[अवधेश कुमार]। उच्चतम न्यायालय ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लगाई गई पाबंदियों पर जो आदेश दिया है उस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। हालांकि सरकार विरोधी इसका जो अर्थ निकाल रहे हैं वो फैसले का एकपक्षीय विश्लेषण है। इसमें सरकार को करने के लिए कुछ ही बातें कही गई हैं। मसलन सरकार जारी पाबंदियों की सात दिन में समीक्षा करे और पाबंदियों की जानकारी सार्वजनिक करे ताकि आम लोग चाहें तो उनको कानूनी चुनौती दे सकें। दूसरे, न्यायालय ने कहा है कि स्कूल-कॉलेज और अस्पताल जैसी जरूरी सेवाओं वाले संस्थानों में इंटरनेट बहाल किया जाना चाहिए। जो भी आदेश हैं उनकी बीच-बीच में समीक्षा की जाए, चिकित्सा सेवा में कोई बाधा न आए आदि को छोड़ दें तो न्यायालय की टिप्पणियां सैद्धांतिक ज्यादा हैं।

प्रेस की आजादी को न्यायालय ने अटूट अधिकार कहा

न्यायालय का रुख व्यावहारिक है। एक ओर न्यायालय कहता है कि नागरिकों को सर्वोच्च सुरक्षा और सर्वोच्च आजादी मिले तो दूसरी ओर यह भी कि कश्मीर ने हिंसा का लंबा इतिहास देखा है, इसलिए हम कश्मीर में सुरक्षा के साथ मानवाधिकार और स्वतंत्रता के बीच संतुलन साधने की कोशिश करेंगे। प्रेस की आजादी को न्यायालय ने बहुमूल्य और अटूट अधिकार कहा है जिससे किसी की असहमति हो ही नहीं सकती। भाषण की स्वतंत्रता को लोकतांत्रिक व्यवस्था का जरूरी हिस्सा मानते हुए न्यायालय कहता है कि इंटरनेट और संचार पर पाबंदी का प्रेस की आजादी पर असर पड़ा है। किसी भी तरह की स्वतंत्रता पर तभी रोक लगाई जा सकती है, जब कोई विकल्प न हो और सभी प्रासंगिक कारणों की ठीक से जांच कर ली जाए। पीठ यह भी कहता है कि न्यायालय की जिम्मेदारी है कि देश के सभी नागरिकों को बराबर अधिकार और सुरक्षा तय करे, लेकिन ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता और सुरक्षा के मुद्दे पर हमेशा टकराव रहेगा। यानी न्यायालय भी जम्मू कश्मीर के संदर्भ में सरकार की विवशता को समझ रहा है।

बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं प्रभावित

ध्यान रखिए, उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्राविधानों को निरस्त करने की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर कोई अंतरिम आदेश जारी करने से इन्कार कर दिया था। मामले की सुनवाई शुरू होते ही न्यायपीठ ने कहा कि हम इस समय कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद, ‘कश्मीर टाइम्स’ की संपादक अनुराधा भसीन की याचिकाओं पर विचार कर रहे हैं। आजाद की याचिका में दलील दी गई थी कि पाबंदियों से जनता के जीवनयापन पर असर पड़ रहा है, पर्यटन प्रभावित है, अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है तथा बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं प्रभावित हो रही हैं। ‘कश्मीर टाइम्स’ की संपादक ने कहा कि प्रेस की आजादी का भी हनन हुआ। जवाब में केंद्र ने तर्क दिया कि कश्मीर में वर्षों से सीमा पार से आतंकवादियों को भेजा जाता था, स्थानीय उग्रवादी और अलगाववादी संगठनों ने पूरे क्षेत्र को बंधक बना रखा था और ऐसी स्थिति में अगर सरकार नागरिकों की सुरक्षा के लिए एहतियाती कदम नहीं उठाती तो यह मूर्खता होती।

आंशिक रूप से 17 अगस्त 2019 को लैंडलाइन सेवाएं बहाल की गईं 

कोई सरकार नहीं चाहेगी कि बंदिश अनावश्यक रूप से लंबे समय तक लागू रहे। इसलिए समीक्षा एवं बंदिशें कम करने की प्रक्रिया सतत चल रही है। आज का सच यह है कि पांच अगस्त को 370 हटाए जाने के दो दिनों पूर्व से लगी पाबंदियों में से 95 प्रतिशत हट चुकी हैं। सात अक्टूबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि कश्मीर में 196 में से केवल दस थाना क्षेत्रों में ही धारा 144 लगी हुई है। इसके बाद 13 अगस्त 2019 से पाबंदियों से छूट आरंभ हो गई थी। सितंबर का पहला हफ्ता आते-आते इनमें से काफी हटा लिए गए। आंशिक रूप से 17 अगस्त को लैंडलाइन सेवाएं बहाल की गईं और चार सितंबर को इसे पूरी तरह बहाल कर दिया गया। पोस्टपेड मोबाइल सेवा 14 अक्टूबर से शुरू हो चुकी हैं।

आम गतिविधियों पर लगी पाबंदियां हटाई

तीन अक्टूबर से स्कूल खोले जा चुके हैं। करीब 917 स्कूल कभी बंद नहीं हुए। नौ अक्टूबर को कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोल दिए गए थे। इससे पहले 28 अगस्त को सभी उच्च माध्यमिक स्कूल भी खोल दिए गए थे, लेकिन आरंभ में छात्र नहीं आते थे। घाटी में ट्रेन सेवाएं पूरी तरह से 17 नवंबर को चालू कर दी गईं। श्रीनगर के अंदर कैब सेवाएं भी शुरू हैं। दस अक्टूबर से ही पर्यटकों के आने से प्रतिबंध हटा दिया गया। 28 सिंतबर को घाटी के 105 पुलिस स्टेशनों की जद में दुकानों से दिन के वक्त खुले रहने का प्रतिबंध वापस ले लिया गया था। 24 अक्टूबर को बीडीसी चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो चुका है। आठ से दस थाना क्षेत्रों के अलावा लोगों की आम गतिविधियों पर लगी पाबंदियां बिल्कुल हटाई जा चुकी हैं। ब्रॉडबैंड इंटरनेट चालू है, मोबाइल इंटरनेट बंद है। शत-प्रतिशत मुक्त इंटरनेट बहाल करने में समय लगेगा। इंटरनेट के साथ वहां आतंकवादियों और उनके समर्थकों के बीच संपर्क कायम होने से स्थिति बिगड़ सकती है। संचार सेवा पर सरकार दबाव में काम करती तो न जाने हमले की कितनी घटनाएं घटतीं। आठ जुलाई 2016 को बुरहान वानी के मारे जाने के बाद 77 दिनों की पाबंदी में भी करीब 67 लोग मारे गए थे। मीडिया पर प्रतिबंध की बात गलत है। टीवी चैनल वहां से रिपोर्ट करते रहे।

कठोर निर्णय करने की जरूरत

तो उच्चतम न्यायालय के फैसले का महत्व निस्संदेह है, लेकिन जब याचिकाएं दायर हुईं थीं तब और आज की स्थिति में काफी अंतर आ चुका है। धारा 144 अब नाम मात्र का है। मीडिया अपना काम कर रहा है। बंदिशें अब केवल उतनी ही हैं जितनी स्थिति को सामान्य बनाने के लिए अपरिहार्य है। न्यायालय को भी पता है कि जम्मू कश्मीर कभी सामान्य राज्य नहीं रहा और उसे सामान्य बनाने के लिए बहुत सारी पाबंदियां और कठोर निर्णय करने की जरूरत थी और है। सरकार न्यायालय के आदेश के अनुसार बंदिशों पर कारणों सहित विस्तृत रिपोर्ट लेकर आएगी तो ज्यादा स्पष्टता होगी। न्यायालय का यह मत सही है कि संविधान की भावनाओं का ध्यान रखते हुए ही कोई कदम उठाया जाए।

[वरिष्ठ पत्रकार]