[अनु जैन रोहतगी]। अगर हम कहें कि हरियाणा, दिल्ली महाराष्ट्र और राजस्थान में बसने वाले लोगों की सोच-समझ में कुछ समानता है तो कुछ अजीब ही लगेगा, लेकिन यह सच है। ये ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं-लड़कियों के खिलाफ होने वाले अपराधों का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और दूसरी तरफ लड़कों के मुकाबले लड़कियों की जन्म दर बढ़ी है यानी लिंग अनुपात सुधरा है, लेकिन इन्हीं राज्यों में लड़कियों-महिलाओं को सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराने के मोर्चे पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि जो लोग लड़कियों की गर्भ में या जन्म होते ही हत्या करने की वर्षों पुरानी दकियानूसी परंपरा को तोड़ने में कामयाब होने के साथ ही उन्हें सुरक्षित माहौल देने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? यह प्रश्न पिछले कुछ समय से इन प्रांतों में लड़कियों के खिलाफ एक से बढ़कर एक घिनौने अपराध के रूप में सामने आने के बाद और ज्वलंत हो उठा है।

आखिर कौन भूल सकता है रेवाड़ी में 19 वर्षीय कॉलेज छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म के भयावह मामले को? इस कांड के एक आरोपी का डांस करते हुए वीडियो वायरल होने से हरियाणा पुलिस-प्रशासन को और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। इसी तरह जींद में एक स्कूली छात्रा से सामूहिक दुष्कर्म और हत्या ने निर्भया कांड जैसा दर्दनाक हादसा याद दिला दिया। बीते दिनों महाराष्ट्र के भिवंडी में 14 साल की एक लड़की से दुष्कर्म के बाद उसे पानी के टब में डुबोकर मार देने की घटना ने भी लोगों को हिलाकर रख दिया। वैसे तो ऐसे मामले देश भर से ही रह-रह कर सामने आते रहते हैं, लेकिन लिंगानुपात में सुधार वाले राज्यों में भी उनकी संख्या बढ़ती दिखना चिंताजनक है। इस चिंताजनक स्थिति को तभी दूर किया जा सकता है जब सार्वजनिक जीवन के हर

क्षेत्र में लड़कियों और महिलाओं को सुरक्षित वातावरण दिया जा सके।

हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह दिल्ली और राजस्थान में भी लिंग अनुपात में तो सुधार हो रहा है, लेकिन लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं। एक घिनौना सच यह भी है कि इन प्रांतों में एक-दो साल की मासूम बच्चियों को दरिंदगी का शिकार बनाने के साथ सामूहिक दुष्कर्म के शर्मसार करने वाले मामले सामने आ रहे हैं।

2011 तक दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र में लिंग अनुपात के आंकड़े बदतर थे। हरियाणा सबसे पीछे था। यहां पर एक हजार लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या केवल 834 थी। दिल्ली में भी यह आंकड़ा कोई अच्छा नहीं था। यहां पर लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात 868 था। महाराष्ट्र में यह आंकड़ा 883 था तो राजस्थान में 888 था। चूंकि हरियाणा में लिंग अनुपात के हालात अधिक खराब थे इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले हरियाणा से ही बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे राष्ट्रव्यापी अभियान की शुरुआत की। इस अभियान को शुरू करने का सरकार का मकसद लड़कियों के जन्म दर में गिरावट के ग्राफ को उठाना था।

अभियान के पीछे मकसद नेक था, इरादे बुलंद थे इसलिए कुछ ही समय में कुछ अच्छे नतीजे सामने आने लगे। वर्ष 2017 के आंकड़ों ने हरियाणा के सिर पर से लड़कियों की जन्म दर कम होने का वर्षों पुराना दाग धो दिया। वहां लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के मुकाबले 914 लड़कियों तक पहुंच गया। इसी प्रकार दिल्ली, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का अच्छा असर देखने को मिला। जहां दिल्ली में वर्ष 2015 में लिंग अनुपात बढ़कर 898 और 2016 में 902 तक पहुंच गया।

वहीं राजस्थान के सीकर और झुंझुनू जैसे इलाकों में जहां लिंग अनुपात की स्थिति बहुत खराब थी, 2017 में बढ़कर 950 के आंकडे़ तक पहुंच गया। इस अभियान का एक असर यह भी हुआ कि स्कूलों में पहुंचने वाली लड़कियों की तादाद भी बढ़ी। महाराष्ट्र में 2016 के सरकारी आंकडों के अनुसार लिंग अनुपात बढ़कर 904 तक पहुंच गया। इन बढ़ते आंकड़ों का श्रेय बहुत हद तक ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान को ही जाता है, लेकिन यह चिंता की बात है कि इसी के साथ पिछले कुछ समय से इन्हीं राज्यों में लड़कियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों को देखकर यह अहसास होता है कि यहां पर लड़कियों को बचाने -पढ़ाने का काम तो जोरों पर चल रहा है, परंतु उनकी सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को दरकिनार कर दिया गया है।

‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान के जरिये इन राज्यों में एक जंग तो काफी हद तक फतह कर ली गई लगती है, लेकिन लड़कियों को सुरक्षित माहौल देने की दूसरी जंग में ये नाकाम से साबित हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों पर नजर डालें तो ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान की सफलता में अधूरेपन और एक तरह के विरोधाभास का अहसास होता है। इस अधूरेपन को दूर करने के लिए समाज के साथ ही शासन-प्रशासन को भी सक्रियता दिखानी होगी।