[ अमित मोहन प्रसाद ]: संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल 15 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया जाता है। दिसंबर 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 15 अक्टूबर, 2008 को पहला अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाकर ग्रामीण महिलाओं की भूमिका को सम्मानित करने का निर्णय लिया था। इस दिन खेती और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने, खाद्य सुरक्षा सुधारने और गांवों में गरीबी मिटाने में ग्रामीण और मूल निवासी महिलाओं की भूमिका का सम्मान किया जाता है। ग्रामीण महिलाएं विकसित और विकासशील देशों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दुनिया के विकासशील देशों के कई भागों में वे फसल उत्पादन और पशुओं की देखभाल के साथ-साथ अपने परिवारों के लिए भोजन, जल और ईंधन की व्यवस्था भी करती हैं। इसके अलावा ग्रामीण महिलाएं बच्चों, बुजुर्गों और बीमार व्यक्ति की देखभाल भी करती हैैं। जाहिर है कि भुखमरी और गरीबी को समाज से मिटाने के लिए इन महिलाओं को सशक्त बनाना केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि यह समाज की मांग भी है।

इन्हें इनके अधिकारों और अवसरों से वंचित करने का अर्थ बच्चों और समाज के लिए बेहतर भविष्य से इन्कार करने जैसा है। बहरहाल केंद्र सरकार द्वारा इस वर्ष महिला कृषकों के सशक्तीकरण के लिए इस दिन को देश में महिला किसान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया है। यह एक अत्यंत प्रासंगिक एवं सामयिक निर्णय है। यद्यपि महिलाओं की भागीदारी कृषि एवं इससे संबंधित क्षेत्रों में बहुत ज्यादा है, फिर भी किसान शब्द सुनने से हमारे मस्तिष्क में हमेशा पुरुष का प्रतिबिंब सामने आता है। वहीं अफ्रीकी देशों में भारत के उलट स्थिति है। वहां किसान शब्द कहने से लोगों के मस्तिष्क में महिला का ही चित्र आता है।

नैरोबी के एक सम्मेलन में जब मैं उत्तर प्रदेश के कृषकों के विषय में बातचीत कर रहा था तो प्रश्नोत्तर के दौरान मेरी समझ में आया कि दोनों स्थानों के प्रसंगों में काफी ज्यादा फर्क है। वहां सम्मेलन में अधिकांश महिलाएं थीं और वहां खेती-बाड़ी के कार्यों में भी महिलाओं का ही वर्चस्व है। अगर हम आंकड़ों की बात करें तो देश में वर्ष 2010-11 की कृषि गणना में कुल 13.83 करोड़ कृषकों में से महिला कृषकों की संख्या 1.77 करोड़ थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो तब देश में महिला किसानों की तादाद 12.8 प्रतिशत थी। हालांकि वर्ष 2015-16 की कृषि गणना में देश में महिला कृषकों की संख्या एवं प्रतिशत में थोड़ी वृद्धि हुई है तथा अब कुल 14.57 करोड़ कृषकों में से महिला कृषकों की संख्या 2.02 करोड़ है। अर्थात भारत जैसे कृषि प्रधान देश में महिला किसानों की संख्या अभी करीब 14 प्रतिशत है।

देखा जाए तो कुछ राज्यों में महिला कृषकों का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से अब भी कम है। जैसे कि पंजाब में महिला किसानों की संख्या 1.6 प्रतिशत है, वहीं ओडिशा में यह आंकड़ा 4.1 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 7.6 प्रतिशत, राजस्थान में 10.1 प्रतिशत और झारखंड में 11.1 प्रतिशत है। हालांकि ये आंकडे़ अपने देश में महिलाओं के कृषि क्षेत्र में सहभागिता को सही प्रकार से प्रदर्शित नहीं करते हैैं। दरअसल महिलाओं की भागीदारी आज खेती, बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन इत्यादि में 50 प्रतिशत से भी अधिक है, परंतु भूमि का स्वामित्व उनके नाम पर अपेक्षाकृत बहुत ही कम प्रतिशत में है। इसी कारण कृषि गणना में कृषकों की संख्या में उनकी उपस्थिति बहुत कम दिखाई पड़ती है। हालांकि दक्षिण भारतीय राज्यों में यह स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। तमिलनाडु में महिला कृषकों का प्रतिशत 19.7 है, जबकि कर्नाटक में यह 20.1 प्रतिशत, केरल एवं तेलंगाना में 23 प्रतिशत एवं आंध्र प्रदेश में 30.1 प्रतिशत है।

खरीफ में धान की रोपाई के समय अधिकांश खेतों में महिलाएं ही रोपाई करती दिखाई पड़ती हैं। यही स्थिति फल-सब्जियों की तोड़ाई तथा फसलों की कटाई में भी देखने को मिलती है। गांवों में पशुओं की देखरेख, उन्हें चारा देना तथा साफ-सफाई करना एवं दूध निकालना आदि अधिकांश कार्य महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। चूंकि इनका यह श्रम घरेलू श्रम की परिभाषा के दायरे में आता है अत: इनकी हिस्सेदारी पारिवारिक आय में तो होती है, परंतु इससे इन्हें व्यक्तिगत आय बहुत कम हो पाती है। जो महिलाएं दूसरों के खेतों में खेतिहर मजदूर के रूप में कार्य करती हैैं, उन्हें ही व्यक्तिगत आय के रूप में धनराशि प्राप्त हो पाती है।

हाल ही में फैजाबाद में आयोजित रबी गोष्ठी के दौरान एक महिला कृषक ने यह प्रश्न उठाया कि छोटी काश्त वाले कृषक परिवार के पुरुष सदस्य अक्सर नौकरी के लिए बाहर चले जाते हैं और गांवों में महिलाओं द्वारा ही कृषि का सारा कार्य किया जाता है, परंतु कृषि कार्य के दौरान उनके साथ कोई दुर्घटना होने पर उन्हें बीमा आदि का लाभ नहीं मिल पाता है, क्योंकि भूमि उनके नाम नहीं होती है। उस महिला का यह अनुरोध था कि महिलाओं को कृषि कार्य में मान्यता प्रदान की जानी चाहिए तथा जो सुविधाएं भूमिधर कृषकों को उपलब्ध हैं वे उन्हें भी उपलब्ध होनी चाहिए।

महिलाओं की कृषि क्षेत्र में भागीदारी को पहचान एवं बढ़ावा देने के दृष्टिकोण से केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक कृषि विज्ञान केंद्र में एक महिला वैज्ञानिक तैनात करने का निर्णय लिया गया है। उत्तर प्रदेश में कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा चलाए जा रहे चार वर्षीय गृह विज्ञान के पाठ्यक्रम को कृषि स्नातक की समकक्षता प्रदान कर दी गई है, जिससे अधिक से अधिक महिलाएं कृषि एवं संबंधितक्षेत्र में सरकारी क्षेत्र में नौकरियों में स्थान प्राप्त कर सकेंगी। राष्ट्रीय आजीविका मिशन के अंतर्गत प्रदेश में महिलाओं को फार्म मशीनरी बैंक योजना जिसमें ट्रैक्टर एवं अन्य उपकरणों के क्रय पर 80 प्रतिशत अनुदान मिलता है, के अंतर्गत प्राथमिकता प्रदान की जा रही है। इसी प्रकार हर साल 23 दिसंबर को आयोजित होने वाले किसान सम्मान दिवस के अवसर पर तीन सर्वश्रेष्ठ प्रगतिशील महिला कृषकों को सम्मानित भी किया जाता है।

कृषि के क्षेत्र में महिलाओं द्वारा की जा रही मेहनत एवं सहभागिता को देखते हुए यह अच्छा होगा कि कृषकों को दिए जाने वाले अनुदान एवं अन्य प्रोत्साहनों में इस प्रकार का परिवर्तन किया जाए ताकि महिलाओं के एकल एवं संयुक्त स्वामित्व वाली भूमि के लिए ज्यादा अनुदान और प्रोत्साहन की व्यवस्था हो सके। ऐसा करने से घर की महिलाओं का भी नाम कृषकों के रूप में भू-अभिलेखों में पुरुषों के साथ संयुक्त रूप से जुड़वाने को बढ़ावा मिलेगा। इसके साथ ही कृषि कार्य के दौरान महिला किसानों को भी वे सभी सुविधाएं प्राप्त हो सकेंगी, जो एक पुरुष कृषक को सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैैं।

[ लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं उत्तर प्रदेश कृषि विभाग में प्रमुख सचिव हैं ]