[ एनके सिंह ]: तर्क-शास्त्र में एक बहुचर्चित दोष पढ़ाया जाता है। यह इस बारे में है कि चुनिंदा तथ्यों के जरिये अपनी बात कैसे सिद्ध की जाए। राफेल सौदे को लेकर ऐसा ही किया जा रहा है। ऐसा करते समय वायु सेना की जरूरतों की अनदेखी की जा रही है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की ताजा रिपोर्ट में वे सभी तथ्य हैं जिनसे आप अपनी भावना के अनुरूप निष्कर्ष निकाल सकते हैं। अगर नकारात्मक निष्कर्ष पर जोर देना चाहें (जैसा कि कैग की ओर से पेश रपट के 125वें पेज में वर्णित है) तो राफेल बनाने वाली दासौ कंपनी तो छोड़िए, दूसरी सबसे कम कीमत पर विमान देने वाली कंपनी को भी खारिज कर देना चाहिए था।

यानी हथियार न होने से कमजोर होती वायु सेना को अच्छे किस्म के युद्धक विमान उपलब्ध कराने के 15 साल से चल रहे प्रयास पर एक बार फिर पानी फेर दिया जाता और वह भी तब चीन भारत सीमा में घुसकर चहलकदमी करते हुए जब-तब आंखे दिखाता रहता हो और पाकिस्तान तमाम मुसीबतों के बावजूद भारत को सबक सिखाने की सनक पाले हुए हो। कैग रिपोर्ट भारत की तमाम सरकारों की सेना की जरूरतों के प्रति उपेक्षाभाव, बांझ ईमानदारी और यथास्थितिवादी सरकारी प्रवृत्ति का एक अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करती है।

ईमानदार माने जाने वाले रक्षा मंत्री एके एंटनी ने मार्च 2012 में विमान खरीद की एक नई प्रक्रिया शुरू की, शायद यह मानते हुए कि सैन्य खरीद में लगे सरकारी लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके तहत 2007 में राफेल को हर तरह से उपयुक्त पाया गया, लेकिन किसी फैसले पर पहुंचने के पहले एक स्वतंत्र समिति गठित कर दी गई। यह समिति गैर-सरकारी रक्षा विशेषज्ञों की थी। सारे पहलुओं की जांच के बाद इस समिति ने पाया कि कुछ भी गलत नहीं है और राफेल खरीद में आगे बढना चाहिए, लेकिन ईमानदारी कई बार बांझ होती है। इस समिति की रिपोर्ट आने के चंद दिनों के अंदर ही रक्षा मंत्री ने एक और टीम गठित की। यह टीम रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों की थी। सरकारी अधिकारियों की मानसिकता पर गौर करें। यह टीम 25 मार्च 2015 को (यानी मोदी सरकार के आने के दस माह बाद) एक रिपोर्ट देती है कि राफेल सौदे को खारिज कर देना चाहिए और सारी प्रक्रिया और टेंडर नए सिरे से शुरू करने चाहिए। ऐसे हालात में मोदी सरकार को फैसला लेना था।

जब प्रधानमंत्री कार्यालय ने सक्रियता दिखानी शुरू की तो रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने उस पर सवाल खड़े किए। ये सवाल यही अधिक बताते हैैं कि बाबूराज अपनी जकड़ से कोई भी डील या अपने वर्चस्व को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। जो नकारात्मक टिप्पणी भारतीय वार्ता दल के तीन सदस्यों द्वारा की गई उसे भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। हालांकि मूल रिपोर्ट में सभी सातों सदस्यों ने एक भाव से हस्ताक्षर किए। इसके बावजूद कुछ लोगों ने केवल इस पर जोर दिया कि सात सदस्यीय वार्ता दल के तीन सदस्यों ने अपनी असहमति प्रकट की थी। ऐसे लोग बड़ी चतुराई से यह बात छिपा ले गए कि इन तीन सदस्यों की असहमति को खारिज कर दिया गया था। शायद इसी प्रवृत्ति के तहत रक्षा सचिव की आपत्ति को तो जाहिर किया गया, लेकिन रक्षा मंत्री की टिप्पणी को गायब कर दिया गया।

कैग रिपोर्ट को गहराई से पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी सरकार जल्द से जल्द बेहतरीन हथियारों से लैस युद्धक विमान चाहती थी, लेकिन उसे पूरे 126 विमानों के सौदे पर मुहर लगाने में दो कठिनाई दिख रही थीं। पहली, भविष्य में तकनीक के विकास के साथ बेहतर विमान हासिल करने की संभावना और दूसरी, कम विमान लेने पर आपूर्तिकर्ता कंपनी की ओर से डिजाइन में तब्दीली को लेकर कीमत कम न करना। कंपनी कीमत इसलिए कम नहीं कर रही थी, क्योंकि उसकी तो पूंजी लगती ही-चाहे एक विमान खरीदें या एक हजार।

उधर दूसरी ओर कोई भी सरकारी अधिकारी इतनी हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि अपने स्तर पर यह फैसला ले। लिहाजा मोदी सरकार ने अंतर-सरकारी समझौता करने का फैसला किया। इस फैसले के तहत विमान की कीमत वही रही जो दासौ अपनी सरकार यानी फ्रांस सरकार से लेती है। चूंकि यह सरकार से सरकार के बीच समझौता था लिहाजा बिचौलिये की गुंजाइश नहीं थी और इसी कारण इंटीग्रिटी पैक्ट की जरूरत नहीं समझी गई, लेकिन इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश जानबूझकर छोड़ दी गई। पता नहीं क्यों, ऐसी व्याख्या करने वालों ने इसकी अनदेखी करना जरूरी समझा कि रूस और अमेरिका से भी जो अंतर सरकारी समझौते हुए उनमें भी इंटीग्रिटी पैक्ट आवश्यक नहीं समझे गए?

कैग ने अपनी रिपोर्ट की भूमिका में अपनी निष्पक्षता को स्थापित करने के लिए पुरजोर कोशिश की है। रक्षा मंत्रालय को 5 फरवरी, 2019 को एक पत्र लिख कर कहा गया कि कैग इस बात को खारिज करते हैं कि कीमतों के बारे में रिपोर्ट में कोई काट-छांट की जाए। यह कभी नहीं हुआ और इससे रिपोर्ट बेमानी हो जाएगी। इस पर रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने पुरजोर तरीके से कहा कि किसी भी तरह राफेल और उस पर लगे उपकरणों केवाणिज्यिक पहलू की चर्चा इस रिपोर्ट में न आए। पता नहीं इसकी क्या जरूरत थी? जो भी हो, कैग के अनुसार पूरी खरीद में छह पैकेज और 14 आइटम हैं। इन 14 आइटमों में से सात में सरकार ने ज्यादा कीमत दी जबकि चार में कम और तीन में पूर्ववत। कुल मिलाकर पहले से कम पैसे में सौदा हुआ। कैग के अनुसार संप्रग सरकार के सौदे के मुकाबले राफेल खरीद 2.86 प्रतिशत सस्ती रही।

कांग्रेस को कैग की इस रपट पर भरोसा नहीं। पहले उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज किया था और अब कैग के आकलन को खारिज कर दिया। आम तौर पर अगर किसी मामले में देश की सर्वोच्च अदालत ने अपना फैसला दे दिया तो वह मुद्दा खत्म हो जाना चाहिए, लेकिन कांग्रेस इस मसले को जिंदा रखने की जिद पकड़े हैै। जब तर्कों और तथ्यों की अनदेखी की जा रही हो तो फिर इस तरह की जिद का कोई इलाज नहीं। कांग्रेस राफेल सौदे के जरिये मोदी सरकार पर नकेल कसने की रस्सी ढूंढ रही है तो भाजपा राष्ट्रवाद।

ऐसा लगता है कि कोई भी यह देखने को तैयार नहीं कि वायु सेना 15 साल बगैर जरूरी युद्धक सामग्री के कैसे रही? हमारे राजनीतिक वर्ग को जानना चाहिए कि राफेल सौदे में पीएमओ के बीच में आने का कारण क्या था? आखिर इतने अहम मसले पर प्रधानमंत्री कार्यालय को सक्रिय क्यों नहीं होना चाहिए था? राजनीतिक वर्ग को अंतर-सरकारी समझौते की शर्तें भी देखनी चाहिए। इनका प्रावधान संप्रग-2 के समय की रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया, 2013 के पैरा 71 और 75 में शामिल है। इसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भी किया है। जो इंटीग्रिटी पैक्ट हटाया गया उसका भी प्रावधान भी 2013 रक्षा सौदे की प्रक्रिया में उपलब्ध अधिकार के तहत हुआ।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )