[ क्षमा शर्मा ]: करीब एक-डेढ़ दशक पहले जब स्टेम सेल से चिकित्सा के बारे में चर्चा शुरू हुई थी तब यह दावा किया जा रहा था कि भ्रूण से प्राप्त स्टेम सेल्स से तमाम ऐसी बीमारियां दूर हो सकती हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एक बार हो जाएं तो कभी ठीक नहीं होतीं जैसे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज गठिया आदि। हाल में जब चीन में कोरोना फैला तो सुनने को मिला कि वहां रोगियों के इलाज में अपनी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का भी इस्तेमाल किया गया। तभी अमेरिका में कहा गया कि स्टेम सेल्स का इस्तेमाल भ्रूण के मानवाधिकार के विरुद्ध है।

भ्रूण से प्राप्त स्टेम सेल्स का कहीं विरोध तो कही शोध किया जा रहा है

ध्यान रहे जबसे आइवीएफ के जरिये शिशुओं का जन्म होने लगा है तब से ऐसी बातें हो रही हैं। दरअसल जब किसी क्लीनिक में भ्रूण को विकसित किया जाता है और माता के गर्भ में स्थापित किया जाता है तब एक नहीं कई भ्रूण विकसित होते हैं। माता के गर्भ में तो एक की ही जरूरत होती है इसलिए बाकी को नष्ट कर दिया जाता है। इन्हीं भ्रूणों से स्टेम सेल्स प्राप्त करने की बातें हो रही थीं। अमेरिका में इसका विरोध होने लगा, जबकि कई देशों में इस पर शोध जारी है। अपने देश में भी स्टेम सेल्स से इलाज करने के विज्ञापन देखने को मिलते हैं।

फार्मा कंपनियां दवाओं में सुधार तो करती हैं, लेकिन रोग को सदा के लिए खत्म नहीं करना चाहती

स्टेम सेल्स के बारे में पढ़ते-पढ़ते उस प्रतिक्रिया पर नजर पड़ी जिसमें कहा गया था कि क्या आपको लगता है कि मेडिकल माफिया इस तरह के किसी इलाज को आने देगा जिसके कारण जीवन भर चलने वाले रोग ठीक हो सकें? अभी एक बार ये रोग लग जाएं तो जीवन भर दवा खानी पड़ती है। रोगी उस दवा बनाने वाली कंपनी के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी होती है। इसीलिए कोई भी रिसर्च सिर्फ चूहों तक ही होकर रह जाती है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन बड़ी फार्मा कंपनियां दवाओं में सुधार तो करती हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि वे किसी रोग को सदा के लिए खत्म करना चाहती हैं? उनकी ओर से जीवन रक्षक दवाओं के बदले ऐसी दवाएं भी एक तरह से जबरदस्ती बेची जाती हैं, जिनकी जरूरत नहीं होती।

जंगल जाकर लोग शोध और खोजबीन करते थे

सालों पहले पारंपरिक चिकित्सा और प्राच्य विद्या के एक विशेषज्ञ ने कहा था कि यह जो तपस्या करने वाली बात है जिसके तहत कहा जाता है कि लोग जंगल में जाकर हाथ जोड़कर तपस्या करने लगते हैं, उसका कोई मतलब नहीं। इस तरह की बातें भ्रम फैलाने की कोशिश हैं, क्योंकि जंगल जाकर लोग शोध और खोजबीन करते थे। किस मसाले से कौन सा रोग दूर होता है, कौन से आसन से किस रोग को दूर किया जा सकता है, प्राणायाम के क्या फायदे हैं? मिट्टी-पानी से की जाने वाली प्राकृतिक चिकित्सा जिस पर गांधी जी का भी बहुत भरोसा था, से कौन-कौन रोग ठीक होते हैं-यह सब गहन शोध का परिणाम है। यह भी शोध से ही पता चला कि अरबी को अजवायन से छौंकना है, दूध और मूली एक साथ खाना वर्जित है, पके कटहल के साथ पान खाना मना है। चावल, मूली, कढ़ी रात में नहीं खाना चाहिए, किस जानवर के दूध-दही के क्या फायदे हैं?

बादलों और नक्षत्रों की स्थिति को देखकर बारिश का अनुमान लगाना शोध का परिणाम है

बादलों और नक्षत्रों की स्थिति को देखकर आज भी बारिश के सही अनुमान लगाए जा सकते हैं। घाघ इसके विशेषज्ञ माने जाते थे। ये सब और सदियों से चली आती ऐसी ही हजारों बातें शोधों का परिणाम हैं, न कि हाथ जोड़कर तपस्या करने का। पश्चिम की भाषा में जिसे क्लीनिकल ट्रायल कहते हैं वे यही शोध हैं। सबसे बड़ी बात यह कि हमारे घरों की रसोई भी एक तरह का मेडिकल स्टोर है और घर की महिलाएं डॉक्टर। वे खाद्य पदार्थों और मसालों से दवाएं तैयार कर सकती थीं। वे यह जानती थीं तरह-तरह के फोड़ों में कौन सी पुलटिस बांधनी है, इसे किन मसालों, फूल, पत्तियों से तैयार किया जाता है। आज भी न केवल भारत में, बल्कि यूरोप में भी सौंफ का पानी पिलाते हैं।

एलोपैथी के दबदबे ने पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को जीवन से बाहर कर दिया

कहा जाता है कि जब यूरोप और अमेरिका कबीलाई समाज थे तथा वहां असली अंधकार युग था तब अपने यहां तमाम तरह के चिकित्सा शास्त्र का विकास हुआ। क्या हम जानते हैं कि कैसे एलोपैथी के दबदबे ने तमाम किस्म के पारंपरिक ज्ञान को हमारे जीवन से बाहर कर दिया? बहुत से देशों में एलोपैथी के अलावा अन्य चिकित्सा पद्धतियां जिनमें होम्योपैथी भी शामिल है, प्रतिबंधित हैं। ऑस्ट्रेलिया में होम्योपैथी से इलाज नहीं किया जा सकता। वहां रहने वाले एक परिवार ने बताया कि उनके एक मित्र के बच्चे को कैंसर हो गया। उन्होंने चुपके-चुपके होम्योपैथी से इलाज किया। बच्चा बचा नहीं। पुलिस ने इस अपराध में माता-पिता को जेल भेज दिया।

अधिकांश रोगों का संपूर्ण निदान एलोपैथी में नहीं है

आज वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों से इलाज करने वालों को झोला छाप नाम दे दिया जाता है, बगैर यह जाने कि उनकी पद्धति कितनी वैज्ञानिक है? यह रवैया ठाक नहीं। इसी रवैये के कारण आयुर्वेद का नाम आते ही तमाम लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं, जबकि उससे हमारे यहां हजारों साल से इलाज होता चला आ रहा है। हर पारंपरिक ज्ञान में कुछ अच्छाइयां हो सकती हैं। आखिर उनका लाभ क्यों न उठाया जाए? हम जानते हैं कि अधिकांश रोगों का संपूर्ण निदान एलोपैथी में नहीं है।

शोध एवं अनुंसधान की जरूरत है, न कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को सिरे से खारिज करने की

हां, तत्काल की राहत जरूर है, जिसका लाभ भी लोगों को मिलता है, मगर जब से अस्पतालों में टारगेट तय किए जाने लगे हैं तबसे मरीजों को बिना मतलब के उन इलाजों से गुजरना पड़ता है, जिनकी उन्हेंं जरूरत नहीं होती या फिर वे तमाम टेस्ट कराने पड़ते हैं जो आवश्यक नहीं होते। एलोपैथी के विपरीत पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में कई रोगों का समूल निदान किया जाता है। इस बारे में और शोध एवं अनुंसधान की आवश्यकता है, न कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को सिरे से खारिज करने की। वास्तव में प्राचीन ज्ञान में जो कुछ भी उपयोगी है उसे सहेजने की जरूरत है।

( लेखिका साहित्यकार हैं )