति फौज अपने हाथ में ही रखेगी। यह छोड़ना उसके लिए नामुमकिन है।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)