विश्वनाथ प्रसाद तिवारी। बीते दिनों ट्विटर पर मैंने एक ट्वीट पढ़ा जिसमें बताया गया था कि 200 से अधिक लेखकों ने मतदाताओं से अपील की है कि वे नफरत की राजनीति के खिलाफ वोट करें। इस अपील का विवरण भी उसमें संलग्न था। अपील में यह तो नहीं बताया गया कि नफरत की राजनीति करने वाले कौन हैं और किसे वोट देना चाहिए, मगर ‘बीते कुछ वर्षों में’ जैसे प्रयोग तथा अन्य संकेतों से स्पष्ट है कि यह भाजपा को वोट न देने की अपील है। इस अपील पर उस समय तक 66 रीट्वीट आए थे जिन्हें उत्सुकतापूर्वक पढ़ गया।

उसमें एक भी प्रतिक्रिया अपील करने वाले लेखकों की पक्ष में नहीं थी, बल्कि उन लेखकों के विरुद्ध ऐसे अपमानजनक विशेषणों का प्रयोग किया गया था कि कुछ तो यहां लिखे भी नहीं जा सकते। उन्हें-झूठे, दलाल, दोगले, बिकाऊ, बरसाती मेढक, पद्म अवार्ड न पाने से निराश, सेक्युलरवादी जहरीले, मुफ्त पीने के आदी तक कहा गया। प्रसिद्ध लेखकों के लिए ऐसे विशेषणों के कारणों में जाना चाहिए। यदि अपील करने वाले लेखक प्रमुख दलों के इतिहास और वर्तमान का विश्लेषण करते हुए मतदाताओं से विमर्श करते तो यह संवाद का विषय बनता, सस्ती प्रतिक्रियाओं का नहीं।

यदि इन लेखकों ने समय-समय पर जनता की समस्याओं पर राय व्यक्त करउनकी सुध लेने का उदाहरण पेश किया होता तो शायद लोगों की ऐसी प्रतिक्रियाएं न आई होतीं। अतीत में मुद्दे बहुत थे जैसे आपातकाल, कश्मीरी पंडितों की समस्या, सिखों का कत्लेआम हिंदू-मुस्लिम दंगे, दुष्कर्म, तीन तलाक, भूमि अधिग्रहण, किसानों की आत्महत्याएं, विकास का यूरोपीय मॉडल आदि, लेकिन लेखक इन पर चुप रहे और इसीलिए जनता के बीच अविश्वसनीय हो गए। अब चुनाव के समय यदि वे मतदाताओं से अपील कर रहे हैं तो शायद यह मानकर कि ऐसा करना उनका दायित्व है, मगर यह दायित्वबोध उनके भीतर 2019 में ही क्यों पैदा हुआ? ‘लेखक के दायित्व’ जैसे विषय पर दुनिया भर में बहुत बहसें हो चुकी हैं।

लेखक न केवल एक रचनाकार, बल्कि एक नागरिक भी है। रचना में तो वह अपने दायित्व का निर्वहन करता ही है आवश्यकता पड़ने पर वह राजनीति या जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय हो सकता है। दुनिया में ऐसे लेखकों के उदाहरण कम नहीं हैं जिन्होंने साहित्य के बाहर सीधा कर्म का रास्ता भी चुना। यदि यह चुनाव निजी हित या आत्मरक्षा में होगा तो सामान्य नागरिक का लेखक से विश्वास उठ जाएगा। लेखक समाज की आंख होता है, उसकी आवाज होता है, उसका चित्रकार होता है। उसे किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं होना चाहिए। जनता को विश्वास होना चाहिए कि वह जनता का पक्षधर है, किसी दल का नहीं।

लेखकों की अपील पर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वे उन लेखकों की ही नहीं, संपूर्ण लेखक जाति के प्रति घृणा व्यक्त करने वाली हैं। इस पर उन लेखकों को आत्मावलोकन और आत्मविश्लेषण करना चाहिए। लेखक पाठकों में लोकप्रिय हो सकता है, प्रचार के सहारे प्रसिद्ध भी हो सकता है, लेकिन एक सीमित समुदाय में। बहुसंख्य जनता उसे नहीं जानती और यदि जाने भी तो किसी को आदर देने की उसकी कसौटियां अलग हैं। उसने राजा, रानी, सेनापति या अहंकारी की तुलना में संतों, भक्तों, ऋषियों, मुनियों को आदर दिया। बुद्ध और गांधी प्रमाण हैं कि भारतीय जन ने ‘विचार’ को तभी आदरणीय माना जब वह ‘आचार’ में परिवर्तित हो गया।

18 अगस्त, 2011 को जिस समय अन्ना हजारे तिहाड़ जेल से रामलीला मैदान पहुंचे, जोरों की बारिश हो रही थी, लेकिन मैंने अपनी आंखों से देखा कि वहां जमा भीड़ पर बारिश का कोई प्रभाव नहीं था। अन्ना का अनशन बारह दिनों तक चला। पुलिस आंकड़ों के अनुसार डेढ़ से दो लाख लोग प्रतिदिन रामलीला मैदान जाते रहे। शहर, कस्बा, गांव, पुरुष, स्त्री पूरा देश इस अवधि में अन्नामय हो गया। अन्ना के प्रति पूरे देश के समर्पण को देखकर मैं सोच रहा था कि आजादी के बाद से ही हमारी लेखक बिरादरी लगातार लिखती और बोलती रही, लेकिन जनता ने उसे विश्वसनीय क्यों नहीं माना? क्योंकि विचार निर्गुण होते हैं, कर्म में प्रकट होकर ही वे सगुण बनते हैं। जैनेंद्र कुमार के प्रसिद्ध उपन्यास ‘त्यागपत्र’ के प्रथम संस्करण के मुख पृष्ठ पर एक छोटा से वाक्य छपा है-‘ज्ञान जानने में नहीं, वैसा हो जाने में है।’ यदि कोई न्यायाधीश कानून का महापंडित हो, मगर न्यायी न हो, तो क्या वह न्याय कर सकता है?

बोहेमियन जीवन जीने वाले या लेखक के लिए विशेष छूट की इच्छा रखने वाले पश्चिमी लेखकों का अनुकरण करते हैं। दुनिया में लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो कला में नैतिकता और विशेष रूप से व्यक्तिगत नैतिकता का निषेध करता है। इस पुराने प्रश्न पर बहुत विमर्श और संवाद भी हुए हैं, मगर सवाल यह है कि लेखक अपने शब्दों के प्रति जिम्मेदार है या नहीं? रचनाकार अपनी जिस रचना से दुनिया को बदल देना चाहता है वही रचना करते हुए वह खुद क्यों नहीं बदल जनता? सृजन अगर एक नैतिक कर्म है तो उसे एक नैतिक जीवन की उपज भी होना चाहिए। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘यदि आप लोग केवल काव्य-रस को महत्व देते हैं तो अनजाने में ही एक भयानक भूल कर बैठते हो और वह यह कि एक व्यक्ति साहित्य में जिन मूल्यों की स्थापना करता है, वे मूल्य उसके आचरण की मूल प्रेरणा हों, यह आप अपने लिए अनावश्यक.. इर्रेलेवेंट मानते हैं। इसका बहुत बुरा परिणाम होता है।

साहित्य में प्रगतिवादी किंतु जीवन प्रतिक्रिया से घनिष्ठ सहचरत्व की पोषक, साहित्य में मानवतावादी किंतु जीवन में शोषकों की अभिन्न मित्र- इस प्रकार की विद्रुप भयानक आकार वाली विसंगतियां आलोचक न देख पाए, साहित्यक सौजन्यवश चुप रहे, लेकिन साहित्य से प्रेम करने वाली जनता उन्हें अपनी करोड़ों आंखों से देखती है। और चूंकि आलोचक और संपादक तथा साहित्य के अन्य नेता इसे नहीं देख पाते इसलिए वह उन्हें धिक्कारती भी है। (पृ.111,113)

शब्द और उसके प्रयोक्ता के आचार के बीच फासला जितना ही बढ़ता है, भाषा उतनी ही भ्रष्ट होती है। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कहा गया है कि अनृत में लिप्त मनुष्य के लिए आशा है कि सत्य के द्वारा उसका उद्धार कभी हो जाए, परंतु सत्य के साथ मोलभाव करने वाले के लिए कोई आशा नहीं है। ऋषि ने ठीक ही कहा कि जो अविद्या में फंसा है वह तो अंधकार में है ही, जिसने विद्या के साथ अपना व्यवहार कुटिल बना लिया उसका बंधन और भी कठोर है।

महात्मा गांधी लिखते हैं, ‘जीवन सब कलाओं से बढ़कर है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि जिसने जीवन में प्राय: पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, वह सबसे बड़ा कलाकार है। कारण कि उदात्त जीवन के निश्चित आधार और संरचना के बिना कला है भी क्या? हमने किसी तरह यह विश्वास पा लिया है कि कला व्यक्तिगत जीवन की शुचिता से स्वतंत्र है। मैं अपने संपूर्ण अनुभव के बल पर कह सकता हूं कि इससे ज्यादा झूठी बात और कोई नहीं हो सकती। अब जबकि मैं अपने ऐहिक जीवन की अंतिम अवस्था में हूं, मेरा कहना है कि जीवन की शुचिता सबसे ऊंची और सबसे सच्ची कला है।’

 (लेखक साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष हैं)