कृषि कानूनों पर पुर्निवचार है जरूरी, सरकार ने किसान संगठनों और राजनीतिक दलों की शंकाओं का नहीं किया समाधान
जो तीन कृषि कानून बनाए गए हैं उन्हें लेकर उठ रहे प्रश्न निराधार नहीं हैं क्योंकि उनके निर्माण में प्रमुख हितधारक किसानों व्यापारियों आढ़तियों मंडी मजदूरों किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से विचारविमर्श नहीं किया गया और न ही सरकार ने उनकी शंकाओं का समाधान किया।
[सचिन पायलट]। भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ कृषि है और हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता 138 करोड़ नागरिकों को दोनों समय भोजन उपलब्ध कराना है। कौन नहीं जानता कि देश की आजादी के समय खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भर रहने वाला भारत तत्कालीन कांग्रेस सरकारों की दूरदर्शी नीतियों के क्रियान्वयन के फलस्वरूप न केवल आत्मनिर्भर हुआ, बल्कि आज अनेक कृषि उत्पादों के निर्यात में अग्रणी हो गया है। निश्चित रूप से भारत के किसानों के अथक परिश्रम से ही यह आत्मनिर्भरता हासिल हुई है, परंतु यह भी सही है कि पिछले कुछ वर्षों में इन्हीं किसानों की आर्थिक स्थिति खराब होती चली गई है।
नाबार्ड द्वारा 2018 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश के 52 प्रतिशत कृषि परिवार औसतन एक लाख रुपये के कर्ज तले दबे हुए थे और यह संख्या पिछले दो सालों में बढ़ी ही है। कुछ राज्यों में की गई कर्ज माफी से किसानों को कुछ राहत तो मिली, लेकिन कृषि उपज खरीद की ठोस नीति और एमएसपी पर खरीद की कमजोर व्यवस्था के कारण उनकी स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ।
तीनों कृषि कानून पर उठ रहे प्रश्न नहीं हैं निराधार
इसलिए यह जरूरी तो है कि किसानों के हित में कुछ किया जाए, पर जो तीन कृषि कानून बनाए गए हैं, उन्हें लेकर उठ रहे प्रश्न निराधार नहीं हैं, क्योंकि उनके निर्माण में प्रमुख हितधारक किसानों, व्यापारियों, आढ़तियों, मंडी मजदूरों, किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से विचारविमर्श नहीं किया गया और न ही सरकार ने उनकी शंकाओं का समाधान किया। लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरीके से बिल पारित हुआ, उससे भी जनमानस को सरकार की नीयत पर शंका होने लगी है।
असीमित अड़चनों का करना पड़ रहा है सामना
भारत जैसे देश में जहां 50 प्रतिशत फसल का उत्पादन 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान करते हैं, उनके इतने बड़े समूह को बाजारों से जुड़ने में असीमित अड़चनों का सामना करना पड़ सकता है। इतनी कम क्षमता वाले छोटे किसानों का पूंजीपतियों की आर्थिक शक्ति के आगे टिकना संभव नहीं है। खेती में बड़ी समस्या यह है कि इसमें आय का प्रवाह सतत नहीं होता, जबकि किसानों के खर्चे निरंतर होते रहते हैं और उनका कर्ज बढ़ता रहता है।
असफल फसल बीमा योजना ने भी किसानों की स्थिति को बनाया कष्टदायी
इसीलिए फसल आते ही किसान को जो दाम मिले, उस पर बेचने की मजबूरी रहती है। एक असफल फसल बीमा योजना ने भी किसानों की स्थिति को कष्टदायी बनाया है। इन कानूनों के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं कि कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव, 2019 के घोषणापत्र में मंडियों को समाप्त करने और आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 को खत्म करने का उल्लेख किया था। यह सच्चाई से परे है। कांग्रेस ने मंडी समितियों के अधिनियम में संशोधन के साथ-साथ ग्रामीण बाजार का वादा किया था, जो किसानों के हित में है। ऐसे ही कांग्रेस ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में आज की जरूरतों के अनुसार बदलाव के लिए कहा था, न कि इसे समाप्त करने को कहा था। आवश्यक वस्तु अधिनियम समाप्त होने से कालाबाजारी और मुनाफाखोरी के नियंत्रण से बाहर होने का पूरा अंदेशा है।
(पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे लेखक राजस्थान कांग्रेस के नेता हैं)