[ राजीव मिश्र ]: दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई संदेश दिए हैं और उनमें प्रमुख यह है कि विकास की राजनीति सकारात्मक परिणाम देती है। हालांकि भाजपा की राजनीति भी विकासवाद को समर्पित रही है। उसका नारा भी है ‘सबका साथ सबका विकास’, लेकिन हाल के दिनों में अन्य विषयों पर जरूरत से ज्यादा जोर देने से विकास की उसकी बातें पीछे सरक गईं। इससे उसकी छवि भी प्रभावित हुई। भाजपा को इसे लेकर अधिक सतर्क होने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में गत पांच वर्षों में विकास के झंडे गाड़े हैं, लेकिन वह अपने काम को भुनाने में सफल जरूर रही है। इस मामले में भाजपा पीछे रह गई, क्योंकि उसने अपने प्रचार अभियान में अपने राष्ट्रवादी संकल्पों पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया।

भाजपा को समझना होगा कि विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा कारगर नहीं होते

उसे समझना चाहिए कि विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा कारगर नहीं होते। दिल्ली के बाद अगले विधानसभा चुनाव बिहार, बंगाल में होने हैं। इसमें संदेह नहीं कि दिल्ली चुनाव के नतीजों का कुछ न कुछ असर बिहार और बंगाल में असर रखने वाले राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति पर पड़ सकता है। बिहार के बाद बंगाल में चुनाव होने हैं और ममता बनर्जी ने अभी से दिल्ली की तरह मुफ्त बिजली देने की घोषणा कर दी है। इसी तरह बिहार में भी पोस्टर वार शुरू हो गया है।

बिहार में भाजपा और जदयू के बीच गठबंधन मिलकर लड़ेगा चुनाव

जहां तक बिहार की बात है, 2015 में 24.4 प्रतिशत मत पाकर भाजपा बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन उसे सिर्फ 53 सीटें ही मिली थीं। इसका कारण जदयू, राजद और कांग्रेस का महागठबंधन था। तब राजद को 18.4, जदयू को 16.8 और कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत मत मिले थे। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा को 4.8 प्रतिशत, जीतन राम मांझी के हम को 2.2 प्रतिशत और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को 2.6 प्रतिशत मत मिले थे। इस बार मामला थोड़ा अलग होगा। बिहार में भाजपा और जदयू के बीच गठबंधन है। हालांकि भाजपा-जदयू गठबंधन से उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी अलग हैं, पर बार-बार गठबंधन बदलने के कारण उनकी लोकप्रियता कम हुई है।

बिहार में निषाद समाज के लिए समर्पित विकासशील इंसान पार्टी का उदय

हाल के समय में बिहार में एक नई राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ है। वह है मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी। निषाद समाज के लिए समर्पित इस पार्टी को लगभग 22 जातियों-उपजातियों का समर्थन है। हाल में हुए उपचुनाव में एक सीट पर लगभग 15 प्रतिशत मत पाकर इसने अपनी मौजूदगी का अहसास भी कराया। अभी यह पार्टी महागठबंधन के साथ है।

बिहार में भाजपा विकास पर देगी अधिक जोर

माना जा रहा है कि बिहार में विकास पर जोर देने के साथ-साथ भाजपा इस तरह की नई पार्टियों को भी अपने साथ जोड़ने के प्रयास करेगी। इसके साथ ही राष्ट्रवाद के मामलों को उठाने में कमी लाएगी और विकास पर अधिक जोर देगी। इसके भी आसार हैं कि वह सहयोगी दलों को महत्व देगी।

2015 के चुनाव में राजद-जदयू महागठबंधन को मिली थीं 179 सीटें

ध्यान रहे कि 2015 में राजद-जदयू महागठबंधन को 41.9 प्रतिशत मत मिले थे, जबकि सीटें 179 मिली थीं। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में वह परिणाम बिल्कुल एक आंधी की तरह था। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव जब भाजपा और जदयू साथ मिलकर लड़े थे तब उन्हें मत तो 39.07 प्रतिशत ही मिले थे, लेकिन सीटें 206 मिली थीं। साफ है कि विरोधी मतों का बिखराव चुनाव नतीजों को बदल देता है।

गठबंधन की राजनीति में सहयोगियों को साथ रखो और विरोधियों को तोड़ो

भाजपा-जदयू गठबंधन और राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन की रणनीति यही होगी कि अपने सहयोगियों को साथ रखना और विरोधी गठबंधन के सहयोगियों को तोड़ना। दिल्ली के नतीजों को देखें तो कई चीजें स्पष्ट होती हैं। इस बार भाजपा का वोट प्रतिशत 6.51 प्रतिशत बढ़ा और आम आदमी पार्टी का वोट शेयर लगभग आधा प्रतिशत घटा। वहीं कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 5.74 प्रतिशत की गिरावट आई।

अगर कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ता तो दिल्ली के नतीजे कुछ और होते

अगर कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ता तो दिल्ली के नतीजे कुछ और होते। भाजपा को बिहार में इसी अंकगणित पर काम करना होगा। पासवान, सहनी, मांझी और कुशवाहा आदि की पार्टियां बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

भाजपा को महागठबंधन में हो रही रस्साकस्सी का लाभ मिल सकता है

यह तय है कि भाजपा महागठबंधन में हो रही रस्साकस्सी का लाभ उठाएगी। बीते कुछ समय से मांझी द्वारा लगातार उलटे-सीधे बयान दिए जा रहे हैं। शायद उन्हें लगता है कि इससे ही उनको अहमियत मिलेगी। झारखंड चुनाव के नतीजों से उत्साहित होकर कांग्रेस ने भी महागठबंधन में अधिक सीटों पर दावेदारी की रणनीति के तहत सरकार विरोधी आंदोलनात्मक कार्यक्रमों में सक्रियता बढ़ाई है। हालांकि बिहार में उसकी जमीनी पकड़ झारखंड की तरह नहीं है।

राजद अपने सहयोगियों को टिकट देने में संकुचित रवैया अपनाती है

दूसरी तरफ इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राजद अपने सहयोगियों को टिकट देने के मामले में संकुचित रवैया अपनाती रही है। पिछले कई महीनों से उपेंद्र कुशवाहा की कोशिश महागठबंधन के नेता के तौर पर अपने आप को स्थापित करने की है, लेकिन उनके कार्यक्रमों से तेजस्वी यादव दूरी बनाते नजर आ रहे हैं।

जदयू अपनी रणनीति को धार देने में जुटा, सभी घटनाक्रमों पर होगी भाजपा की पैनी नजर

भाजपा की पैनी नजर तो इन सभी घटनाक्रम पर होगी ही, जदयू भी अपनी रणनीति को धार देने में जुटा है। वह अपने पुराने सहयोगियों और नेताओं को दोबारा पार्टी से जोड़ने की कवायद शुरू कर चुका है। पंचायत स्तर से लेकर राज्य स्तर तक ऐसे नेताओं की तलाश शुरू हो चुकी है जो कभी न कभी जदयू के साथ थे और पार्टी के लिए समर्पित थे। ऐसे सभी नेताओं को भी पार्टी से पुन: जोड़ने की तैयारी है जो कभी पार्टी के विधायक, सांसद और विधान पार्षद रहे, परंतु अब सक्रिय नहीं हैं।

विधानसभा चुनाव के चलते राजद ने भी अपनी रणनीति में किया बदलाव

विधानसभा चुनाव करीब आते देखकर राजद भी अपनी रणनीति में कुछ बदलाव करती दिख रही है। वह माई समीकरण यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ के अलावा अब अति पिछड़ा, दलित को भी साथ लेकर चलना चाहती है। हाल में बदले गए जिला अध्यक्षों की सूची में यादवों की संख्या घटी है और पिछड़ों की संख्या में इजाफा हुआ है।

( लेखक एमिटी टीवी के एडिटर इन चीफ हैं )