[डॉ. सतीश कुमार]। वर्ष 1962 में लोकसभा चुनाव युद्ध के तकरीबन छह महीने पहले हुआ था, लेकिन चीन की आक्रामक नीति और अतिक्रमण बदस्तूद जारी था। इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी की जीत हुई थी। वर्ष 1999 में कारगिल की घटना हुई थी, इसके बावजूद उस वर्ष लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिली थी। वर्ष 2008 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ था। राष्ट्रीय स्तर पर खूब चर्चा और किरकिरी हुई, लेकिन जीत 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हुई। तब यह कयास लगाया जाने लगा कि सुरक्षा के मसले चुनाव के जमीनी स्तर पर कोई कंपन पैदा नहीं करते, लेकिन 17वीं लोकसभा का चुनाव शायद इस बुनियादी सोच को बदलने में कामयाब होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरक्षा व्यवस्था को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ आर्थिक विकास को भी जोड़ दिया है।

उल्लेखनीय है कि 1990 के दशक तक हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश चीन हुआ करता था, लेकिन आज भारत है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? सुरक्षा व्यवस्था में यह दृष्टि दोष क्यों पैदा हुआ? वर्ष 1962 के युद्ध में हार के बाद चीन ने अक्साई चीन के बड़े भूभाग को अपने कब्जे में कर लिया था तो इस बात को उल्लेख करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा था, ‘उस क्षेत्र में सूई की नोक के बराबर घास भी नहीं उगती, इलाका पूरी तरह से बंजर और बेकार है।’ उनके उत्तर के जवाब में एक वरिष्ठ नेता ने अपने केशविहीन सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘यहां भी हरियाली नहीं है, इसका अर्थ इस सिर को काटकर किसी के हवाले कर देना चाहिए।’ नेहरू ने सामरिक सोच की दृष्टि विकसित ही नहीं होने दी। चीन उनकी निगाहों में कोई असुरक्षा का कारण नहीं है। इसलिए तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2013 में कहा था कि ‘भारत के पास संस्कृति और सोच नहीं रही।’ उनकी बात शत-प्रतिशत सच है, लेकिन प्रश्न उठता है कि इसके लिए दोषी कौन है? किस व्यवस्था और तंत्र ने भारत को इस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के रुग्ण सुरक्षा व्यवस्था को बदलने का मन बना लिया था।

वर्ष 2014 से ही नीतिगत बदलावों को लागू करने की कोशिश की जा रही थी। राफेल का सौदा उसी सोच का नतीजा था। मिग-21 आदि काफी पुरानी तकनीक के लड़ाकू विमान हैं। चीन की मदद से पाकिस्तान के पास भी ऐसे हथियार उपलब्ध हैं, जबकि हम एके-47 राइफल्स भी विदेशों से मंगवाते हैं। बाहर से हथियार मंगवाने की कीमत तीन गुणा अधिक होती है। 1980 के दशक में कई युद्धपोत मरम्मत के लिए पूर्व सोवियत संघ भेजे जाते थे जिस पर करोड़ों रुपये खर्च होते थे। अगर भारत की तुलना चीन और जापान से करें तो एक अलग तस्वीर दिखाई पड़ती है। वर्ष 1979 तक चीन अपने परंपरागत और टूटे-फूटे हथियारों के साथ लड़ता था, लेकिन उसके पहले से ही चीन में बड़े स्तर पर हथियारों के कई उद्योग खड़े हो गए थे। जैसे-जैसे चीन आर्थिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ता गया, उसकी सामरिक समृद्धि भी मजबूत होती चली गई। 21वीं शताब्दी में चीन अचानक से निर्यातक देश बन गया। चीन की योजना 2049 तक की है जिसमें इस बात की चर्चा है कि साम्यवादी क्रांति के 100 वर्ष पूरे होने तक सैनिक शक्ति के रूप में चीन पहले पायदान पर होगा। आज उसकी गिनती दूसरे स्थान पर होती है। प्रथम स्थान अमेरिका का है।

अगर भावी दृष्टिकोण की व्याख्या करें तो भारत के सामने कई चुनौतियां हैं जो पहले कभी नहीं थी। पूरे शीत युद्ध या उसके उपरांत वैश्विक शक्तियां भारत से दूर थीं, लेकिन चीन के सैन्य महाशक्ति बनने के बाद भारत के ऊपर खतरे का मंजर साफ दिखाई देने लगा। चीन के साथ त्रिकोणीय सीमा विवाद। चीन का अड़ियल रुख और वर्तमान चीन के राष्ट्रपति की ‘सिपेक और ओबीआर परियोजनाएं’ भारत के लिए खतरे की घंटी बन गईं। हिंद महासागर में चीन का विस्तार और ‘स्ट्रींग ऑफ पल्र्स’ के जरिये भारत के पड़ोसी देशों के माध्यम से ही भारत को घेरने की कोशिश ने कई मूलभूम समस्याएं पैदा कर दी हैं। लेकिन मोदी की नई सोच और जोश ने परिस्थितियों को बदलने का रोडमैप तैयार कर लिया है। चूंकि जंग 65 वर्षों से ज्यादा की है, इसलिए रातों-रात स्थिति बदलने की कल्पना नहीं की जा सकती। मोदी ने यह कहा कि भारत की सोच और प्रतिभा में कमी नहीं है। जब 18वीं शताब्दी में हैदर अली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध जंग में रॉकेट लांचर का प्रयोग उस समय किया था। रॉकेट लांचर ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। बाद के युद्धों में अंग्रेज इस तकनीक को महत्वपूर्ण हथियार के रूप में करते रहे।

भारत के पास साधन भी है और प्रतिभा भी। ‘मेक इन इंडिया’ की आधारशिला रखते हुए भारत के सुरक्षा ढांचे को बनाने के लिए प्रधानमंत्री ने निजी कंपनियों और विदेशी कंपनियों के लिए रास्ते खोल दिए। यह भी आश्वासन दिया कि सरकार की तरफ से हरसंभव मदद मिलेगी। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस बात पर जोर दिया कि यह प्रयास भारत में हर वर्ष लाखों रोजगार के साधन भी मुहैया करवाएगा। इसलिए सुरक्षा महकमे लाइसेंस राज को तोड़कर निजी कंपनियों के हाथ में देना जरूरी था। भारत के सामने दो अलग-अलग मॉडल है। एक अमेरिका मॉडल है जहां सुरक्षा व्यवस्था से संबंधित निर्णय लेने और अंजाम तक पहुंचने में 240 वैज्ञानिकों की भूमिका होती है। उसमें और कोई हस्तक्षेप नहीं होता। दूसरी तरफ इजरायल का मॉडल है जहां निर्णय सरकार द्वारा लिया जाता है। भारत इजरायल मॉडल पर 70 वर्षों तक काम करके देख चुका है। डीआरडीओ से जुड़े संस्थाओं द्वारा लिए गए निर्णय में कई मुश्किलें दिखीं। खरीद फरोख्त को लेकर राजनीतिक विवाद के खेमे में फंस जाता है।

अगर भारत हथियारों का महत्वपूर्ण निर्यातक देश बन जाता है तो भारत के लिए बहुत पहले से ही अंतरराष्ट्रीय बाजार तैयार है, क्योंकि भारत के पड़ोसी देशों से लेकर दूरदराज के अफ्रीकी देशों में हमारी विश्वसीनयता चीन से कहीं ज्यादा है। ऐसे में भारत के पड़ोसी देशों में भी चीन निर्मित हथियार की जगह भारत के हथियार बिक रहे होते। आज यदि भारत उस तरीके से समृद्ध होता तो अफगानिस्तान और मध्य एशिया में हमारी पकड़ ज्यादा दमदार होती। पड़ोसी देशों के बीच चीन पैसे की कूवत पर भारत विरोधी लहर को हवा देने में सफल नहीं हो पाता।

देखा जाए तो प्रधानमंत्री की सोच और उत्साह के बावजूद आज भी कई अड़चने हैं। पहली दुनिया की चौथी बड़ी सैन्य शक्ति होने के बावजूद रक्षा संसाधनों पर खर्च बहुत ही कम है। वर्ष 2018-19 के बजट में पिछले वर्ष के मुकाबले करीब पांच प्रतिशत का इजाफा किया गया था, लेकिन इस बजट का 70 प्रतिशत सैनिकों के वेतन और भरण-पोषण में खर्च हो जाता है। आधुनिक हथियारों के निर्माण और संवर्धन के लिए एक बड़े बजट की जरूरत है अर्थात भारत की सुरक्षा ढांचे की आधारशिला आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर ही आश्रित है। दूसरा, लालफीताशाही और कछुए की चाल। नौकरशाही कई बार क्रांतिकारी राजनीतिक सोच को ठंडे बस्ते में डाल देती है। इसलिए ‘डिफेंस इकोनोमिक जोन’ के निर्माण में राजनीतिक नेतृत्व की गति तेज होनी चाहिए। तीसरा, भारत के पास एक रोडमैप की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए, जो राजनीतिक तंत्र के साथ बदले नहीं।

निश्चित रूप से भारत का वर्तमान नेतृत्व एक नई सोच के साथ आगे बढ़ रहा है। देश की सुरक्षा का मसला जनता की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। जनभावना के निरंतर विकास और प्रसार से ही सामरिक संस्कृति का प्रसार होता है। मोदी की सोच भारत के लचर और कमजोर तस्वीर बदलने की है। राजनीतिक निर्णय और कूटनीतिक फैसले इसके प्रमाण हैं। सत्ता के गलियारे में जो भी आएगा, उसे मोदी की सोच को बढ़ाना ही होगा। सुरक्षा व्यवस्था में आर्थिक संसाधन के फल लदे हुए हैं, जिसे पहले की सरकारों ने नजरअंदाज किया, लेकिन अब तस्वीर बदल सकती है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]