भुवन भास्कर। भारतीय रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच चल रहे टकराव का आज क्लाइमेक्स डे है। रिजर्व बैंक के बोर्ड की जिस बैठक की कई दिनों से प्रतीक्षा थी, वह आज होगी और ऐसा माना जा रहा है कि उसमें उन मसलों का हल निकाला जाएगा जो पिछले कुछ हफ्तों से लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं। समाधान इस मामले में महज एक कूटनीतिक शब्द है। आरबीआइ के बोर्ड में कुल 18 सदस्य हैं जिनमें से 13 सरकार द्वारा सीधे तौर पर मनोनीत हैं। मतलब बोर्ड बैठक में साफ हो जाएगा कि केंद्र की मोदी सरकार ने आखिरकार आरबीआइ के संदर्भ में अपनी बातें मनवाने के बारे में क्या फैसला किया है। क्या सरकार आरबीआइ अधिनियम की धारा 7 का इस्तेमाल करेगी या फिर बैंकिंग और वित्तीय मामलों में रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का सम्मान करेगी? फैसला जो भी हो इतना तय है कि बैठक के नतीजे देश के वित्तीय हालात खास तौर पर बैंकिंग सेक्टर के लिए दूरगामी परिणाम लेकर आएंगे।

मतभेद के मुद्दे 
दरअसल केंद्र सरकार और आरबीआइ के बीच जिन मुद्दों पर मतभेद हैं सरल शब्दों में उसे एक शब्द में समझा जा सकता है- चुनाव। नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साढ़े चार सालों में तमाम राज्यों की अपनी चुनावी रणनीति को लोक कल्याणकारी नीतियों के क्रियान्वयन पर केंद्रित रखा है। कृषि, बिजली, रोजगार और स्वास्थ्य क्षेत्रों में सरकार ने 100 से भी ज्यादा ऐसी योजनाएं लॉन्च की हैं, जिनका पूरा फोकस आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो पर है। ज्यादातर गांवों में रहने वाली इस आबादी का बड़ा हिस्सा अनुसूचित जातियों और जनजातियों का है और सरकार की रणनीति चुनावी वर्ष में अपनी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के जरिये इन लोगों को लुभाना है। रोजगार सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बना हुआ है और सरकार मुद्रा योजना के जरिये छोटे-छोटे उद्यमियों को खड़ा करने के साथ ही सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों यानी एमएसएमई को ज्यादा आर्थिक मदद देकर आर्थिक गतिविधियों का चक्र तेज करना चाहती है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉन्च एमएसएमई के लिए 59 मिनट में एक करोड़ रुपये कर्ज की योजना भी इसी की एक कड़ी है। इन सभी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सरकार को बहुत सारा पैसा चाहिए। लेकिन सरकार को लग रहा है कि आरबीआइ उसकी इन कोशिशों में बाधा बन रहा है। ऐसे में पहला सवाल यह है कि सरकार को ऐसा क्यों लग रहा है और दूसरा कि क्या सचमुच सरकार के राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना आरबीआइ की जिम्मेदारी है?

आर्थिक वृद्धि दर
दरअसल सरकार लंबे समय से देश की आर्थिक वृद्धि दर में तेजी लाने के लिए ब्याज दरों में कटौती चाहती रही है, लेकिन रिजर्व बैंक ने न केवल दरों में कटौती से परहेज किया है, बल्कि जून में इसे चौथाई प्रतिशत बढ़ा भी दिया। इसी बीच 2018 के प्रारंभ में तब मामला एक कदम और आगे बढ़ गया जब केंद्र ने बैंकिंग नियामक को यह सलाह दी कि उसे अपने पास मौजूद 3.6 लाख करोड़ रुपये की ‘अतिरिक्त’ रकम सरकार को सौंप देनी चाहिए। दरअसल आरबीआइ के पास फिलहाल कुल 9.59 लाख करोड़ रुपये का रिजर्व है जो इक्विटी-टू-असेट अनुपात के लिहाज से 24 प्रतिशत है। केंद्र सरकार का मानना है कि आरबीआइ को इस अनुपात को 14 प्रतिशत पर लाना चाहिए जो कि दुनिया के सभी केंद्रीय बैंकों का मीडियन इक्विटी-टू-असेट अनुपात है। इससे करीब एक-तिहाई रिजर्व यानी 3.6 लाख करोड़ रुपये सरकार को मिल जाएंगे।

कोर्ट का फैसला 
अगस्त में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐसा फैसला दिया जिसके बाद केंद्र और आरबीआइ आमने-सामने हो गए। यह फैसला बिजली कंपनियों के एक समूह की याचिका पर आया जिनके सामने आरबीआइ के एक नियम के कारण कई बड़ी बिजली कंपनियों के सामने दिवालियापन का खतरा पैदा हो गया था। न्यायालय ने कोई फैसला न देते हुए सीधे सरकार को सलाह दी कि वह आरबीआइ के अधिनियम सात के तहत केंद्रीय बैंक को निर्देश दे जिसे मानना आरबीआइ के लिए बाध्यता होगी। आरबीआइ के गठन के बाद से कभी किसी सरकार ने इस अधिनियम का प्रयोग नहीं किया है। ऐसे में उच्च न्यायालय के इस सुझाव ने 10 लाख करोड़ रुपये के डूबे कर्ज से जूझ रहे बैंकिंग सेक्टर की सफाई के लिए पिछले कुछ महीनों से आरबीआइ द्वारा चलाए जा रहे अभियान की सफलता पर सवाल खड़ा कर दिया, क्योंकि बिजली कंपनियां आरबीआइ के जिस नियम के खिलाफ उच्च न्यायालय गई थीं उसके तहत यदि कंपनियां 180 दिनों में कर्ज का हल नहीं पेश करतीं तो उन्हें दिवालिएपन की प्रक्रिया का सामना करना पड़ेगा।

कठोर फैसले
दरअसल पिछले कुछ महीनों में रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों की सेहत ठीक करने और कर्ज के नाम पर जमाकर्ताओं के सैकड़ों करोड़ गबन करने वाली कंपनियों की नकेल कसने के लिए कई कठोर नीतिगत फैसले किए हैं। इन फैसलों के दो परिणाम तुरंत सामने आए हैं। पहला, कई कंपनियां जो सालों से नियमों में मौजूद कमियों का फायदा उठाकर बचती रही हैं वे एकाएक अपने को दिवालिया घोषित किए जाने के कगार पर पा रही हैं और दूसरा, अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप लापरवाही या शीर्ष मैनेजमेंट के भ्रष्टाचार के कारण हजारों करोड़ रुपये के कर्ज डुबोने वाले कई बैंक बिजनेस से बाहर हो गए हैं। आरबीआइ ने पीसीए यानी प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन में 2017 में संशोधन किया जिसके तहत छह प्रतिशत से ज्यादा शुद्ध एनपीए वाले बैंक जब तक इस हिस्सेदारी को कम नहीं करते तब तक वे और कर्ज नहीं दे सकेंगे। फिलहाल 11 बैंक इस नियम के तहत कर्ज नहीं दे सकते। इन दोनों ही घटनाओं का एक साझा परिणाम यह हुआ है कि देश के आर्थिक माहौल में निराशा फैली और कर्ज के लिए उपलब्ध रकम कम होने से क्रेडिट ऑफटेक गिरा।

वित्तीय संस्थानों के लिए संकट
इन सबके साथ आइएलएंडएफएस के डिफॉल्ट से पैदा संकट ने गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों के लिए संकट पैदा कर दिया। कंपनियों का दिवालिया होना और लोगों का बेरोजगार होना भारत के अर्थजगत और समाज के लिए कोई सामान्य घटना नहीं होती। मीडिया में इसे ‘कयामत के दिन’ के तौर पर पेश किया जाता है और कुल मिलाकर यह माहौल बनता है कि चारों तरफ दुख और उदासी का साया है। सरकार के लिए यही परेशानी का बड़ा कारण है। आरबीआइ के बोर्ड में शामिल व सरकार के करीबी माने जाने वाले एस गुरुमूर्ति का यह हालिया बयान कि केंद्रीय बैंक ने पूंजी और जोखिम वाली परिसंपत्तियों का अनुपात नौ प्रतिशत रखा है जो अपेक्षित स्तर से एक प्रतिशत ज्यादा है, सरकार की इसी असहजता को और स्पष्ट करता है। लेकिन बड़ा सवाल यह कि आरबीआइ को क्या अपनी नीतियां और फैसले सरकार के राजनीतिक लक्ष्य को ध्यान में रख कर तैयार करना चाहिए।

आरबीआइ की प्रमुख जिम्मेदारियां
इसमें कोई शक नहीं कि आरबीआइ सरकार का ही एक हिस्सा है और उसे सरकार की दूरगामी आर्थिक नीतियों के लिहाज से अपनी नीतियां तैयार करनी होती हैं। लेकिन सरकारी दशा-दिशा से इतर रिजर्व बैंक का अपना भी एक वैधानिक दायित्व है। इसकी प्रस्तावना में उसकी चार जिम्मेदारियां तय की गई है- नोट जारी करना, मौद्रिक स्थिरता कायम रखने की दृष्टि से नकदी सुरक्षित रखना, अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटने के लिए आधुनिक मौद्रिक नीति तैयार करना और आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए महंगाई दर को नियंत्रित रखना।

आरबीआइ के पास सर्वेक्षण के जरिये अनेक रिपोर्ट, तमाम बैंक और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों की आंतरिक रिपोर्ट व ऐसे दर्जनों दस्तावेज आते रहते हैं, जिनके आधार पर इस बात में कोई बहस नहीं होनी चाहिए कि वह देश की मौजूदा और भावी आर्थिक दशा-दिशा का सबसे बेहतर आकलन कर सकता है।

आर्थिक वृद्धि दर या महंगाई दर जैसे जनहित से जुड़े मसलों पर विशुद्ध नीतिगत दृष्टिकोण से सरकार और आरबीआइ का एक-दूसरे से सहमत न होना अलग मसला है, लेकिन अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक के फैसलों को तोड़ना- मरोड़ना किसी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता। देश के इतिहास में पहली बार रिजर्व बैंक के प्रयासों से भ्रष्ट कंपनियों व बैंकों पर नकेल कसने लगी है। 2016 में लाए गए इनसॉल्वेंसी एंड बैंक्रप्टसी कोड के कारण वित्त वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही में पीएसयू बैंकों ने 36,551 करोड़ रुपये डूबे कर्ज की उगाही की और सरकार को उम्मीद है कि पूरे साल के दौरान कुल 1.80 लाख करोड़ रुपये के डूबे कर्ज वापस मिल जाएंगे।

कॉरपोरेट- नेता- बैंक गठजोड़ से जर्जर हो चुके देश के वित्तीय तंत्र को पटरी पर लाने हेतु उठाए गए कदमों के लिए आरबीआइ और सरकार ने तालमेल से ईमानदार प्रयास किए हैं तथा उनके नतीजे भी दिखने लगे हैं। ऐसे में अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए यदि सरकार धारा सात का प्रयोग करना चाहती है तो यह न केवल उसके स्वयं के चार सालों के ईमानदार प्रयास पर पानी फेरने जैसा होगा, बल्कि यह देश के साथ भी एक धोखा होगा। आरबीआइ के पास मौजूद करीब 10 लाख करोड़ रुपये यदि सरकार को ज्यादा लग रहे हैं तो इस पर जरूर केंद्रीय बैंक से बात की जा सकती है, लेकिन ‘अतिरिक्त’ 3.5 लाख करोड़ रुपये केवल और केवल बैंकिंग तंत्र को मजबूत करने जैसे बैंकों के रिकैपिटलाइजेशन आदि पर खर्च किया जाना चाहिए।

टकराव का पुराना इतिहास 
भारतीय रिजर्व बैंक और सरकारों के बीच टकराव का इतिहास बहुत पुराना है। आरबीआइ के गठन के समय इसे इंपीरियल बैंक के नाम से जाना जाता था। महज तीन सालों बाद उसके पहले गवर्नर सर ओस्बोर्न स्मिथ को ब्रिटिश सरकार के साथ मतभेद के कारण इस्तीफा देना पड़ा। वर्ष 1957 में आरबीआइ के गवर्नर सर बेनेगल रामा राउ को तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी से मतभेद के बाद इस्तीफा देना पड़ा।

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान एक समय ब्याज दरें कम करने के मसले पर डी सुब्बाराव और पी चिदंबरम भी आमने-सामने हो गए थे। सुब्बाराव ने अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले पी चिदंबरम से अपने मतभेदों पर खुलासा भी किया था। वर्तमान सरकार के शुरुआती कार्यकाल में रघुराम राजन के साथ भी इसके मतभेद लंबे समय तक सुर्खियों में रहे और रघुराम राजन द्वारा सार्वजनिक तौर पर दूसरे कार्यकाल के प्रति रुचि जताने के बावजूद उन्हें विस्तार नहीं मिला था। उस समय जब रघुराम राजन के उत्तराधिकारी के तौर पर उर्जित पटेल की नियुक्ति की गई थी, तो उन्हें सरकार की कठपुतली तक कहा गया। विमुद्रीकरण के प्रति आरबीआइ के सरकार के साथ खड़े होने को लेकर भी पटेल की आलोचना हुई। लेकिन यह विडंबना ही है कि आज वही पटेल सरकार के साथ विरोध के कारण इस्तीफे की अफवाहों के केंद्र में हैं।

देश की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए केंद्र की मोदी सरकार ने आरबीआइ को मदद मुहैया कराने को कहा है। केंद्र सरकार को ऐसा लग रहा है कि गरीब तबके के लिए बनाई गई योजनाओं के लिए पर्याप्त धन मुहैया कराने में आरबीआइ सहयोग नहीं कर रहा है। ऐसे में पहला सवाल यह है कि सरकार को ऐसा क्यों लग रहा है और दूसरा कि क्या सचमुच सरकार के राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना आरबीआइ की जिम्मेदारी है?

(लेखक एनसीडीईएक्स में असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट हैं)