संदीप घोष। यह दौर बड़ा ही दिलचस्प है। राष्ट्र के राजनीतिक रंगमंच पर तीन अलग-अलग नाटक खेले जा रहे हैं। इसमें विपक्षी दल अपनी-अपनी पटकथाओं पर अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे हैं। कांग्रेस प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी द्वारा पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को तलब किए जाने के विरुद्ध 'सत्याग्रह' कर रही है। विपक्षी दलों की एक टुकड़ी आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए रणनीति बनाने में जुटी है। वहीं पैगंबर मोहम्मद साहब को लेकर की गई भाजपा की निलंबित प्रवक्ता की टिप्पणी पर बवाल का जिम्मा एआइएमआइएम जैसी खांटी मुस्लिम पार्टी और कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उठा रखा है। यह पूरा परिदृश्य राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं एवं रणनीति में भिन्नता को ही दर्शाता है, फिर भी उन सभी का एक लक्ष्य समान है और वह यह कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करना। इसके विपरीत भाजपा का पूरा ध्यान चुनाव जीतने पर केंद्रित है।

विपक्ष से बेपरवाह भाजपा ने आगामी विधानसभा चुनावों पर अपनी नजर गड़ाई हुई हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण गुजरात का चुनावी रण होगा। सत्तारूढ़ दल अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रहा है। पैगंबर मोहम्मद साहब को लेकर की गई अवांछित टिप्पणी पर अरब देशों की प्रतिक्रिया वाले विवाद से भी उसने अपना पीछा छुड़ा लिया है। प्रधानमंत्री नई महत्वाकांक्षी योजनाओं की घोषणा में लगे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने अगले डेढ़ साल में 10 लाख सरकारी भर्तियों का एलान किया तो वहीं अग्निपथ जैसी योजना की घोषणा की गई, जिसमें हर साल 40,000 से अधिक भर्तियों की गुंजाइश है। पार्टी को अपने 'बुलडोजर सीएम' योगी आदित्यनाथ, जिनकी लोकप्रियता निरंतर बढ़ती जा रही है, की दमदार नीतियों की एक तबके द्वारा हो रही आलोचना की भी कोई परवाह नहीं। इस प्रकार देखा जाए तो जहां विपक्ष यह सिद्ध करने पर तुला हुआ है कि देश में कुछ भी सही नहीं चल रहा वहीं भाजपा यह दर्शा रही कि सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा है। इस विभाजन से तो आम नागरिकों को दुविधा में होना चाहिए। हालांकि वे नेताओं की नूरा-कुश्ती के बजाय अपने दैनिक जीवन की तात्कालिक चुनौतियों से कहीं ज्यादा जूझ रहे हैं। विपक्षी दल इसी बिंदु को अनदेखा करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। उनकी असमान-असंगत रणनीतियों के कोलाहल में वास्तविक मुद्दों की आवाज दम तोड़ती जा रही है। इससे विपक्षी नेताओं में इसी विसंगति के ही संकेत दिखते हैं कि वे अपनी महत्वाकांक्षा के जाल में ही उलझे हुए हैं। स्पष्ट है कि इसने जनता को मायूस किया है।

बीते दिनों कांग्रेस ने उदयपुर में अपना बहुप्रचारित नव संकल्प (चिंतन) शिविर आयोजित किया। उस शिविर में पारित हुए संकल्प की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उसके मर्म को अनदेखा किया जाने लगा। राहुल गांधी ने विदेश दौर पर जो तमाम साक्षात्कार दिए, उनसे यही साबित हुआ कि पार्टी का सर्वेसर्वा कौन है। कहां तो यह कहा गया था कि राज्यसभा के लिए प्रत्याशी चयन हेतु एक उच्च अधिकार प्राप्त राजनीतिक मामलों की समिति गठित की गई है और कहां यह बात सामने आई कि परिवार के तीन सदस्यों ने ही यह सब तय कर लिया और वह भी कथित रूप से जूम काल पर। इससे यही संकेत निकला कि 'परिवार संचालित' उपक्रम में कुछ भी नहीं बदला। इसी शिविर में 'भारत जोड़ो आंदोलन' का जोरशोर से एलान हुआ। कहा गया कि इसके अंतर्गत राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा करेंगे। बाद में यह सामने आया कि वह पूरी यात्रा के साथ नहीं जुडऩा चाहते और उसका नेतृत्व तो कतई नहीं करेंगे। इसके बजाय पार्टी ने अपनी पूरी ऊर्जा ईडी द्वारा सोनिया गांधी और राहुल गांधी को भेजे गए नोटिस के विरोध में सत्याग्रह नाम से देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन में लगा दी। इसका संदेश स्पष्ट है कि संगठन के लिए देश और पार्टी से पहले परिवार के मामले ही प्राथमिकता में हैं।

कहते हैं कि अपनी लड़ाई का अखाड़ा चुनने में बड़ी सतर्कता बरतनी चाहिए और बड़ा युद्ध जीतने के लिए छिटपुट लड़ाइयां हारनी भी पड़ती हैं। समझना कठिन है कि ईडी की पूछताछ को राजनीतिक रंग देने से कांग्रेस को क्या लाभ मिलने वाला है? इसे कानूनी सलाहकारों के साथ मिलकर एक सामान्य मामले के रूप में संभाला जा सकता था। इस मामले में कांग्र्रेस की रणनीति के पीछे दो मकसद नजर आते हैं। पहला यह कि वह विक्टिम कार्ड खेलकर गांधी परिवार को बलिदानी के रूप में दिखाना चाहती है। दूसरा, वह यह दर्शाने की फिराक में है कि मोदी सरकार अपने विरोधियों के विरुद्ध जांच एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है। यह रणनीति तभी कारगर हो सकती है, जब पूछताछ में कुछ निकलकर सामने न आए। हालांकि इसकी संभावना कम ही दिखती है कि बिना किसी मजबूत साक्ष्य के सरकार ने इतने ऊंचे मामले में एजेंसियों को आगे बढने के लिए हरी झंडी दिखाई होगी। अब कुछ ठोस बात सामने निकलकर आती है तो यह दांव गांधी परिवार के लिए उलटा साबित हो सकता है। वहीं नरेन्द्र मोदी को एक बड़ा चुनावी हथियार थमा देगा।

राष्ट्रपति चुनाव में एक साझा उम्मीदवार उतारने की जुगत में विपक्षी दल एक और मोर्चे पर सक्रिय हैं। इस कड़ी में ममता बनर्जी और शरद पवार के नेतृत्व में दिल्ली में एक बैठक भी हो चुकी है। परोक्ष रूप से यह विपक्षी दलों में यह सिद्ध करने का मंच बन गया है कि विपक्षी खेमे की कमान आखिर किसके हाथ में है? शायद यही कारण रहा कि बीजू जनता दल, वाइएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति, सपा और बसपा जैसे बड़े विपक्षी दलों ने इससे दूरी बनाए रखी। परिणामस्वरूप यह बैठक विपक्षी एकता दर्शाने और आमसहमति बनाने में असफल रही। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस ओर विभाजन की खाई अधिक चौड़ी दिख रही है, लेकिन इतना तय है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में रह-रहकर उठ रही सांप्रदायिक टकराव की चिंगारी विचलित करने वाली है। तिस पर राजनीतिक दलों के रवैये से यही लगता है कि उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं, क्योंकि उन्हें अपने ही मामलों से फुर्सत नहीं। कम से कम उनसे इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे इस गंभीर मामले में अपना कोई स्पष्ट रुख अपनाएं। कोई रुख अपनाने के बजाय चुप्पी साधकर तो वे अपनी ही जमीन गंवा रहे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)