डॉ. अजय खेमरिया। बीएचयू, जेएनयू, जामिया मिलिया, जाधवपुर, हैदराबाद, मणिपाल और कोलकाता विश्वविद्यालय। मिरांडा हाउस, लेडी श्रीराम, सेंट स्टीफन, हिंदू, हंसराज और प्रेसीडेंसी सरीखे कॉलेजों में समानता यही है कि ये संस्थान दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों में हैं और आम भारतीय इन्हें एलीट (अभिजन के लिए) मानता है। कमोबेश आइआइटीज, आइआइएम और राष्ट्रीय महत्व के अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों का भी एक एलीट परकोटा कायम हो गया है।

मानव संसाधन विकास मंत्रलय के तत्वावधान में जारी इन संस्थानों की ताजा रैंकिंग में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों का एक भी उच्च शिक्षण संस्थान शामिल नहीं है। संयोग से केंद्र प्रशासित सभी संस्थान अपनी कतिपय गुणवत्ता और नवाचार के प्रतिमान स्थापित कर इस रैंकिंग में हर वर्ष प्रतिस्पर्धा करते हैं। यह दीगर है कि अलग-अलग वैश्विक रैंकिंग में हमारे ये संस्थान प्रथम 200 में भी अक्सर गायब ही रहते हैं।

इस ताजा रैंकिंग के नतीजे सहज सवाल भी खड़ा करते हैं। क्या भारत में उच्च शिक्षा के मौजूदा ढांचे ने एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है? जिसमें आम गरीब एवं निम्न मध्यवर्गीय तबके के लिए कोई जगह नहीं है। केंद्र की सरकारें चंद संस्थानों को चमका कर उच्च शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामले से अपनी भूमिका को चतुराई से समेटती रही हैं। वर्ष 1976 में शिक्षा के समवर्ती सूची में आते ही राज्यों ने भी उच्च शिक्षा से अपने हाथ खींच लिए हैं। देश भर के आइआइटीज की 12,362 सीट, आइआइएम में 13,265 सीट, बीएचयू में 12 हजार, दिल्ली विवि में 62 हजार और जेएनयू की करीब 2,600 सीटें मिलाकर सभी टॉप रैंकिंग वाले संस्थान की उपलब्ध सीटों को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा तीन लाख के आसपास है। देश में उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन कराने वाले छात्रों की संख्या करीब पौने चार करोड़ है। यानी जिस चमकदार भारत की चर्चा होती है उसका अनुपात कुल नामांकित आंकड़े का दस फीसद भी नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘टीम इंडिया’ की बात कहते हैं, लेकिन मौजूदा सरकार के छह साल में यूजीसी के फंडिंग पैटर्न में बदलाव नहीं आया है। यह अपने बजट का 65 फीसद केंद्रीय और 35 फीसद राज्यों के विश्वविद्यालय पर खर्च करता है। देश के कुल 993 में से केवल 49 ही केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं और 412 राज्यों के हैं। 356 निजी एवं शेष डीम्ड यूनिवर्सिटी इस सूची में शामिल हैं। सवाल फिर उसी भेदभावपूर्ण नीयत का है जो राज्य और केंद्र के बीच नागरिकों को बांटती है। यह भी एक तथ्य है कि राज्य अपने नागरिकों को नकली अस्मिता के जाल में फंसाते रहे हैं, उनकी राजकीय व्यवस्था उच्च शिक्षा के मामले में बुरी तरह फेल रही है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या चंद केंद्रीय संस्थानों के जरिये आत्मनिर्भर भारत और स्किल इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी मिशन पूरे किए जा सकेंगे? देश के 39,931 कॉलेजों में पढ़ने वाले करीब पौने चार करोड़ बच्चों को हुनरमंद या शोध प्रवीण बनाए बिना भारत की स्थिति प्रेरक नहीं बनाई जा सकती। रिसर्च फर्म ‘नैसकॉम’ और ‘मैकिंजी’ का कहना है कि भारत के 10 मानविकी स्नातक में से मात्र एक ही रोजगार योग्य होता है।

एसोचैम के एक अध्ययन में बताया गया है कि करीब 1,500 नए विश्वविद्यालय शुरू करने की भी आवश्यकता है, क्योंकि अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरा बड़ा उच्च शिक्षा संभाव्य क्षेत्र है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार प्रति वर्ष 43 हजार करोड़ रुपये खर्च कर हमारे युवा विदेशों में जाकर डिग्रियां हासिल करते हैं। वर्ष 2024 तक ऐसे छात्रों की संख्या चार लाख और व्यय दोगुना होने का अनुमान है। जाहिर है जितना धन हम देश भर में उच्च शिक्षा पर लगाते हैं, उससे अधिक तो विदेशों में हमारे धनी परिवार गंवा रहे हैं। यानी देश में दो वर्गो के बच्चे ही उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं, पहले वे चंद लोग जिन्हें सरकार सामाजिक न्याय के बहाने पढ़ाना चाहती है और दूसरे धनी परिवार के लोग जो महंगे-विदेशी संस्थानों का खर्च वहन कर पाने में सक्षम हैं। ऐसे कुल छात्रों की संख्या देश के युवाओं की एक फीसद भी नहीं है।

खुद सरकार का मानना है कि वर्ष 2030 तक कॉलेजों में 30 करोड़ नामांकन होंगे। ऐसी स्थिति में हमारी बुनियादी संरचना क्या इस भार को वहन कर पाएगी? सरकार की रैंकिंग में भले ही केंद्रीय संस्थानों का दबदबा हो, लेकिन जमीनी सच्चाई वहां भी खस्ताहाल है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल ने बीते लोकसभा सत्र में स्वीकार किया है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्वीकृत 18,243 शिक्षकीय पदों में से 6,688 एवं गैर शैक्षणिक के 34,928 में से 12,323 पद खाली पड़े हुए हैं। राज्यों के विश्वविद्यालयों में औसतन 45 फीसद शिक्षकीय पद एक तरह से रिक्त हैं।

कुलपतियों के पद राज्य सरकारों के रहमोकरम पर निर्भर हो गए हैं। सरकार बदलते ही राज्यों में कुलपतियों के इस्तीफे शुरू हो जाते हैं। राजनीति और अफसरशाही की जकड़न में फंसे राज्यों के विश्वविद्यालय ठोस परिणामोन्मुखी कार्ययोजना और दृढ़ इच्छाशक्ति के बगैर पटरी पर नहीं आ सकते हैं। जब तक राज्यों के विश्वविद्यालय उन्नत और गुणवत्तापूर्ण नहीं होंगे, उच्च शिक्षा का मौजूदा भेदजनक चरित्र भारत में एक तरह के वर्गीय अलगाव को बढ़ाता रहेगा। राष्ट्रीय प्रत्यायन एवं मूल्यांकन परिषद के अनुसार 65 फीसद विवि और 80 फीसद कॉलेज उसके मानदंडों पर खरे नहीं उतरे। जाहिर है ‘सबका साथ सबका विकास’ तभी सार्थक होगा, जब उच्च शिक्षा का एक समावेशी ढांचा देश के अंदर आम सहमति से विकसित किया जाए।

[लोक नीति विश्लेषक]