[ संतोष त्रिवेदी ]: पिछले कई दिनों से घरबंदी में हूं। घर से बाहर निकलना तो दूर, बॉलकनी तक से झांकने में डर लगता है। कहीं मुआ कोरोना वायरस दबोच न ले! इस अदृश्य दुश्मन का खौफ है ही ऐसा कि फोन से भी बात करते समय तीन फीट की दूरी रखता हूं। यहां तक कि डर के मारे सोशल मीडिया में नहीं आ रहा हूं।

वायरस के डर से अलग इन दिनों एक और डर जुड़ गया है-थूकने का

वायरस के डर से अलग इन दिनों एक और डर जुड़ गया है-थूकने का। जहां-तहां लोग थूक रहे हैं। इसलिए लिखना तक बंद कर दिया है। कहीं किसी ने मेरे लेखन पर थूक दिया तो साहित्य को क्या मुंह दिखाऊंगा। लिखने से नहीं थू-थू होने से डर लगता है। किसी विशुद्ध बुद्धिजीवी की चपेट में आ गया तो थू-थू निश्चित है। अगर मजबूरी में किसी बुजुर्ग के लेखन को छूता भी हूं तो तुरंत सेक्युलर साबुन से सैनिटाइज कर लेता हूं। इससे साहित्यिक संक्रमण का खतरा नहीं रहता। लेखन के दुष्प्रभाव से बच जाता हूं सो अलग।

क्वारंटाइन का स्थायी। स्टेटस डालकर मैं थूकने पर शोध करने में जुटा हूं

रही बात मेरी घरबंदी की तो उस पर मेरे मित्रों की राय अलग-अलग है। लोग अपने-अपने अंदाजे लगा रहे हैं। मुझे दूर से जानने वाले कह रहे हैं कि मैं घर में छिपा हुआ हूं। नजदीकी दोस्तों का आकलन है कि मैं फंसा हुआ हूं। कोरोना ने लोगों को मारा ही नहीं उनकी स्थापनाएं और निष्ठाएं भी बदल दी हैं। मैं न तो घर में छिपा हूं न फंसा। असलियत यह है कि क्वारंटाइन का स्थायी। स्टेटस डालकर मैं थूकने पर शोध करने में जुटा हूं। साहित्य में शोध करना लिखने से कम खतरनाक है।

थूकना एक हथियार हो गया

शोध के दौरान लगा कि इधर थूकना एक हथियार हो गया है। लोग जमकर थूक रहे हैं। थूकने पर नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। कुछ गलियों में थूक रहे हैं तो कुछ शायरी में। यह उनका वैचारिक थूक है। उनके पास थक्का जमा है थूक का। ये नए मिजाज का साहित्य है। वे कहते हैं थूकना उनके विरोध का तरीका है। वे जिसका विरोध करते हैं, उसी पर थूकते हैं। इस दौरान किसी और पर उस थूक के छींटे पड़ते हैं तो यह उनकी मंशा नहीं मात्र संयोग माना जाए। इस पर उनकी थू-थू होती है तो क्या, उन्हें संतोष है कि वे साहित्य की मुख्यधारा में तो बह रहे हैं!

पहले ताली-बजाने पर थू-थू कर रहे थे, अब दीया जलाने पर

थू-थू करने और करवाने का वे कोई मौका नहीं छोड़ते। पहले ताली-बजाने पर थू-थू कर रहे थे, अब दीया जलाने पर। जहालत पर कभी नहीं थूकते, क्योंकि इससे बुद्धिजीवी जमात में उनकी रेटिंग कम होने का अंदेशा है। जहालत वाले बेफिक्र हैं। उन्हें ऊपर वाले ने ऐसे हुनर से नवाजा है, जिसके होते कोई भी पढ़ाई फिज़ूल है। जहालत किसी तर्क या विज्ञान को नहीं मानती। उसकी अपनी मौलिकता है। सारी दुनिया भले ही एक वायरस के आगे घुटने टेक रही हो, जहालत की एक अलग ही दुनिया है। जब हर जगह आदमी-आदमी से दूर भाग रहा है,जहालत वाले जमात जोड़ रहे हैं। उनके लिए यह नेक काम है। वे वायरस को दुश्मनों की चाल बता रहे हैं। ऐसी जहालत के समर्थन में पढ़े-लिखे भी शामिल हैं। इससे जाहिर होता है कि जहालत का वायरस इस नामुराद कोरना वायरस के बाद भी जिंदा रहेगा। 

वायरस वाहक वायरस को मारने वालों को ही दौड़ा रहे हैं

जहां कुछ लोग बीमारी वाले वायरस को मारने में लगे हैं वहीं वायरस वाहक उन्हें ही दौड़ा रहे हैं। अव्वल तो पत्थर से मारते हैं। अगर दूर से निशाना चूकता है तो नजदीक से थूक देते हैं। इस महामारी में दुनिया भर में ऐसी रचनात्मक मिसाल ढूंढने से नहीं मिलती। जान बचाने वाले भले दुविधा में हों, पर थूकने वाले नहीं। जान बचाने वालों पर वे थूक छिड़क रहे हैं। थूकने वालों को लगता है कि उन्हें जन्नत जाने से रोकने की साजिश हो रही है। थूकना अब क्रिया नहीं कर्म बन गया है। इसलिए वे तो बस अपना काम कर रहे हैं।

वायरस की खबरों को दिखाने में चैनल वाले एक-दूसरे पर थूक रहे

शोध कार्य के बीच में वक्त निकालकर टीवी खोलता हूं तो वहां भी अलग-अलग शोध जारी हैं। रामायण और महाभारत की रेटिंग इन दिनों सबसे अधिक हो गई है। कुछ लोग इस पर भी थूक रहे हैं। वायरस की खबरों को दिखाने में चैनल वाले एक-दूसरे पर थूक रहे हैं।

अमेरिका चीन पर थूक रहा, चीन पूरी दुनिया पर पहले ही थूक चुका

महाशक्ति अमेरिका चीन पर थूक रहा है। चीन पूरी दुनिया पर पहले ही थूक चुका है। सब जगह वायरस की थू-थू हो रही है। लगता है मेरा शोध कार्य बहुत लंबा चलने वाला है। कल शाम को मेरे बेहद नजदीकी मित्र का फोन आया। मैंने उन्हें अपने शोध के बारे में जानकारी दी। वे मुझे जाहिल बताकर मुझ पर थूकने लगे।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]