गुरु प्रकाश। पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि भाजपा शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लाई जाएगी। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा समान नागरिक संहिता के पक्ष में सकारात्मक संकेत भी व्यक्त किए जा रहे हैं। इसके बाद से देश के राजनीतिक और अकादमिक वर्ग के बीच इस पर चर्चा जोर पकड़ रही है। उत्तराखंड में तो इस दिशा में पहल भी हो चुकी है। वहां यह एक चुनावी मुद्दा भी बना।

उत्तराखंड में इसके लिए एक समिति बनाई गई है। उसकी रिपोर्ट के आधार पर कानून बनेगा। संभव है धीरे-धीरे भाजपा शासित अन्य राज्यों में भी वैसे ही कानून बने। पिछले महीने ही राष्ट्र ने अपने संविधान शिल्पी बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए हैं। ऐसे में समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन पर एक राष्ट्रीय विमर्श बाबा साहब को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

वास्तव में समान नागरिक संहिता की स्थापना एक संवैधानिक विशेषाधिकार है। देश में समानता लाने के दृष्टिकोण से भी यह महत्वपूर्ण है। संविधान में यूसीसी के पक्ष में ठोस आधार है। अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकता है। वहीं अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य पूरे भारत के क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास करेगा। हमारे संविधान की प्रस्तावना को संविधान का आत्मा एवं प्राण माना जाता है।

यह प्रस्तावना स्पष्ट रूप से स्थिति और अवसर की समानता की घोषणा करता है। इसके अतिरिक्त समानता संविधान के विचार से इतर एक राष्ट्र के रूप में भी हमारे लिए एक सभ्यतागत प्राथमिकता रही है। ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, कबीर और रविदास का जीवन और समय जाति एवं लिंग का भेदभाव किए बिना सभी के लिए समान व्यवहार की धारणा का सूचक है। समानता एक संवैधानिक वादा भी है। पिछले सात दशकों के दौरान यह न्यायिक संघर्ष और राजनीतिक अभिव्यक्ति का विषय रहा है। सवाल है कि जब विवाह और उत्तराधिकार जैसे मुद्दों की बात आती है तो क्या कानून के स्तर पर समानता है? जब भारतीय दंड संहिता, 1860 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के रूप में एक ‘समान’ आपराधिक कानून है तो फिर विवाह, तलाक, उत्तराधिकारी आदि मुद्दों को नियंत्रित करने वाली एक नागरिक संहिता क्यों नहीं?

डा. आंबेडकर के लिए समानता एक ऐसा धर्म सिद्धांत था जिस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। व्यक्तिगत कानूनों के संबंध में उन्होंने कहा था, ‘मैं व्यक्तिगत रूप से यह नहीं समझ पाता कि धर्म को इतना विशाल, विस्तृत क्षेत्रधिकार क्यों दिया जाना चाहिए कि वह पूरे जीवन को अपने क्षेत्रधिकार में ले ले और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण करने से रोक दे। आखिर हमें यह आजादी किसलिए मिल रही है? हमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए मिल रही है, जो इतनी असमानताओं, भेदभावों और अन्य कई ऐसी चीजों से भरी हुई है, जिसकी हमारे मौलिक अधिकारों के साथ मतभिन्नता है।’ डा. आंबेडकर ने कई मौकों पर मुस्लिम महिलाओं के साथ रोजाना होने वाले आम अन्यायों के खिलाफ अपना विचार व्यक्त किया है। अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ओर पार्टीशन आफ इंडिया’ में पृष्ठ 220-221 पर अपने विचारों को व्यक्त करते हुए वह कहते हैं, ‘पर्दा प्रणाली के परिणामस्वरूप मुस्लिम महिलाओं का पृथक्करण होता है।

पर्दा मुस्लिम महिलाओं को मानसिक और नैतिक पोषण से वंचित करता है। स्वस्थ सामाजिक जीवन से वंचित होने के कारण नैतिक पतन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है, जो अवश्यंभावी रूप से होती ही होती है।’ इस साल की शुरुआत में देश के कुछ हिस्सों में हिजाब के बचाव में विरोध-प्रदर्शन हुए थे। डा. आंबेडकर अगर आज जीवित होते तो उन्होंने यकीनन व्यक्तिगत स्वायत्तता के नाम पर इस प्रकार से मध्यकालीनता का समर्थन करने वालों का प्रखर विरोध किया होता। ‘पाकिस्तान ओर पार्टीशन आफ इंडिया’ में डा. आंबेडकर आगे लिखते हैं, ‘मुसलमानों के बीच सामाजिक बुराइयों का अस्तित्व काफी चिंताजनक है, लेकिन इससे भी अधिक तकलीफदेह तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों के बीच उनके उन्मूलन के लिए पर्याप्त पैमाने पर सामाजिक सुधार के लिए कोई संगठित आंदोलन नहीं है। वे मौजूदा प्रथा में किसी भी बदलाव का विरोध करते हैं।’ यह वास्तव में यूसीसी के अमल में सबसे बड़ा अवरोध है।

भारत में तुष्टीकरण की इस राजनीति को संस्थागत बनाने के लिए कांग्रेस पार्टी ही असली दोषी है। चाहे वह वर्ष 1985 में प्रगतिशील शाहबानो मामले पर कोर्ट के फैसले को उलट देना हो या तीन तलाक और अनुच्छेद 370 को बनाए रखने की मौन स्वीकृति। समानता के लिए संघर्ष मुस्लिम समुदाय में महिलाओं के लिए एक बुनियादी चुनौती है। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति इस संघर्ष को जारी रखने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। तीन तलाक का उन्मूलन इस विषय में एक वैसा ही मामला है जैसा अनुच्छेद 370 का निरसन, जो जम्मू-कश्मीर की महिलाओं के साथ भेदभाव करता था। वास्तव में समान नागरिक संहिता एक ऐसा विचार है जिसका समय आ चुका है। जो लोग या संस्थाएं यूसीसी के विरुद्ध हैं, अब उन्हें आगे आकर समाज के हित में इस मुद्दे पर सार्थक और समाधान केंद्रित बहस करनी चाहिए।

(लेखक पटना विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)