[ डॉ. महेश भारद्वाज ]: कश्मीर के पुलवामा में सुरक्षाबलों के काफिले पर हुए जघन्य हमले ने एक बार फिर विश्व समुदाय को आतंकवाद के प्रति गंभीरतापूर्वक सोचने के लिए विवश कर दिया है। बढ़ते वैश्वीकरण के बावजूद अपने-अपने राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की जो प्रवृत्ति पिछले कुछ बरसों में बलवती हुई है उसकी जड़ में भी यही अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद है। इसी का परिणाम है कि आज धीरे-धीरे ही सही अच्छे और बुरे आतंकवाद के बीच का भेद भी मिटने लगा है।

खेमों में बंटे देशों में अपनी राष्ट्रीयता के प्रति अपेक्षाकृत अधिक लगाव ने भी जोर पकड़ा है। पिछले कुछ बरसों में अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, इटली, रूस और चीन जैसे विकसित देशों द्वारा राष्ट्र सर्वोपरि के लिए मुखरता से दी जाने वाली दलीलों को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। इन देशों की जनता ने देश और राष्ट्रीयता की बात पुरजोर तरीके से करने वाले राजनीतिक नेतृत्व को पसंद भी किया है। अब अपने राष्ट्रीय हितों की खुले तौर पर पैरवी करने में किसी को कोई झिझक भी नहीं है और तो और कुछ देश अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं या संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों की आलोचना की परवाह भी नहीं कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से पिछले दिनों दिए गए अमेरिका के इस्तीफे और यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के ब्रिटेन के निर्णयों की पृष्ठभूमि में राष्ट्र सर्वोपरि की इस भावना को देखा जा सकता है।

राष्ट्रीयता के प्रति इस अंतरराष्ट्रीय झुकाव से अलग हमारे देश में माजरा कुछ और ही नजर आ रहा है। यहां राष्ट्रीयता की आवाज के तेजी पकड़ते ही कुछ लोगों को कई तरह की आशंकाएं होने लगती हैैं और राष्ट्रीयता के पक्ष में उठने वाली आवाजों के पीछे लोकतांत्रिक विचारों को दबाने की कोशिश तलाशने के प्रयास होने लगते हैं। चूंकि राष्ट्रीयता की आवाज बुलंद करने संबंधी प्रयासों को सरकार का समर्थन स्वाभाविक होता है तो सरकार का विरोध कर रही ताकतें भी सक्रिय होने लगती हैं। इसमें कई बार तो ऐसा भी होता है कि सरकार विरोधी ताकतों को यह पता ही नहीं चल पाता कि सरकार का विरोध करते-करते वे कब राष्ट्रीयता की भावना का भी विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाती हैं। इस स्थिति का सर्वाधिक फायदा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त तत्व उठा लेते हैैं और सुरक्षा बलों द्वारा नेस्तनाबूद किए गए संगठन भी ऑक्सीजन पा जाते हैैं। ऐसी स्थिति राष्ट्र के लिए बेहद खतरनाक है। सरकार का विरोध और खासकर अंध विरोध करने वालों को सावधानी से सोचने की जरूरत है, क्योंकि इसका सीधा संबंध सुरक्षा बलों के मनोबल से भी है।

सामान्य माहौल में तो सरकार और व्यवस्था की आलोचना और विरोध जायज है, लेकिन संकट के समय ऐसा आचरण करते समय राष्ट्र को होने वाले नुकसान के बारे में भी सजग रहने की जरूरत है। कहीं आलोचना के अति उत्साह में राष्ट्र, समाज और नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी ही विस्मृत न हो जाए। इसे विडंबना ही कहेंगे कि यह सब देश में मौजूद लोकतांत्रिक माहौल और उसके तहत नागरिकों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी के तहत होता है। यह आजादी कुछ जिम्मेदारी की भी मांग करती है। संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को कुछ लोग अपने पक्ष में इस कदर परिभाषित कर लेते हैं कि उन्हें उस संविधान की मर्यादा तक का खयाल नहीं रहता जिसने बिना किसी भेद-भाव के यह आजादी सुलभ कराई है।

आतंकी और विध्वंसक गतिविधियों की तह में जाकर देखने की आवश्यकता है। इन गतिविधियों को संचालित करने वाले तत्व अपनी लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई के आवरण में लपेटकर जनता को परोसने की कोशिश करते हैं। जनता उनकी इस चालाकी को समझ नहीं पाती। जैसे आदिवासी क्षेत्रों के सीधे-सादे लोगों की आर्थिक तंगी और पिछड़ेपन का पूरा फायदा उठाया गया है और उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर अपने ही राष्ट्र से लड़ने में लगाकर रखा गया है वैसा ही कुछ कश्मीर में किया गया है। कश्मीर तब अशांत और अलगाव से ग्रस्त है जब वह आर्थिक रूप से देश के कई हिस्सों से कहीं अधिक बेहतर स्थिति में है। कश्मीर में तमाम तत्व ऐसे हैैं जो शत्रु देश से तमाम तरह का सहयोग और समर्थन खुलेआम ले रहे हैं। इन परिस्थितियों के मद्देनजर हमें एक राष्ट्र के रूप में बहुत ही गंभीरता से विचार करने और राष्ट्रीयता की भावना को और अच्छे से सींचने की जरूरत है। राष्ट्रीयता की भावना ही वह जज्बा पैदा करने की ताकत रखती है जिससे लोग व्यक्तिगत हित छोड़कर देश के प्रति समर्पण की भावना से ओतप्रोत होते हैं।

इस भावना को केवल देश की सीमा की रक्षा तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसकी जरूरत देश के अंदर सिर उठाने वाली हर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से लड़ने के लिए भी है। ऐसे में जरूरत है स्वाधीनता संग्राम के दौरान उमड़ी राष्ट्रभक्ति को फिर से जगाने की, जिसने लोगों को राष्ट्रहित में आइसीएस जैसे सर्वोच्च पदों से भी त्यागपत्र देने के लिए प्रेरित किया था। अब समय आ गया है आम लोग राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य समझें और अपनी मिट्टी के लिए मर मिटने-कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करें। यही वह भावना है जो हमारे सैनिकों को देश की सीमा पर विकट से विकट परिस्थितियों में और अन्य सुरक्षाबलों को देश के आंतरिक हिस्सों में साहस के साथ विध्वंसक तत्वों से लड़ने का अदम्य साहस और हौसला प्रदान करती है।

राष्ट्र निर्माण के इस पुनीत यज्ञ में हर नागरिक के योगदान की अपेक्षा है। लोगों को ही यह परवाह करनी होगी कि हर कोई इसमें योगदान दे। इस अपेक्षा में ईमानदारी से टैक्स देना भी आता है और सामान्य नियम-कानूनों का स्वत: पालन करना भी। ऐसे तमाम कार्य हैैं जिनमें देश के बहुत सारे संसाधनों का इसलिए बेवजह इस्तेमाल होता है, क्योंकि कुछ लोग अपना काम जिम्मेदार नागरिक के तौर पर नहीं करते। कुछ लोग राष्ट्रीयता की भावना के अत्यधिक बलवती होने को अंतरराष्ट्रीयता में बाधक मानते हैं, लेकिन मौजूदा अंतरराष्ट्रीय परिवेश में हमारे यहां राष्ट्रीयता की भावना को पूरे वेग के साथ परवान चढ़ाने की दरकार है।

राष्ट्रीय अस्मिता को मिल रही चुनौतियों से निपटने के लिए उच्चकोटि की राष्ट्रभक्ति आवश्यक है। जाति, भाषा, रंग-रूप, संस्कृति संबंधी विविधता होते हुए भी राष्ट्रीयता ही वह भावना है जो सभी को एकसूत्र में बांधे रख सकती है। देशवासियों में राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध कराने और उनमें अनुशासन की भावना विकसित करने के लिए भी यह आवश्यक है।

( लेखक आइपीएस अधिकारी हैैं )