[डॉ. रहीस सिंह]। Revolution Now Protest: इसमें कोई संशय नहीं कि हांगकांग की युवा पीढ़ी अपने अधिकारों के विषय में स्पष्ट रूप से यह सोच रही है कि यदि वह अपने अधिकारों के लिए आज नहीं खड़ी हुई तो फिर वह सदैव के लिए अपने अधिकारों को खो देगी। इसके विपरीत ‘सोशलिज्म विद चाइनीज कैरेक्टिरिस्टक्स’ के प्रणेता, संरक्षक और चीन के शासक यह मानकर चल रहे होंगे कि यदि हांगकांग के लोग अपने उद्देश्यों में सफल हो गए तो फिर यह स्थिति तिब्बत और शिनझियांग में भी देखने को मिल सकती है। यानी दोनों ही अस्तित्व के संकट से गुजरते दिख रहे हैं। तो क्या यह संघर्ष अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचेगा या फिर चीन इतिहास को दोहराने जैसा कदम उठाएगा?

हांगकांग की स्वतंत्रता का आंदोलन

हांगकांग अपने मूल्यों पर आगे बढ़ना चाहता है जिसमें स्वतंत्रता है, शासन की एक अलग व्यवस्था है, मूल्य हैं और लोकतंत्र है, जबकि दूसरी तरफ चीन है जहां एकदलीय व्यवस्था है और आजीवन राष्ट्रपति पद पर रह सकने वाला एक व्यक्ति। इसी व्यक्ति के इर्दगिर्द देश की व्यवस्था का तानाबाना व सभी प्रकार की ताकतें निहित हैं। खास बात यह है कि यह व्यक्ति इतना ताकतवर होने के बावजूद स्वतंत्रता, लोकतंत्र एवं बहुलतावाद से डरता है। यही वजह है कि छह माह पहले जून महीने में एक विधेयक के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन आज हांगकांग की स्वतंत्रता का आंदोलन बन गया है। इस आंदोलन की मूल वैचारिकी और प्रयास अब चीन को हांगकांग से बाहर निकालने का है। इसके अंश आप क्रिसमस से लेकर 31 दिसंबर की रात तक के आंदोलन में देख सकते हैं।

‘लिबरेट हांगकांग, लिबरेशन नाउ’

उल्लेखनीय है कि क्रिसमस के दिन बड़ी संख्या में लोगों ने चीन की सीमा से लगे शहर श्योंग सुईं में बड़ी संख्या में एकत्रित होकर चीनी व्यवसायियों के वहां से चले जाने की मांग की और शक्ति प्रदर्शन किया। यही स्थिति 31 दिसंबर की रात को हांगकांग के कई शहरों में दिखी जहां ‘लिबरेट हांगकांग, लिबरेशन नाउ’ के नारे लगा रहे लोगों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को आंसू गैस के गोले दागने पड़े। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले छह माह के दौरान पुलिस ने करीब सात हजार प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं। लेकिन यह संख्या वास्तविक होगी, ऐसी संभावना कम है।

हांगकांग के प्रदर्शन को शेष दुनिया ने किस तरह से देखा है, इस पर टिप्पणी करना फिलहाल समझ से परे है। कारण यह है कि आंदोलनकारियों के समर्थन में ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ से बयान तो दिए गए हैं, लेकिन वे खुलकर उनके समर्थन में नहीं आए हैं। हालांकि इस सीमित समर्थन के बाद भी चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को फोन कर अपनी नाराजगी प्रकट कर चुके हैं।

हांगकांग अकेले लड़ रहा लड़ाई

शी चिनफिंग का कहना था कि तिब्बत, ताइवान, हांगकांग और शिनजियांग को लेकर अमेरिकी टिप्पणियां दोनों देशों के संबंधों को खराब कर रही हैं। हालांकि यह प्रतीकात्मक समर्थन ही माना जाएगा, जिस पर शी चिनफिंग ने प्रतिक्रिया जाहिर की। सही अर्थों में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हेतु लड़ाई हांगकांग अकेले लड़ रहा है। हां, हांगकांग में कुछ के हाथों में अमेरिकी झंडे अवश्य दिखाई दे रहे हैं और अमेरिकी कांग्रेस द्वारा आंदोलनकारियों के प्रति अपना समर्थन भी व्यक्त किया गया है। अब इनके मायने क्या हैं, इसे अर्थमेटिकल तरीके से स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

करीब से देखें तो दुनिया के सर्वाधिक सक्रिय आर्थिक केंद्रों में से एक हांगकांग पिछले काफी समय से न थमा हुआ है और न ही चल रहा है। हांगकांग की सड़कों पर रोजाना हजारों लोगों की ऐसी भीड़ रहती है जो विभिन्न प्रकार के नारों के साथ सुबह से शाम तक सक्रिय रहते हैं। यह आंदोलन शुरू तो उस बिल के खिलाफ हुआ जो हांगकांग की हैसियत और हांगकांग के निवासियों की आजादी को खतरे में डाल सकता था। लेकिन धीरे-धीरे यह चीन विरोधी आंदोलन में बदल गया। दरअसल यह विवाद प्रत्यर्पण कानून में लाए गए बदलाव को लेकर उत्पन्न हुआ।

हांगकांग ब्रिटिशकालीन कॉमन लॉ सिस्टम से कर रहा काम

प्रस्तावित कानून के अनुसार यदि व्यक्ति अपराध करके हांगकांग भाग जाता है तो उसे जांच प्रक्रिया में शामिल होने के लिए चीन भेज दिया जाएगा। यह कानून चीन को उन देशों के संदिग्धों को प्रत्यर्पित करने और उनकी संपत्ति का अधिग्रहण करने की अनुमति देगा, जिनके साथ हांगकांग के समझौते नहीं हैं। जबकि अभी तक हांगकांग ब्रिटिशकालीन कॉमन लॉ सिस्टम से काम कर रहा था और उसकी 1997 से पहले जिन देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि थी उन्हीं को ही वह वांछित अपराधियों को प्रत्यर्पित करता था जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे देश शामिल हैं।

राजनीतिक अधिकार हो जाएंगे समाप्त 

इस बिल के कानून में बदल जाने से ऐसे अपराधियों को चीन को प्रत्यर्पित करना पड़ता। इससे हांगकांग के लोगों में यह भय पनपा कि चीन इस कानून के जरिये किसी भी ऐसे व्यक्ति को जो राजनीतिक आंदोलन से जुड़ा है, हांगकांग से प्राप्त कर लेगा और इस तरह से हांगकांग के लोगों के सभी राजनीतिक अधिकार समाप्त हो जाएंगे। उनका यह डर वाजिब भी था, क्योंकि नया कानून स्वतंत्र, लोकतांत्रिक दौर का अंत कर देता और हांगकांग के नियंत्रण में न होकर चीन के नियंत्रण में चला जाता। हालांकि अब बिल वापस हो चुका है, लेकिन इसने हांगकांग को इस तरह से उद्वेलित और आक्रोशित किया है कि हांगकांग अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पर उतर आया।

‘एक देश-दो व्यवस्था’ 

अब चीन की कोशिश होगी कि ‘एक देश-दो व्यवस्था’ (वन कंट्री-टू सिस्टम) को समाप्त कर ‘वन कंट्री, वन सिस्टम’ में तब्दील कर दिया जाए। जबकि 1997 में ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन को हस्तांतरित करते समय यह गारंटी हासिल की थी कि चीन ‘वन कंट्री-टू सिस्टम’ के तहत कम से कम 2047 तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी अवस्था को बनाए रखेगा। अब सवाल यह उठता है कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार इसे 20 वर्ष भी क्यों नहीं निभा पाई। आखिर वजह क्या है कि 2014 में हांगकांग में लोकतंत्रवादियों ने ‘अंब्रेला मूवमेंट’ क्यों चलाया? यह आंदोलन 79 दिनों तक क्यों चला? 2019 में लोग पुन: क्यों सड़कों पर उतर आए? चीन ने 1997 के समझौते का उल्लंघन क्यों किया? आखिर बीजिंग हांगकांग से क्यों डर गया? सवाल यह उठता है कि हांगकांग और बीजिंग के बीच टकराव केवल एक बिल को लेकर ही था या फिर उसके कोई अन्य और व्यापक आयाम थे?

ताइवान में सनफ्लावर मूवमेंट 

दरअसल यह बात केवल हांगकांग की नहीं है, बल्कि ताइवान, तिब्बत और शिनजियांग जैसे उन राज्यों की भी है जिन पर बीजिंग ने एक तरह से कब्जा किया हुआ है या फिर वह उस पर अपना दावा करता है। ताइवान कहता है कि उसका चीन के साथ सहयोग करते हुए अपना विशिष्ट चरित्र और पहचान बनाए रखना संभव नहीं है। उल्लेखनीय है कि ताइवान एक लोकतांत्रिक देश है और अपना संसदीय लोकतंत्र बनाए रखना चाहता है। इसे लेकर ताइवान में सनफ्लावर मूवमेंट भी हुआ था और वह सफल भी रहा था। लेकिन शी चिनफिंग ताइवान को सैन्य कार्रवाई की धमकी दे चुके हैं। जो ताइवान की हैसियत है, शायद वही हांगकांग के लोग चाहते हैं।

हांगकांग की स्वतंत्रता खतरे में

बहरहाल अब दुनिया के अग्रणी लोकतंत्रों को एक बार यह यकीन दिलाना होगा कि वे स्वतंत्रता के लिए एक साथ खड़े हो सकते हैं और अब खड़े होंगे, क्योंकि हांगकांग की स्वतंत्रता खतरे में है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हांगकांग के लोग ही पराजित नहीं होंगे, बल्कि लोकतंत्र भी हार जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो चीन को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए विवश होना पड़ेगा। कुछ अध्ययनों की मानें तो इस समय चीन तमाम क्षेत्रीय एवं सामाजिक अंतर-विभाजनों और द्वंद्वों से गुजर रहा है। यही चीन को हांगकांग में निर्णायक कार्रवाई करने से रोक रहे हैं और हांगकांग के लोगों को रिवोल्यूशन नाउ की मन:स्थिति तक ले जा रहे हैं।

वैधानिक हैसियत मांग रहे हांगकांग के निवासी

हालांकि अभी हांगकांग के लोग सिर्फ उस वैधानिक हैसियत की मांग कर रहे हंै जिसका वादा कभी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने किया था। यानी वे अपने उन लोकतांत्रिक अधिकारों को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं जो उन्हें ‘वन कंट्रीटू नेशन’ व्यवस्था के तहत मिले थे। लेकिन इससे आगे बढ़कर हांगकांग के लोग लोकतंत्र का वह मॉडल चाहते हैं जो पश्चिम में है यानी जो ताइवान में है, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका में है। उन्हें चीन के मॉडल में कोई रुचि नहीं है और ना ही वे ताउम्र बने राष्ट्रपति में कोई रुचि रखते हैं। यह बात राष्ट्रपति शी चिनफिंग को भलीभांति मालूम है। लेकिन बीजिंग सख्त रुख अपनाता हुआ दिख रहा है। वह हांगकांग को ऐसा अवसर प्रदान करना नहीं चाहता जिससे उसे स्वतंत्र होने का एहसास हो सके। लेकिन क्या बीजिंग उन्हें ऐसा करने देगा? नहीं, क्योंकि बीजिंग कभी नहीं चाहेगा कि हांगकांग एक ऐसी हैसियत प्राप्त कर जाए जो आने वाले समय में चीन के एक दलीय शासन के लिए मजबूत चुनौती बने।

बीजिंग हांगकांग पर सैन्य कार्रवाई कर दे

बीजिंग की कोशिश रहेगी कि वह हांगकांग के आंदोलन का चीन के खिलाफ सुनियोजित विद्रोह बनाकर पेश करने में सफल हो जाए। बीजिंग के अधिकारी शुरू से ही आंदोलनकारियों के कार्यों को आतंकी गतिविधियों के रूप में पेश करने की कोशिश करते रहे हैं, हालांकि वे सफल नहीं हो पाए हैं। लेकिन अब एक बात समझ में नहीं आ रही है कि बीजिंग किस निष्कर्ष तक पहुंचा है। क्या वह यह मानकर चल रहा है कि हांगकांग के संघर्ष पर आसानी से नियंत्रण स्थापित कर लेगा? या यह मान कर चल रहा है कि बाहरी विश्व का समर्थन ना हासिल कर पाने से एक दिन हांगकांग का आंदोलन शक्तिहीन होकर स्वयं समाप्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा न हुआ तो? तो शायद बीजिंग हांगकांग पर सैन्य कार्रवाई कर दे।

एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि बीजिंग अपनी प्रकृति के विपरीत हांगकांग आंदोलन को जारी रखने दे रहा है, तो इसके पीछे कोई दबाव अवश्य होगा। फिर चाहे वह अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर के कारण अमेरिका और चीन की चौड़ी होती खाई हो या फिर चीनी अर्थव्यवस्था में आ रही सुस्ती से उपजे कुछ संकोच। शायद यही वजह है कि चीन अभी तक हांगकांग में नियुक्त अपने अधिकारियों और अदालतों के जरिये ही आंदोलन को दबाने की युक्ति अपना रहा है। लेकिन वह आगे भी इसी राह पर चलेगा, यह जरूरी नहीं है। इसलिए हांगकांग के लोगों को अपने लोकतांत्रिक आंदोलन को वैश्विक लोकतांत्रिक वैचारिकी तथा विश्व में चलने वाले तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों और स्थापित राजनीतिक दलों से जोड़ लेना चाहिए। अन्यथा बीजिंग किसी भी समय, किसी भी हद तक जाने का निर्णय ले सकता है।

लिबरेट हांगकांग, रिवोल्यूशन नाउ’, हांगकांग में हजारों प्रदर्शनकारियों ने विक्टोरिया हार्बर, लॉन क्वाइ फोंग और मोंग कोक सहित कई स्थानों पर इसी नारे के साथ वर्ष 2020 का स्वागत किया, कुछ तोड़-फोड़ की और बैरीकेड में आग लगाई। क्या इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बीते छह माह से अशांत रहा हांगकांग न केवल आंदोलन को जारी रखना चाहता है, बल्कि क्रांति की मनोदशा तक पहुंच चुका है? ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि हांगकांग में लोकतंत्र जीतेगा या चीन? इन्हीं सवालों के जवाब जानने की कोशिश करते हैं आज

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]