नई दिल्ली, डॉ. देवेंद्र कुमार। हिंदू संस्कृति और इसकी धार्मिक मान्यताओं पर कथित सेक्युलर खेमे के सुनियोजित बौद्धिक हमलों की फेहरिश्त बहुत लंबी है। किसी न किसी बहाने यह खेमा हिंदू मान्यताओं को चुनौती देने और हिंदू धर्म को नीचा दिखाने की कोशिश करता ही रहता है। केरल स्थित सबरीमाला मंदिर पर आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बहाने इस खेमे ने महिला अधिकारों की आड़ में एक बार फिर हिंदू मान्यताओं पर आघात करने की कोशिश की है। वे यह रेखांकित करने में जुटे हुए हैं कि हिंदू अपनी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने के विरोधी हैं।

चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ श्रद्धालुओं की भावनाओं का समर्थन कर रहा है, इसलिए सेक्युलर खेमे के लोग संघ परिवार पर यह आक्षेप लगा रहे हैं कि वह हिंदू धर्म को सेमेटिक धर्म-संस्कृति के ढांचे में डालने का प्रयत्न कर रहा है और उसका इरादा हिंदू धर्म की विविधता को समाप्त कर उसे अन्य पंथों के अनुरूप बनाना है। कथित सेक्युलर यह भी कह रहे हैं कि हिंदुत्व समर्थक एकेश्वरवादी धर्मो की छवि के अनुरूप हिंदू धर्म के सार को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका एक अन्य आरोप यह है कि संघ परिवार हिंदू धर्म को ‘मानकीकृत’ करने में जुटा है। गौर से देखा जाए तो सेक्युलरिस्ट एक तरह से वही कर रहे हैं, जिसका आरोप वे संघ परिवार पर लगाते रहे हैं। साफ है कि सबरीमाला मामले पर आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने सेक्युलरिज्म और प्रगतिशीलता का विमर्श चलाने वाले संघ विरोधी बुद्धिजीवी समुदाय को एक और अवसर दे दिया है। यहां इस निर्णय की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है।

पिछले करीब 15 सौ वर्षो से सबरीमाला के अयप्पा मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं को गर्भ गृह में प्रवेश की अनुमति इस दृढ़ मान्यता के चलते नहीं है कि भगवान अयप्पा बाल-ब्रम्हचारी हैं। 2006 में अयप्पा मंदिर के एक ज्योतिषी परप्पनगडी उन्नीकृष्णन द्वारा दिया गया एक बयान इस प्रकरण की पृष्ठभूमि की धुरी बना। उन्होंने कहा था कि मंदिर में स्थापित अयप्पा की शक्ति कम हो रही है, क्योंकि मंदिर में किसी युवा महिला ने प्रवेश किया है। इसके बाद कन्नड़ सिनेमा से जुड़ी एक अदाकारा ने इस बात को स्वीकार किया कि वह एक बार इस मंदिर में गलती से प्रवेश कर चुकी हैं। इसी बयान और स्वीकारोक्ति के बाद राज्य की यंग लॉयर्स एसोसिएशन सुप्रीम कोर्ट चली गई। वहां उसने इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी, जिसकी सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 15 सौ साल पुरानी मान्यता के खिलाफ अपना निर्णय दिया। इस पूरे प्रकरण में कुछ सवाल उठे हैं। क्या जिन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के चलते सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की कोशिश की, क्या वे वाकई भगवान अयप्पा के भक्त हैं? क्या उनकी आस्था वाकई उस मंदिर में है? अगर हां तो वे उस मंदिर की मान्यताओं को चुनौती क्यों दे रहे हैं? अगर नहीं तो फिर अयप्पा मंदिर में जाने की उनकी रुचि का कारण आखिर क्या है?

यदि किसी समाज की कोई विशेष मान्यता अगर समग्रता में समाज हित में नहीं है तब तो उस पर कानूनी विचार होना चाहिए, लेकिन अगर वह मान्यता अपनी स्वयं की विशेषता के साथ परंपरा रूप में चली आ रही हो तो फिर उसे चुनौती देने का मतलब नहीं बनता और तब तो बिल्कुल भी नहीं जब खुद श्रद्धालु उस परंपरा में बदलाव की मांग न कर रहे हों। हिंदू धर्म की विविधता उसे अद्वितीय बनाती है। विविधता से परिपूर्ण किसी धर्म के भीतर विभिन्न स्वायत्त मान्यताएं भी हो सकती हैं। सनातन धर्म में हिंदुओं के बीच भक्ति का अपना विशेष तरीका है। कुछ मंदिरों में भक्तों को देवी-देवताओं की पूजा करने के लिए परिसर में प्रवेश करने से पहले अपने जूते उतारना अनिवार्य होता है तो कहीं चमड़े के जूते पहनने को भी अपवित्र नहीं माना जाता। इसी तरह कई धार्मिक स्थलों पर पुरुषों और महिलाओं, दोनों के लिए एक विशेष पारंपरिक पोशाक पहनना अनिवार्य है। कई मंदिरों में कड़ाई से शाकाहार का पालन होता है तो कई ऐसे मंदिर भी हैं जहां पशु मांस का चढ़ावा किया जाता है। इसी तरह एक देवता ब्रम्हचारी भी हो सकते हैं, जबकि दूसरे में प्रेम का अवतार भी।

सबरीमाला में श्रद्धालुओं का अपने प्रमुख देवता भगवान अयप्पा की पूजा करने का भी एक अनोखा तरीका है। चूंकि यहां अयप्पा एक शाश्वत ब्रम्हचारी हैं इसलिए मंदिर में 10-50 साल के आयु वर्ग की लड़कियों और महिलाओं के जाने पर मनाही है, लेकिन इसमें भी अपवाद है, जैसे अचंकोविल श्री धर्मस्थस्थ मंदिर। यहां अयप्पा भगवान को दो पत्नियों, पूर्णना और पुष्काला के साथ विवाहित व्यक्ति के रूप में और सत्यका नाम के बेटे के साथ चित्रित किया गया है। इस अचंकोविल मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर सबरीमाला सरीखा कोई प्रतिबंध पर लागू नहीं होता। यह मंदिर सबरीमाला से केवल 30 किमी की दूरी पर है। देश भर में सैकड़ों अन्य अयप्पा मंदिर हैं जो महिलाओं को नहीं रोकते हैं। फिर भी आश्चर्यजनक रूप से कुछ स्वयंभू सेक्युलरिस्ट अयप्पा मंदिर में पूजा की हिंदू प्रथाओं को मानकीकृत करने की कोशिश कर रहे हैं और इसी कारण वे श्रद्धालुओं के विभिन्न समूहों के साथ संघ परिवार पर भी बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं।

सबरीमाला मामले में फैसला देने वाली पांच सदस्यीय न्यायिक पीठ की महिला न्यायधीश न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की टिप्पणी गौरतलब है। उन्होंने बहुमत से अलग फैसले में कहा था कि अगर किसी को किसी धार्मिक प्रथा में भरोसा है तो उसका सम्मान होना चाहिए, क्योंकि ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं। समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि यह मुद्दा सिर्फ सबरीमाला तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर अन्य पूजा के स्थान अथवा धार्मिक स्थलों तक जाएगा। सबरीमाला निर्णय के बाद उनका अंदेशा सच साबित होता दिख रहा है। स्थिति ऐसी बनी है कि अचानक विभिन्न धर्मो से संबंधित कार्यकर्ता (श्रद्धालु नहीं) सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने के लिए जिद करने लगे हैं। यह जिद महिलाओं की समानरूप से भागीदारी के नाम पर स्थानीय संस्कृति, दशकों से चली आ रही भिन्न परंपरा और सनातन धर्म में हिंदू देवताओं से जुड़ी पूजा पद्धति के प्रति नकारात्मकता को ही दर्शाती है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं)