उमेश चतुर्वेदी। हमारे संविधान को लागू हुए आज 72 वर्ष हो गए। इन वर्षो में देश ने अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं, वैश्विक स्तर पर अपनी धाक जमाई है। सबसे बड़ी बात यह कि समान और वयस्क मतदान अधिकार के जरिये देश ने लोकतंत्र का जो बिरवा रोपा, वह अब लोकतांत्रिक इतिहास का वटवृक्ष बन गया है। निश्चित तौर पर तमाम मोर्चो पर हासिल देश की उपलब्धियों की सबसे मजबूत बुनियाद भारतीय संविधान और उसकी परंपराएं हैं।

आज जिस संविधान की बनाई पटरी पर राष्ट्ररूपी रेल तेजी से आगे बढ़ रही है, उसमें सर्वानुमति सबसे बड़ी ताकत रही है। इसका यह भी मतलब नहीं कि संविधान रचे जाते वक्त हर मुद्दे पर सिर्फ सहमति के ही सुर रहे। संवैधानिक उपबंधों और अनुच्छेदों पर चर्चा के दौरान कई बार असहमतियां भी उभरीं। भारतीय संविधान को स्वीकृति मिलते वक्त कई प्रविधानों को लेकर सवाल उठे। देश ने जो संघवाद स्वीकार किया है, उसमें एक हद के बाद केंद्रीय व्यवस्था ज्यादा ताकतवर नहीं है। सरदार पटेल ने देसी रियासतों और ब्रिटिश शासित भारत के एकीकरण की जो सफल प्रक्रिया चलाई, उसका मूल उद्देश्य राष्ट्र के तौर पर भारतीय सत्ता को मजबूत बनाना था।

मजबूत भारतीय सत्ता का सामान्य मतलब केंद्रीय व्यवस्था का ताकतवर होना ही होता है। लेकिन आज स्थिति यह है कि कई मौकों पर राज्य भी अपने ढंग से मनमानी करते नजर आते हैं। संविधान सभा की बहसों से गुजरते हुए कम से कम तीन सदस्य ऐसे दिखते हैं, जो मानते हैं कि मजबूत राष्ट्र के तौर पर भारत की अस्मिता के लिए केंद्रीय सत्ता का ताकतवर होना जरूरी है। संविधान सभा की बहसों से गुजरेंगे तो पता चलेगा कि राजेंद्र प्रसाद और डा. आंबेडकर खुद मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। हालांकि केंद्र को एक सीमा के बाद मजबूती देने की अवधारणा को संविधान सभा ने स्वीकार नहीं किया। मजबूत केंद्र की वकालत करते हुए सरदार हुकुम सिंह ने कहा था, ‘हर दिन बीतने के साथ, भारत एकात्मक प्रणाली की ओर अधिक से अधिक प्रगति कर रहा है। इसलिए केंद्र को ज्यादा ताकतवर बनाया जाना चाहिए।’

अखिल भारतीय नौकरशाही को अनुच्छेद 311 के तहत छत्रछाया मिली हुई है। संविधान सभा में चर्चा के दौरान हरिविष्णु कामथ, शिब्बन लाल सक्सेना और ब्रजेश्वर प्रसाद ने इसका विरोध किया था। राजनीति में आने से पहले तक कामथ भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी थे। इन नेताओं ने आशंका जताई थी कि इस प्रविधान और अधिकार के चलते भविष्य में भारतीय नौकरशाही निरंकुश हो सकती है। लेकिन भारत के एकीकरण के सूत्रधार पटेल ने इन सदस्यों की आशंकाओं को खारिज कर दिया था। तब पटेल ने कहा था कि राजनीति में अभी जो पीढ़ी है, वह स्वाधीनता आंदोलन से उभरी है, जिसे त्याग और बलिदान पता है। लेकिन क्या गारंटी है कि भविष्य में राजनीति में आने वाली पीढ़ी मूल्यनिष्ठ होगी। वे नौकरशाही का गलत इस्तेमाल करेंगी, इसलिए उन्हें संवैधानिक छाया मिलनी ही चाहिए।

लेकिन नौकरशाही पर उठने वाले सवाल और दो-दो बार बनाए गए प्रशासनिक सुधार आयोग और उनकी संस्तुतियों को लागू न किया जाना क्या यह साबित नहीं करता कि शिब्बन सक्सेना, हरिविष्णु कामथ और ब्रजेश्वर प्रसाद की आशंकाएं सही थीं?संवैधानिक समाज की इतनी लंबी यात्र में जरूरी है कि संविधान सभा की बहसों में उठी असहमतियों की आवाजों और आशंकाओं का अध्ययन हो। तब पता चलेगा कि वे आशंकाएं कितनी सही थीं, असहमतियों पर ध्यान न दिया जाना कितना जायज था?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)