नई दिल्ली [रसाल सिंह]। कोरोना संकट ने एक बार फिर थॉमस माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत को प्रासंगिक बना दिया है। वर्ष 1798 में इस ब्रिटिश अर्थशास्त्री ने अपने बहुचर्चित लेख ‘एन एस्से ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन’ में प्रतिपादित किया था कि प्रकृति अपने संसाधनों के अनुसार अकाल, आपदा, महामारी, युद्ध आदि के द्वारा जनसंख्या को नियंत्रित करती रहती है। ऐसा करना इसलिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि ‘गुणात्मक’ रूप में होती है, जबकि संसाधनों में वृद्धि ‘धनात्मक’ रूप में ही हो पाती है।

इस बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या की असीमित भौतिक आवश्यकताएं प्रकृति को कुरूप बनाकर क्रुद्ध करती हैं एक ओर विश्व के अनेक अविकसित और अल्प-विकसित देशों में बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या आज भी एक बड़ी चुनौती है, दूसरी ओर जिन विकसित देशों ने जनसंख्या को नियंत्रित  कर लिया है, वहां उपभोक्तावाद चरम पर होने के कारण उनकी भौतिक आवश्यकताएं और प्राकृतिक दोहन अनियंत्रित और असीमित है। परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है।

इस दबाव को संतुलित करने के लिए जनसंख्या नियंत्रित करने की आवश्यकता है। भारत की जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। भारत जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद विश्व में दूसरे स्थान पर है। भारत का जनसंख्या घनत्व चीन से लगभग तीन गुना अधिक है। यह तथ्य सर्वाधिक विचारणीय और चिंताजनक है।

इस समस्या से निपटने के लिए हाल के कुछ वर्षों में कई संसद सदस्य निजी विधेयक लेकर आए हैं। इन सभी की मुख्य चिंता लगातार बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करना है। हालांकि दुखद सच्चाई यह है कि इससे निपटने के लिए लाए गए इन विधेयकों में से कोई भी पारित होकर कानून नहीं बन सका है। ऐसा न हो पाने की कई राजनीतिक वजहें हैं। यह वोट बैंक की राजनीति से भी जुड़ा हुआ मामला है। जिनकी जितनी अधिक जनसंख्या, उनके उतने अधिक वोट और उनकी उतनी ही अधिक सुनवाई। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनसंख्या निर्णायक दबाव-समूह होती है।

जनसंख्या नियंत्रण विधेयक को मुस्लिम और दलित-पिछड़ा व गरीब विरोधी कहकर दुष्प्रचार किया जाता है। इन समुदायों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल तो उसका विरोध करते ही हैं, अन्य राजनीतिक दल भी वोटों के संभावित नुकसान की आशंका के कारण निर्णायक पहल करने से बचते हैं। समय आ गया है कि समस्त भारतवासी इस विकराल बन चुकी समस्या के बारे में सोचें और उसके समाधान की दिशा में सक्रिय हो। भारत जैसे विकासशील देश में संसाधन और सुविधाएं सीमित हैं।

इन सीमित संसाधनों पर बढ़ती हुई जनसंख्या का बेहिसाब दबाव है। इसी कारण हमारे देश में भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार आदि आधारभूत आवश्यकताओं के लिए मारामारी है। सरकारी विद्यालयों अस्पतालों से लेकर नामी-गिरामी निजी विद्यालयों-अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, हवाई अड्डों, होटल-रेस्टोरेंट, पर्यटन-स्थलों, सड़कों, बाजारों, थानों- न्यायालयों, सरकारी कार्यालयों आदि

जगहों पर बेहिसाब भीड़ रहती है।

छोटी-छोटी सुविधाओं और जरूरतों के लिए लंबी प्रतीक्षा स्थायी जीवन-स्थिति है। कुछ परंपरागत अर्थशास्त्री इसे अर्थव्यवस्था की गतिशीलता और विकास का सूचक मानते और बताते हैं, परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि जनसंख्या और मानव संसाधन में अंतर होता है। कमाने वाले हाथों और खाने वाले मुंह में पारस्परिक अनुपात होना आवश्यक है। वर्तमान युग तो मशीन और तकनीक का है। इस युग में तो कमाने वाले हाथों को सोचने वाले मस्तिष्क ने काफी हद तक प्रतिस्थापित कर दिया है।

गौरतलब है कि जनसंख्या को मानव संसाधन बनाने के लिए आधारभूत ढांचे, साधन-संसाधन और सुविधाओं की आवश्यकता होती है। अनिवार्य पौष्टिक आहार, पेयजल, समुचित स्वास्थ्य, स्तरीय शिक्षा और कौशल विकास की व्यवस्थाओं, सुविधाओं द्वारा ही जनसंख्या को मानव संसाधन बनाया जा सकता है। भारत जैसे विकासशील देश की तो खैर बिसात ही क्या, पर किसी विकसित देश में भी ये संसाधन और सुविधाएं असीमित नहीं हो सकती हैं।

कृषि भूमि और उसकी उत्पादन क्षमता, अन्यान्य प्राकृतिक संसाधन, यहां तक कि शुद्ध जल और वायु भी असीमित नहीं हैं। जनसंख्या, अशिक्षा, गरीबी, अस्वस्थता, पर्यावरण असंतुलन, प्राकृतिक क्षरण के दुष्चक्र से हम सब अनभिज्ञ नहीं हैं। इन सभी सुविधाओं के अभाव और संसाधनों पर निरंतर बढ़ते दबाव ने न सिर्फ मानव-स्वभाव और चरित्र को विकृत किया है, बल्कि प्रकृति के स्वरूप को भी बदरंग और विध्वंसक बना डाला है।

प्रकृति मनुष्य की सबसे करीबी मित्र और सहचरी होती है किंतु अत्यधिक दोहन और शोषण ने उसे शत्रु और संहारक बना दिया है। जनसंख्या और विकास का सीधा संबंध होता है। न केवल चीन जैसे विकसित देश ने, बल्कि बांग्लादेश जैसे विकासशील देश ने भी जनसंख्या और विकास के अंतर्संबंध को समझा है। इसलिए चीन ने 1979 में जनसंख्या नीति लागू की और वहां शहरी दंपती के लिए एक संतान और ग्रामीण दंपती के लिए दो संतान का नियम सख्ती से लागू किया गया।

परिणामस्वरूप चीन ने अगले 25-30 वर्षों में ही जनसंख्या पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया। इस बीच चीन ने जबर्दस्त आर्थिक विकास करते हुए खुद को अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर विकसित कर लिया है। चीन ने यह सब इस कानून और वहां के नागरिकों के संकल्प और सहयोग से संभव किया। बांग्लादेश भी जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान जैसे देशों ने दिखाया है कि भौगोलिक क्षेत्रफल और अन्यान्य संसाधनों-सुविधाओं और जनसंख्या में आनुपातिक संतुलन स्थापित करके ही राज्य अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, रोजगार और सामजिक सुरक्षा आदि सुविधाएं प्रदान कर सकता है।

कल्याणकारी राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को उपरोक्त आधारभूत सुविधाएं प्रदान करे। ये सुविधाएं प्राप्त होने से ही नागरिकों की मानवीय गरिमा भी बहाल हो सकेगी। मानव जीवन का महत्व और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए जनसंख्या नियंत्रण किया जाना आधारभूत और अनिवार्य शर्त है। भारत को जनसंख्याविस्फोट होने से पहले ही इसे ‘डीफ्यूज’ कर देना चाहिए। अगर हम ऐसा करने में असफल होते हैं तो न सिर्फ कोरोना संकट से भी बड़ी आपदाएं झेलनी पड़ेंगी, बल्कि उनसे निपटने में भी भारत को भारी समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

आज कोरोना संकट के परिणामस्वरूप सरकारों और नागरिक समाज द्वारा किए जा रहे असीम राहत-कार्यों के बावजूद मीडिया में भय, भूख और संताप के भयावह दृश्यों की भरमार है। इसका सबसे बड़ा कारण बेहिसाब जनसंख्या है। यदि हम ‘लॉकडाउन’ जैसे प्रभावी उपायों के बावजूद इस महामारी के फैलाव को रोकने में असफल होते हैं, तो देश की व्यापक आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य-सुविधाओं व साधनों की भारी कमी मानव-जीवन की क्षति को कई गुना बढ़ा देगी। (प्रोफेसर, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय)

आबादी नियंत्रण व समान वितरण के उपाय

भारत में जनसंख्या का अत्यंत असमान वितरण है। जनसंख्या की यह असमानता न केवल आर्थिक-शैक्षणिक स्तर, बल्कि धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण और पश्चिमी भारत में जनसंख्या की वृद्धि दर पूर्वी और उत्तर भारत से काफी कम है। हिंदी प्रदेशों की स्थिति इस मामले में सर्वाधिक चिंताजनक है।

यह अकारण नहीं कि उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे जिन राज्यों की आर्थिक विकास गति और साक्षरता दर कम है, उनकी जनसंख्या वृद्धि दर बहुत अधिक है। जबकि केरल और गुजरात जैसे राज्यों का मामला इनसे ठीक उलट है। परिणामस्वरूप देश में जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा हो रहा है। भारत में प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र है। प्रत्येक 25 वर्ष में पिछली जनगणना की जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों का परिसीमन किया जाता है। ऐसी स्थिति में जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में पहल की है, उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा और संसद में उनका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा।

यह आशंका केवल राज्यों की ही नहीं है, बल्कि तमाम धार्मिक और जातीय समुदायों को भी यही डर है। उनका यह डर और चिंता वाजिब ही है। भारत सरकार को इस दिशा में निर्णायक पहल करते हुए जल्द-से-जल्द जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना चाहिए ताकि ऐसी आशंकाओं की समाप्ति के साथ समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सके।

आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जो पांच सूत्रीय कार्यक्रम लागू किया था, उसमें जनसंख्या नियंत्रण भी एक था। हालांकि उस वक्त इस कानून की आड़ में लोगों के साथ अत्यधिक जोर-जबर्दस्ती की गई थी। उसके बाद भी कई बार जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की छिट-पुट कोशिशें हुईं, किंतु उनमें गंभीरता और इच्छाशक्ति का अभाव था, इसलिए इस दिशा में कुछ भी ठोस नहीं हो सका है। बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे कुछ राज्यों ने पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों के लिए दो से अधिक संतान वाले दंपतियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने जैसी पहल तो की है, पर समस्या की विकरालता के अनुपात में ये कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाकर ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। इस कानून में दंडात्मक और प्रोत्साहनात्मक, दोनों तरह के प्रावधान करने की आवश्यकता है। यह कानून पारित होने के नौ महीने बाद दो से अधिक संतानों वाले दंपती को सरकार से मिलने वाली विभिन्न सुविधाओं और लाभकारी योजनाओं के लिए अपात्र मानते हुए वंचित किया जाना चाहिए। ग्राम-पंचायत से लेकर संसद और पंच से प्रधानमंत्री तक, प्रत्येक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जाए।

तीसरा बच्चा होते ही पिता को और चौथा बच्चा होते ही मां को मताधिकार से वंचित किया जाए ताकि परिवार के वोट बढ़ाकर अपना महत्व बढ़ाने की प्रवृत्ति को रोका जा सके। दो से अधिक बच्चे वाले दंपती को न सिर्फ विभिन्न कर छूटों से वंचित किया जाए, बल्कि संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ाने के लिए उनके ऊपर अच्छाखासा जनसंख्या अधिभार भी लगाया जाए। इस प्रकार दंड और प्रोत्साहन आधारित कानून बनाकर और उसे जमीनी स्तर पर लागू करके ही हम भारत को एक विकसित देश बना सकते हैं।