[ हृदयनारायण दीक्षित ]: भारत के लोगों में न्यायपालिका के प्रति गहरा भरोसा है। संविधान निर्माताओं ने भी स्वतंत्र न्यायपालिका बनाई। संविधान सभा में सर्वोच्च न्यायालय पर हुई बहस में एचवी पातस्कर ने कहा था कि ‘ब्रिटेन में न्याय का प्रधान स्रोत सम्राट माना जाता है। हमारे देश में कोई सम्राट नहीं है। एक स्वतंत्र निकाय (न्यायपालिका) जरूरी है। उसे विशेष शक्तियां दी जानी चाहिए।’ भारत में न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं का स्रोत संविधान है। यहां न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्रता है। तीनों संस्थाओं की अपनी सीमा और गरिमा है। संविधान निर्माताओं ने शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया। अनुच्छेद-50 में कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण का प्रविधान है। संसद को विधि निर्माण और संविधान संशोधन के अधिकार हैं। न्यायपालिका को न्यायिक पुनर्विलोकन का भी अधिकार है। संविधान की कोई भी संस्था स्वायत्त नहीं है। सबके काम करने की मर्यादा है, लेकिन किसान आंदोलन को लेकर सर्वोच्च न्यायपीठ द्वारा तीन कृषि कानूनों को स्थगित करने का मसला विधि विशेषज्ञों के बीच बहस का विषय है। प्रधान न्यायाधीश ने कानून का क्रियान्वयन और कानूनों के स्थगन को अलग-अलग विषय बताया है।

कानूनों के पुनर्विलोकन का अधिकार न्यायपालिका को है

संविधान में संसद या विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों के पुनर्विलोकन के अधिकार न्यायपालिका को हैं। अनुच्छेद-13 के अनुसार, ‘भारत के राज्य क्षेत्र में प्रर्वितत सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वह मूल अधिकारों वाले भाग के अधिकारों से असंगत है।’ इसी तरह संविधान के आज्ञामूलक प्रविधानों व संविधान के मौलिक ढांचे का उल्लघंन करने वाले कानूनों का निरसन भी न्यायपालिका का अधिकार है। उसकी संवैधानिक वैधता की जांच करना न्यायपालिका का अधिकार है। किसी कानून के प्रथमदृष्टया असंवैधानिक पाए जाने पर कानून के प्रवर्तन को रोकने की बात सही हो सकती है, लेकिन कृषि कानून प्रथमदृष्टया भी असंवैधानिक नहीं पाए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने कहा है, ‘नि:संदेह किसी कानून के असंवैधानिक पाए जाने की स्थिति में न्यायालय उसे शून्य कर सकती है, लेकिन बिना तथ्यों के वह किसी विधि के प्रवर्तन को रोक नहीं सकती।’ उन्होंने कहा कि इसमें ऐसे कोई तथ्य संकलित नहीं किए गए और कानून का प्रवर्तन रोकना दूसरी संस्था के अधिकार में अतिक्रमण है।

कृषि कानूनों पर न्यायालय में विस्तृत विचार नहीं हुआ

कृषि कानूनों पर न्यायालय में विस्तृत विचार नहीं हुआ। कानूनों में अनेक प्रविधान हैं। कायदे से इनकी संवैधानिकता पर विचार करने के लिए धारावार, खंडवार विश्लेषण किया जाना चाहिए था। इन कानूनों के निर्माण की संसद की विधायी क्षमता पर भी कोई विचार नहीं हुआ है। संसद और विधानमंडल में विधि निर्माण के समय अलग-अलग धाराओं पर और कभी-कभी प्रयुक्त शब्दों पर भी गहन विचार होते हैं। इन कानूनों में मूल अधिकार के उल्लंघन वाले कथित हिस्से पर भी विचार नहीं हुआ और न ही संविधान के मूलभूत ढांचे को प्रभावित करने वाले तथ्य पर। सुप्रीम कोर्ट के प्रति आदर प्रकट करते हुए कहना है कि वह तीनों कानूनों की संवैधानिकता पर विचार करता तो ज्यादा उचित होता। किसी विधि का निर्माण अथवा उसका निरसन संसद ही कर सकती है अन्य संस्था नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन को असाधारण बताया

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस स्थगन को असाधारण बताया है। कानूनों की संवैधानिकता पर विचार करने वाले अनेक मामले पहले भी आए हैं। उनमें स्थगन जैसे अंतरिम आदेशों की मांग की गई थी, लेकिन स्थगन नहीं मिला। सबसे चर्चित मसला ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019’ का था। उस कानून को लेकर हिंसक प्रदर्शन भी हो रहे थे। फिर भी कोर्ट ने उस पर स्थगन की मांग नहीं मानी। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पादों संबंधी अधिनियम 2003 को प्रवर्तित होने से रोकने के मामले में राहत नहीं दी। 2019 में अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में संशोधन पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले लोग भी निराश हुए। न्यायपीठ ने कहा था कि संसद द्वारा बनाए गए कानून पर हम रोक नहीं लगाएंगे। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के मामले में भी कोर्ट ने स्थगनादेश नहीं दिया और न ही आधार मामले में। अन्य मामलों में न्यायालय की कार्यवाही लंबे समय तक चली, पर कृषि कानूनों के मामले में सुनवाई का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। कानूनों का निरसन, स्थगन असंवैधानिकता के आधार पर ही होता है, लेकिन यहां न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का पालन नहीं दिखाई पड़ता। सुप्रीम कोर्ट ने बहुधा कहा है कि संविधान में शक्ति का स्पष्ट पृथक्करण है। राष्ट्र राज्य के सभी अंगों को अपनी सीमा में रहना चाहिए। इस सीमा का अतिक्रमण संविधान की योजना के विपरीत है।

कृषि कानूनों के मामले में कुछ लोगों के तर्क बड़े दयनीय हैं

हमारे संविधान की उद्देशिका में भारत के लोगों का संकल्प उल्लिखित है। संसदीय लोकतंत्र में चुनाव के माध्यम से प्राप्त जनादेश के आधार पर ही कार्यपालिका बनती है। विधि निर्माण संसद का काम है। संसद सर्वोच्च जनप्रतिनिधि सदन है। कृषि कानूनों के मामले में कुछ लोगों के तर्क बड़े दयनीय हैं। वे कहते हैं कि बिना विचार-विमर्श के ही कानून बना लिए गए हैं। उन्हेंं स्मरण कराया जाए कि कानून निर्माण के पहले सरकार मसौदा तैयार करती है। संसद में अधिनियम रखा जाता है। सदस्य उसका वाचन करते हैं। संशोधन देते हैं। व्यापक बहस के बाद ही कानून बनते हैं। एक अरब 35 लाख की जनसंख्या से किसी भी कानून के निर्माण के पहले परामर्श लेना व्यावहारिक नहीं हो सकता है।

संसद की प्रभुत्वसंपन्न इच्छा के ऊपर न्यायपालिका अपना निर्णय नहीं लाद सकती: नेहरू

प्रख्यात संसदविद् अर्सकिन ने लिखा है कि ‘कोई विधि न्याय विरुद्ध या शासन के मूल सिद्धांतों के विपरीत हो सकती है, लेकिन संसद के विवेक का नियंत्रण नहीं हो सकता। अगर वह भूल करती है तो उन भूलों का सुधार भी स्वयं करती है।’ संसद की विधि निर्माण शक्ति का निर्वचन करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘संसद की प्रभुत्वसंपन्न इच्छा के ऊपर न्यायपालिका अपना निर्णय नहीं लाद सकती, क्योंकि संसद की इच्छा समस्त जन की इच्छा है। संसद संविधान की सीमा के भीतर है और न्यायपालिका भी। संविधान की सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी मर्यादा में उत्कृष्ट काम करना चाहिए।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )