अवधेश कुमार। वीर सावरकर और उनके जैसे दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके देश के लोग ही कभी उनके शौर्य, वीरता और इरादे पर प्रश्न उठाएंगे। त्रासदी यह है कि वैचारिक मतभेदों के कारण एक महान स्वतंत्रता सेनानी, योद्धा, समाज सुधारक, लेखक, कवि, इतिहासकार को कायर और अंग्रेजों का भक्त साबित करने की शर्मनाक कोशिश हो रही है। जिन लोगों ने शोध नहीं किया, इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा, वे भी सावरकर का नाम आते ही कूद जाते हैं, जिसमें ओवैसी जैसे लोग हैं। कोई कहता है कि गांधीजी तो 1915 में भारत आए और सावरकर ने 1913 में माफीनामा लिखा, फिर गांधीजी ने उन्हें कब सलाह दी? ये लोग एक बार गांधी वांग्मय के उन अंशों को पढ़ लेते तो समस्या नहीं होती। सच यही है कि उन्होंने अपनी ओर से सावरकर बंधुओं को अंडमान जेल से रिहा कराने की भरपूर कोशिश की।

जो लोग माफीनामा की बात कर रहे हैं, उन्हें यह जानना आवश्यक है कि सावरकर ने छह बार रिहाई के लिए अर्जी दायर की। इसमें 1911 से 1919 तक पांच बार तथा महात्मा गांधी के सुझाव पर 1920 में एक बार। 30 अगस्त, 1911 को सावरकर ने पहला माफीनामा भरा, जिसे अंग्रेज सरकार ने तीन दिनों बाद ही खारिज कर दिया। दूसरी याचिका उन्होंने 14 नवंबर, 1913 को लगाई, वह भी खारिज हो गई। इस तरह उनकी चार याचिकाएं खारिज हुईं। 1919 में अंग्रेजों ने जार्ज पंचम के आदेश पर भारतीय कैदियों की सजा माफ करने की घोषणा यह कह कर की कि प्रथम विश्व युद्ध में भारत के लोगों ने उनका पूरा साथ दिया है, इसलिए वे राजनीतिक कैदियों की रिहाई कर रहे हैं। इसके बाद काफी कैदी रिहा हुए, पर इसमें विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणोश दामोदर सावरकर का नाम नहीं था। इस पर उनके छोटे भाई नारायणराव सावरकर ने गांधीजी को 18 जनवरी,1920 के अपने पहले पत्र में सरकारी माफी के तहत अपने भाइयों की रिहाई सुनिश्चित कराने के संबंध में सलाह और मदद मांगी। एक सप्ताह बाद यानी 25 जनवरी, 1920 को गांधीजी ने लिखा, ‘प्रिय सावरकर, मुझे आपको सलाह देना कठिन लग रहा है, फिर भी मेरी राय है कि आप एक विस्तृत याचिका तैयार कराएं, जिसमें जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक था। मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं।’

गांधीजी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया (महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्‍स वाल्यूम 20, पृष्ठ 368) में लिखा, ‘भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के चलते कई कैदियों को माफी का लाभ मिला है, लेकिन कई प्रमुख लोगों को अब तक रिहा नहीं किया गया। मैं इनमें सावरकर बंधुओं को गिनता हूं।’ एक और पत्र (कलेक्टेड वर्क्‍स आफ गांधी, वाल्यूम 38, पृष्ठ 138) में गांधीजी ने लिखा, ‘मैं राजनीतिक बंदियों के लिए जो कर सकता हूं, वह करूंगा। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं डर की वजह से चुप रह गया हूं।’

जो यह मानने को तैयार नहीं कि गांधीजी ने सावरकर के लिए कोशिश की होगी, उन्हें यंग इंडिया का वह लेख पढ़ना चाहिए जिसमें उन्होंने लिखा, ‘सावरकर के पुलिस हिरासत से भागने की सनसनीखेज कोशिश और फ्रांसीसी समुद्री सीमा में कूदने की बात अभी तक लोगों के जेहन में ताजा है। उसने फग्यरुसन कालेज से पढ़ाई की, फिर लंदन में बैरिस्टर बना। वह 1857 की सिपाही क्रांति के इतिहास का लेखक है। ..उसके खिलाफ हिंसा का कोई आरोप साबित नहीं हुआ।’ गांधीजी ने लिखा कि वायसराय को दोनों भाइयों को आजादी देनी ही चाहिए, अगर इस बात के पक्के सुबूत न हों कि वे राज्य के लिए खतरा बन सकते हैं। गांधीजी का कहना था कि जनता को यह जानने का हक है कि किस आधार पर दोनों भाइयों को कैद में रखा जा रहा है?

गांधीजी की लंदन में सावरकर से तब मुलाकात हुई, जब वह इंडिया हाउस हास्टल में रहकर बैरिस्टर की पढ़ाई कर रहे थे। उनकी गांधीजी से स्वतंत्रता आंदोलन पर गंभीर चर्चा हुई थी। सावरकर मांसाहारी थे और उन्होंने गांधीजी के लिए वही भोजन बनाया। गांधीजी वैष्णव थे, इसलिए मांस देखकर परेशान हो गए। सावरकर ने कहा था कि इस समय तो ऐसे भारतीय चाहिए जो अंग्रेजों को कच्चा खा जाएं और आप तो मांस से ही घबराते हैं। हिंसा और अहिंसा को लेकर भी दोनों की बहस हुई। गांधीजी ने गुजरात वापसी के दौरान समुद्री जहाज पर हिंद स्वराज की रचना की। इसमें सावरकर से बहस का भी बड़ा योगदान था। सावरकर गांधीजी की अहिंसक नीति के आलोचक थे, लेकिन उन्होंने कभी उनके विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी नहीं की। जरा सोचिए कितनी बड़ी त्रसदी थी। न सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दोषी माना, न कपूर आयोग ने। अगर वह दोषी थे तो फिर रिहा कैसे हो गए? नाथूराम गोडसे हिंदू महासभा का सदस्य रह चुका था, लेकिन वह सावरकर को लानत भरे पत्र भेजता था।

ये पत्र इसके प्रमाण हैं कि सावरकर का गांधीजी की हत्या से दूर-दूर तक लेना नहीं था। जिस व्यक्ति ने दस वर्ष से ज्यादा काला पानी में बिताया और 23 वर्ष तक अंग्रेजों की निगरानी झेली, उसका सम्मान होना चाहिए। जिसे माफीनामा कहा जा रहा है, वह एक सामान्य कर्म था, जिसका उपयोग स्वतंत्रता सेनानी रिहाई के आवेदन के रूप में करते थे। सावरकर का मानना था कि अंग्रेजों की जेल में रहकर सड़ने से किसी का भला नहीं है। इसलिए हर हाल में बाहर आकर जितना संभव हो राष्ट्र, धर्म और समाज के लिए काम किया जाए।

 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)