आदित्य आनंद। निजी क्षेत्र की नौकरियों में हरियाणा में लागू किए गए कानून में मोटे तौर पर चार प्रमुख प्रविधान हैं। पहला, यह कानून 50 हजार रुपये मासिक वेतन तक की नौकरियों पर लागू होता है। दूसरा, इसके दायरे में राज्य में चल रही वे कंपनियां, सोसायटी, ट्रस्ट और फर्म आएंगे जिनमें 10 से ज्यादा कर्मचारी हैं। तीसरा, तात्कालिक तौर पर यह कानून 10 वर्षो के लिए लागू होगा। चौथा, किसी पद के लिए कार्यकुशल कर्मचारी नहीं मिलने पर आरक्षण कानून में छूट दी जा सकती है, मगर इस बारे में निर्णय नियोक्ता कंपनी का नहीं, बल्कि जिला उपायुक्त या उससे उच्च स्तर के अधिकारी का होगा।

औद्योगिक संगठनों का पक्ष : इस कानून पर सबसे तीखा विरोध स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तर के अधिकांश औद्योगिक संगठनों ने किया है। इन संगठनों का कहना है कि ऐसा नहीं है कि कोई उद्योग स्थानीय मजदूरों को नहीं रखना चाहता, बल्कि जब स्थानीय स्तर पर उसे कुशल कामगार उपलब्ध नहीं होते हैं, तभी बाहरी मजदूरों के लिए जगह बनती है। ऐसे में इस कानून के कारण उनको मजदूर मिलने में समस्या हो सकती है। कामगारों के कौशल का निर्धारण किसी भी उद्योग का अपना मामला है, ऐसे में अब यह मामला सरकारी हो जाएगा और जहां तक कुशल हरियाणवी कामगार नहीं मिलने पर छूट की बात है तो इस निर्णय में लंबा समय लग सकता है जो किसी भी दशा में उद्योग के हित में नहीं होगा।

राज्य के आर्थिक परिवेश पर असर : हरियाणा के पास भले ही प्राकृतिक संसाधन कम हैं, किंतु दिल्ली से सटे होने के कारण राजनेताओं का हमेशा ध्यान इस राज्य के औद्योगीकरण पर रहा और उसका प्रभाव है कि आज यह देश का एक महत्वपूर्ण औद्योगिक राज्य है। उदहारण के तौर पर उत्तर भारत का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल उद्योग केंद्र हरियाणा में है। आज ऑटोमोबाइल कंपनियों ने 400 अरब से ज्यादा रुपये हरियाणा में निवेश कर रखा है। यह क्षेत्र लगभग 10 लाख लोगों को रोजगार देता है और राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में करीब 25 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। इस पूरे प्रकरण के पीछे शायद एक वजह यह मानी जा रही है कि राजनीतिक कारणों से मानेसर में मारुति की फैक्ट्री लगी और उसके बाद वाहनों के कल-पुर्जे बनाने वाले कारखाने शुरू किए गए। दूसरा बड़ा उदाहरण गुरुग्राम का है, जो राजधानी दिल्ली के अंतरराष्टीय हवाई अड्डा के काफी नजदीक है और इस कारण तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने मुख्यालय के गुरुग्राम में ही बनाने का निर्णय लिया। इन मुख्यालयों में तमाम तरह के काम होते हैं, जिसमें अलग-अलग वेतन स्तर पर देशभर के कामगार काम करते हैं। इस कानून के लागू होने से इनमें से कई कंपनियों को अपने कर्मचारियों की नियुक्ति में परेशानी आ सकती है। संबंधित विशेषज्ञों द्वारा इस संबंध में आशंका जताई जा रही है कि इन कारणों से वे राज्य से बाहर भी जा सकते हैं।

श्रम अर्थशास्त्र के नजरिये से नया कानून : श्रम अर्थशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में यदि इस कानून को देखें तो इसके दायरे में राज्य में चल रही वे कंपनियां, सोसायटी, ट्रस्ट और फर्म ही आएंगे जिनमें 10 से ज्यादा कर्मचारी हैं। नतीजन कई उद्योग इस कानून से बचने के लिए अपने यहां कर्मचारियों की संख्या 10 से कम रखने का प्रयास कर सकते हैं और मानवश्रम के बजाय मशीनों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदि को बढ़ावा दे सकते हैं। ध्यान रहे कि 10 से कम कामगार वाले उद्योग अधिकांश श्रम कानूनों के दायरे में नहीं आते हैं यानी उनमें रोजगार का स्तर सही रहेगा, यह कहना मुश्किल है।

एक अन्य तथ्य जो लगभग तय है कि नए उद्योग हरियाणा का रुख करने में हिचकेंगे, लिहाजा हर प्रकार के रोजगार के अवसरों में तो कमी आएगी ही, इससे राज्य का समग्र आर्थिक विकास भी प्रभावित हो सकता है। हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला भले ही इसे युवाओं के लिए हितकर बता रहे हों, लेकिन अर्थशास्त्र के हिसाब से हरियाणा को आíथक विकास और राज्य के कामगारों को रोजगार तथा रोजगार के स्तर दोनों मामले में फायदा से ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है।

राष्ट्र के संपूर्ण श्रमबल का सही लाभ : श्रमिकों का मुक्त रूप से कहीं भी रोजगार करने और उद्योगों का उनके चयन में पूर्ण स्वतंत्रता, उद्योगों की कुशलता और लाभ प्राप्ति के साथ साथ देश के आíथक विकास के लिए भी जरूरी है। ऐसा होने से उद्योगों को राष्ट्र के संपूर्ण श्रमबल का सही लाभ मिलता है और वह इस कारण न केवल देश के उपभोक्ताओं के लिए सही उत्पाद बना सकते हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा में किए जा रहे निवेश का समुचित लाभ लेकर वैश्विक स्तर पर भी ज्यादा सफल हो सकते हैं। यह भी एक विडंबना है कि ये परिवर्तन तब लाए जा रहे हैं जब एक ओर पूरे देश में इज ऑफ डूईंग बिजनेस को लेकर तमाम प्रयास किए जा रहे हैं। अन्य देशों में भारतीय कामगारों के लिए रोजगार के अवसर किस तरह सृजित हो सकते हैं, इस दिशा में भी भारत सरकार प्रयासरत है। ऐसे में, इस कानून के बारे में हमें समग्रता से विचार करना चाहिए।

बाहरी बनाम धरतीपुत्र : क्षेत्रीय दलों द्वारा राज्य में अपनी राजनीति चमकाने के लिए बाहरी बनाम धरतीपुत्रों का मुद्दा उठाना कोई नया नहीं है। सरकारी नौकरियों और निजी क्षेत्रों की नौकरियों में स्थानीय उम्मीदवारों को वरीयता मिले इस पर कई राज्यों में आंदोलन होते रहे हैं। उदहारण के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना और उसके बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ऐसे मुद्दों को उठाती रही है। हरियाणा का पूरा मामला भी रोजगार के मुद्दे पर चल रही उसी नकारात्मक क्षेत्रवादी राजनीति का एक उदहारण है जिसके प्रभाव में हाल के वर्षो में वृद्धि हुई है। झारखंड समेत अन्य कई राज्य भी इसके प्रभाव में आते दिख रहे हैं। हरियाणा के इस कानून की तह में जाएं तो ये क्षेत्रीय दलों और उनके एजेंडा के सामने राष्ट्रीय हितों और राष्ट्रीय दलों के समर्पण की दुखद प्रवृत्ति की तरफ भी इशारा करती है।

हरियाणा में सरकार का नेतृत्व मनोहर लाल कर रहे हैं। राज्य के युवाओं के लिए आरक्षण के द्वारा रोजगार के अवसर बढ़ाने का वादा दुष्यंत चौटाला ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान किया था। सरकार के गठन के लिए भारतीय जनता पार्टी के साथ आने पर चौटाला के लिए अपना जनाधार बचाने के लिए इस कानून को लागू करना जरूरी हो गया था। देखा जाए तो यह मंजूरी दुष्यंत चौटाला की पार्टी के लिए निश्चित रूप से एक उपलब्धि है जिससे उनकी पार्टी का राज्य में जनाधार बढ़ेगा। इस कानून का प्रारूप जब पिछले साल जुलाई में तय किया गया था, उस समय भी इसको लेकर चौटाला ने ही राज्य के युवाओं को बधाई देते हुए इसे अपनी जीत के रूप में पेश किया था।

विचारणीय यह है कि भाजपा राष्ट्रीय दल है और उसे पूरे देश में चुनाव लड़ना है। ऐसे में रोजगार के मुद्दे को राज्यों के स्तर पर न देख कर उसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। यह भी संभव हो सकता है कि यह कानून उसके लिए गले की हड्डी बन जाए। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि बिहार में राजद बीते विधानसभा चुनाव में रोजगार के मुद्दे को भुनाने में काफी हद तक सफल होता दिखा और पहले से कहीं ज्यादा मजबूत बन कर उभरा। वह भी हरियाणा सरकार के इस निर्णय पर आक्रामक हो सकता है। यह भी सही है कि बिहार में भाजपा की सहयोगी जदयू, जो खुद भी काफी हद तक क्षेत्रीय पार्टी है, इस मुद्दे पर भाजपा के साथ नहीं खड़ी होगी। अगले साल ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंगे, वहां भी भाजपा का सामना क्षेत्रीय दलों के साथ ही है। ऐसे में वहां भी यह कानून एक मुद्दा बन सकता है।

हरियाणा में निजी क्षेत्रों की नौकरियों में स्थानीय निवासियों के आरक्षण के मसले पर जहां उद्योग संगठनों ने इसके अर्थशास्त्र से जुड़े पहलुओं पर प्रश्न उठाया है, वहीं इसके राजनीतिक और अन्य प्रभावों को लेकर भी बहस शुरू हो चुकी है। औद्योगिक संगठनों ने तो आíथक मुद्दों के साथ इस कानून को संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों, मुख्य रूप से वे प्रविधान जो समानता सुनिश्चित करते हैं और किसी भारतीय को देश के किसी भी हिस्से में रोजगार करने की छूट देते हैं, उसके खिलाफ बताते हुए न्यायालय जाने की बात भी कही है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि न्यायालय इस कानून के खिलाफ फैसला दे सकता है। मगर बड़ा प्रश्न इस तरह की प्रवृत्ति का है, जिसके तहत इस तरह के निर्णय देश के एकात्मकता की भावना के खिलाफ जाते हैं।

इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जब देश आजाद हुआ और पूरे देश में औद्योगीकरण की जरूरत महसूस हुई, तब प्राकृतिक संसाधनों को लेकर एक बहस हुई थी कि वैसे राज्य जिनके पास प्राकृतिक संसाधनों की व्यापक कमी है, वहां उद्योग लगाने में परेशानी हो सकती है। उस समय यह भी माना गया कि किसी राज्य विशेष का संसाधन केवल उस राज्य का नहीं है, बल्कि उस पर पूरे देश का अधिकार है, लिहाजा उसी अनुरूप रेल से मालढुलाई के कुछ खास नियम भी बनाए गए। रेलमार्ग से मालढुलाई के संदर्भ में तय किया गया कि बिहार, ओडिशा और बंगाल के खदानों से प्राकृतिक संसाधनों की ढुलाई करने पर उसे दिल्ली और आसपास के इलाकों तक ले जाने पर भारी दर से सब्सिडी दी जाएगी। यह नियम कई दशकों तक प्रभावी रहा जिसका फायदा अनेक राज्यों को मिला। इस तरह से देखा जाए तो दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में जिस तरह से आज कल-कारखानों का विकास हुआ है, उसमें कहीं न कहीं उन राज्यों का भी योगदान है जहां से उन्हें व्यापक मात्र में संबंधित प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति की गई है। रेलभाड़ा समानीकरण की नीति दशकों तक कायम रही जिसका फायदा इन्हें मिला है।

प्राकृतिक संसाधनों के लिए राज्यों के बीच आज भी परस्पर निर्भरता है। हरियाणा अपने पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए अन्य राज्यों पर निर्भर है। उद्योग-धंधों के लिए जरूरी बिजली के लिए कोयला, यूरेनियम आदि दूसरे राज्यों से आता है। सभी राज्य एक दूसरे पर निर्भर हैं। किसी एक समय में किसी एक चीज में कोई राज्य प्रचुरता या अभाव की स्थिति में दिख सकता है, मगर समग्रता में यह सत्य नहीं हो सकता है।

हरियाणा में निजी क्षेत्र की नौकरियों में स्थानीय निवासियों को 75 प्रतिशत आरक्षण देने वाले विधेयक को राज्यपाल सत्यदेव नारायण आर्या ने मंजूरी दे दी है। अब यह कानून का स्वरूप ले चुका है। इस कानून के आर्थिक और राजनीतिक समेत अन्य प्रभावों को लेकर पूरे देश में बहस शुरू हो गई है। वहीं दूसरी ओर झारखंड सरकार भी इस तरह का कानून बनाने की राह पर अग्रसर है। ऐसे में यह समझना आवश्यक है कि यह कानून देश के अन्य राज्यों में विभिन्न कारकों को किस तरह प्रभावित कर सकता है।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]