प्रो. रसाल सिंह। जम्मू में रोहिंग्याओं की संख्या को बढ़ाने की साजिश पिछले करीब एक दशक से जारी है। दरअसल यह हिंदू बहुल ‘जम्मू संभाग की जनसांख्यिकी को बदलने’ की साजिश का परिणाम है। इस योजना के तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों और घाटी के मुसलमानों को भी जम्मू में बसाया गया। उन्हें रोशनी एक्ट की आड़ में भूमि आवंटित की गई और मतदाता बनाया गया, ताकि चुनावी समीकरणों को प्रभावित किया जा सके। रोहिंग्या घुसपैठियों को राजनीतिक प्रश्रय देकर बंगाल में भी बड़ी संख्या में बसाया गया। अब वहां चुनावी फसल काटने की तैयारी है। इसलिए ममता बनर्जी ने रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों आदि सभी अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) से एकजुट होकर तृणमूल को मत देने की अपील की है।

म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद घुसपैठ की आशंका फिर बढ़ गई है। हैरानी यह है कि इस पृष्ठभूमि में गृह मंत्रलय द्वारा पिछले माह मिजोरम, मणिपुर, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश को जारी की गई एडवाइजरी को नजरअंदाज करते हुए मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने ‘शरणार्थियों’ को शरण देने की वकालत की है। जम्मू की ही तरह दिल्ली में भी अनेक जगहों पर बसे हुए घुसपैठियों की जांच-पड़ताल और धरपकड़ शुरू हुई है। उल्लेखनीय है कि ये वही रोहिंग्या हैं जिन्होंने अपनी नृशंसता से म्यांमार के रखाइन प्रांत को हिंदू-विहीन कर दिया है।

सख्त कार्रवाई का समय : जम्मू-कश्मीर और दिल्ली प्रशासन ने अब इन अवैध घुसपैठियों की बायोमीटिक, फिंगरप्रिंट, पासपोर्ट, शरणार्थी कार्ड आदि की जानकारी जुटाना शुरू किया है। यह कार्रवाई केंद्रीय गृह मंत्रलय के आठ अगस्त 2017 को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को लिखे पत्र का संज्ञान लेकर की गई है। इस पत्र में गृह मंत्रलय ने भारत में अवैध घुसपैठियों की बढ़ती संख्या और उससे पैदा होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा संकट पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। कड़ी निगरानी के बीच इनकी जांच पड़ताल का काम शुरू किया गया है। इसके तहत पहली खेप में 170 अवैध घुसपैठियों को कठुआ में रखा गया है। वहां से उनकी स्वदेश वापसी सुनिश्चित की जाएगी।

रोहिंग्या म्यांमार के बांग्लाभाषी मुसलमान हैं। राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में इनकी संलिप्तता के सबूत मिलते रहे हैं। ये लोग बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसकर देश के विभिन्न भागों असम, बंगाल, जम्मू, दिल्ली और हैदराबाद आदि में फैल गए हैं। जम्मू उनका सबसे पसंदीदा स्थान है, क्योंकि यहां की फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस, मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी और गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकारों को उनके बसने से राजनीतिक लाभ मिलता रहा है। इसलिए इन सरकारों ने रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की आगे बढ़कर अगवानी की है और उन्हें वोट के बदले में तमाम तरह के लाभ दिए हैं।

ये घुसपैठिये न सिर्फ स्थानीय संसाधनों पर बोझ हैं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा हैं। जिन साधनों और संसाधनों पर भारतवासियों का प्राथमिक अधिकार है, उनका उपयोग ये लोग कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे राजनीतिक आकाओं से समर्थन मिला हुआ है। हालांकि तमाम राष्ट्रवादी संगठन इन आपराधिक प्रवृत्ति के अवैध घुसपैठियों को इनके देश म्यांमार वापस भेजने की मांग करते रहे हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की आदी सेक्युलर सरकारें उनकी इस मांग को नजरअंदाज करती रही हैं। एक रोहिंग्या घुसपैठिये मोहम्मद सलीमुल्ला ने एक ‘विख्यात’ वकील के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर करते हुए जम्मू-कश्मीर प्रशासन की इस कार्रवाई पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है। साथ ही, गृह मंत्रलय को यह निर्देश देने की भी मांग की गई है कि वह अनौपचारिक शिविरों में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय (एफआरआरओ) के माध्यम से तत्काल और तीव्र गति से शरणार्थी पहचान पत्र जारी करे, ताकि इन ‘शरणाíथयों’ का उत्पीड़न न हो सके।

गृह मंत्रलय ने राज्यसभा में दिए गए एक लिखित जवाब में बताया है कि वर्ष 2018 से 2020 के बीच भारत में अवैध रूप से प्रवेश करने का प्रयास करने वाले तीन हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इनमें सर्वाधिक संख्या बांग्लादेशी, पाकिस्तानी व म्यांमारी रोहिंग्या घुसपैठियों की है। गौरतलब है कि मात्र दो वर्षो में तीन हजार लोग तो गिरफ्तार हुए हैं। न जाने कितने अपने प्रयास में सफल भी हो गए होंगे। पिछले दो दशकों में ही न जाने कितने घुसपैठिये भारत में घुसकर कहां-कहां बस गए होंगे! इन घुसपैठियों की पहचान और प्रत्यर्पण की बात करते ही सेक्युलर जमात सक्रिय हो जाती है। इस जमात को इस तथ्य से भी कुछ लेना-देना नहीं है कि इन घुसपैठियों को भारत में बसाने के लिए पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि मुस्लिम देशों से हवाला फंडिंग की जा रही है। हवाला फंडिंग से खाए-अघाए कुछ एनजीओ, मदरसे, वेलफेयर सेंटर आदि बनाने/ चलाने की आड़ में इनकी सुगम बसावट सुनिश्चित कर रहे थे और जरूरी दस्तावेज जुटाने/ बनवाने में भी इनकी मदद कर रहे थे। भारत की खुफिया एजेंसियां अब इनको उघाड़ने में जुटी हुई हैं। जैसे-जैसे इस मामले की परतें खुलेंगी, जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला-मुफ्ती ‘राजवंशों’ की मिलीभगत का भी पर्दाफाश होगा।

इस बीच इनके सत्यापन की प्रक्रिया में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। बहुत से रोहिंग्या घुसपैठियों ने लेन-देन करके या सत्ताधीशों के साथ मिलीभगत कर राशन कार्ड, आधार कार्ड तथा वोटर कार्ड आदि बनवा लिए हैं। एक और चिंता की बात यह है कि इनके बच्चे बहुत ज्यादा हैं। उनकी पहचान करना मुश्किल हो रहा है। यह काम भी राजनीतिक शह पर ही हो रहा है, ताकि जम्मू की जनसांख्यिकी को बदला जा सके और निर्णायक वोट बैंक तैयार किया जा सके। सत्यापन-प्रक्रिया शुरू होते ही बहुत से रोहिंग्या जम्मू छोड़कर इधर-उधर के इलाकों तथा अन्य राज्यों में भी खिसक गए हैं। मगर इन दिक्कतों के बावजूद सत्यापन-प्रक्रिया पूरी प्रामाणिकता के साथ पूर्ण की जानी चाहिए और अवैध घुसपैठियों को हर हाल में प्रत्यíपत किया जाना चाहिए।

पिछले साल जो लोग अविभाजित भारत के विस्थापित शरणाíथयों को नागरिकता देने संबंधी नागरिकता (संशोधन) विधेयक (सीएए) के विरोध में दिल्ली में खूनी खेल खेल रहे थे और शाहीन बाग में टेंट तानकर बैठे थे, वही लोग आज इन अवैध घुसपैठियों को सिर पर बैठाने और सारे अधिकार देने की वकालत कर रहे हैं। यह विडंबनापूर्ण व्यवहार है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का विरोध भी इसी कारण किया जा रहा था, ताकि इस प्रकार के घुसपैठियों की पहचान और प्रत्यर्पण न किया जा सके। इन्होंने अपने वास्तविक मंसूबों को छिपाते हुए भारतीय मुसलमानों को नागरिकता छिनने का डर दिखाया और उन्हें भड़काया। यह सब हिंदुओं के बाद भारत के ‘दूसरे बहुसंख्यक’ समुदाय मुसलमानों की एकमुश्त वोट मुट्ठी में करने की जुगत थी। आजादी से लेकर आज तक कई राजनीतिक दल और अनेक झोला छाप स्वघोषित स्वयंसेवी संगठन इन तथाकथित ‘अल्पसंख्यकों’ के हिमायती दिखकर ही अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। कल को अगर चीन के उइगर मुसलमान भी भारत में घुसपैठ करते हैं, तो भी ये लोग उनकी हिमायत करने में हिचकेंगे नहीं।

जस्टिस राजेंद्र सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। अगर यह बात सच है तो मुसलमानों की इस हालत के लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए। जो लोग और राजनीतिक दल पिछले सात दशकों से भी अधिक समय से उनके तुष्टीकरण की राजनीति करते रहे हैं, उनके सबसे बड़े हिमायती और पैरोकार बनकर उनके वोटों की एकमुश्त फसल काटते रहे हैं, उनसे मुसलमानों के इन हालात पर सवाल पूछा जाना चाहिए! देश के मुसलमानों को भरमाने के लिए धर्मनिरपेक्षता तक की अलग परिभाषा गढ़ दी गई है।

मुसलमानों का हिमायती दिखना, उनकी पैरोकारी करना ही सेक्युलर होना है। यह नायाब परिभाषा सिर्फ हिंदुस्तान में चलती है। इसी परिभाषा से भरमाकर मुसलमानों को न सिर्फ पिछले सात दशकों से पिछलग्गू बनाए रखा गया, बल्कि उन्हें राष्ट्र और संवैधानिक संस्थाओं के विरुद्ध भी खड़ा करने की साजिश की गई। मुसलमानों के संगठित वोट बैंक को अपने पाले में कर लेना चुनाव जीतने का अब तक का सबसे आसान और नायाब तरीका रहा है। लेकिन अब हर राज्य में मुसलमान वोटों के कई-कई दावेदार और ठेकेदार खड़े हो गए हैं और हर कोई जोर-शोर से उनका हितैषी होने का दावा कर रहा है। बंगाल और असम इसके तात्कालिक उदाहरण हैं। जहां बंगाल में तृणमूल, वामपंथी-कांग्रेसी गठजोड़, पीरजादा अब्बास सिद्दीकी और असदुद्दीन ओवैसी में मुसलमानों का हमदर्द होने की होड़ लगी हुई है, वहीं असम में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियां, बदरुद्दीन अजमल और ओवैसी इनकी सरपरस्ती की जोर आजमाइश कर रहे हैं। हालांकि अब मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की विदाई वेला है।

रोहिंग्या और बांग्लादेशी आदि घुसपैठियों की विदाई की बात उठते ही सेक्युलर जमात की रुदाली मातम मनाने लगती हैं। मानवता और मानव अधिकारों की भी दुहाई देने लगती हैं। यही इस बार भी शुरू होने की आशंका है। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मातमी धुन शुरू भी कर दी है। लेकिन भारत सरकार को इस मामले में भी मजबूत इरादों और इच्छाशक्ति से काम लेने की जरूरत है। देश के संसाधनों पर सबसे पहला हक देशवासियों का है, न कि घुसपैठियों का है। इसके साथ ही, देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए संकट खड़ा करने वाले अवैध घुसपैठियों को बिना किसी हीला-हवाली के तत्काल बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार को किसी भी प्रकार के दबाव में न आकर इस मामले में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। ऐसा करके ही राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित की जा सकती है।

[अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]