[ शंकर शरण ]: दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण की घोषणा पर विविध दलों के नेताओं के बयानों से साफ झलकता है कि अब आरक्षण के उद्देश्य पर कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं रह गई है। हरेक नेता, पार्टी और समूह अपनी-अपनी तरह से उसका अर्थ करने लगे हैं। सत्तर साल पहले जब आरक्षण का प्रावधान अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए किया गया था तब न केवल आरक्षण का उद्देश्य स्पष्ट था, बल्कि उसकी अवधि भी। डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्ष के लिए की थी। किसी को स्थाई रूप से विशेषाधिकार देना और देश के प्रतिभावानों के बीच भेदभाव करना उन का आशय नहीं था। तब किसी भी समूह को स्थाई रूप से आरक्षण देने की बात किसी के सपने में भी नहीं थी, लेकिन सात दशक बीत जाने के बाद न केवल आरक्षण जारी है, बल्कि नए-नए समूहों और रूपों में बढ़ता जा रहा है।

अब तक के आरक्षण के परिणामों का कोई विधिवत अध्ययन, सर्वेक्षण आज तक किसी स्तर पर नहीं किया गया। क्या इसी से स्पष्ट नहीं कि आरक्षण के मूल उद्देश्य भुलाए जा चुके हैैं? इस पर हमारे नेताओं को कभी राष्ट्रीय हित में विचार करना चाहिए। वे बखूबी जानते हैं कि अब आरक्षण एक ऐसी नीति बन गया है जिसके लक्ष्य पाए ही नहीं जा सकते। एक बड़े नेता तो ‘कला और संस्कृति’ में भी आरक्षण की चाह व्यक्त कर चुके हैं।

कौन जाने, आगे खेल-कूद में भी आरक्षण की मांग होने लगे। कल्पना करें कि तब कैसे खिलाड़ी, संगीतकार और अभिनेता आदि बनेंगे? वस्तुत: अभी वही अनेक प्रशासनिक, शैक्षिक स्थानों का हो रहा है। यह दिखाई नहीं देता तो इसलिए क्योंकि राजनीतिक वर्ग ने वास्तविक काम और गुणवत्ता की चिंता ही छोड़ दी है। उसका सारा ध्यान और चिंता केवल दलीय प्रतिस्पद्र्धा और सत्ता-दखल पर रहता है। नए-नए आरक्षणों की मांग और प्रस्ताव उसी के लिए होते हैं। इस सच्चाई से नजर चुराना देश की हानि करना है।

नि:संदेह किसी भी तरह का आरक्षण किसी अन्य को वंचित करता है। न तो सामान्य बुद्धि और न ही कोई न्याय-दर्शन कहता है कि किसी को इसलिए वंचित करें, क्योंकि ‘सदियों पहले’ उनके पूर्वजों ने दूसरों को ‘वंचित किया होगा।’ यह भी ध्यान रहे कि इस मान्यता का परीक्षण नहीं किया जाता। आज आरक्षण राजनीतिक कुश्ती का हथियार बन चुका है। तमिलनाडु इसका साफ उदाहरण है, लेकिन अब तो केंद्र में भी वही हाल है। इसीलिए जब कभी न्यायपालिका ने आरक्षण को कुछ सुधारने का निर्णय किया तो संविधान संशोधन करके उसे पलट दिया गया। अब तक कम से कम सात बार ऐसे संशोधन हो चुके हैं, लेकिन प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता की गारंटी करने के लिए कोई विधेयक एक बार भी नहीं आया। न ही सभी भारतीयों को अपनी-अपनी भाषा में भी बड़े अंग्रेजी स्कूलों की तरह अच्छे शिक्षण-प्रशिक्षण मिलने के लिए कुछ सोचा गया। इसी से स्पष्ट है कि सबके लिए ‘समान अवसर’ बनाना या ‘भेदभाव खत्म करना’ नेताओं की चिंता ही नहीं रहा।

आरक्षण ने एक जड़ मानसिकता बनाई है, जो नया चिंतन पनपने नहीं देती। फलत: जैसे ही कोई आरक्षण की आलोचना करता है उसे तरह-तरह के लांछनों से बेध दिया जाता है। जो भी जाति-मजहब भेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय, सामाजिक विमर्श और नीति-निर्माण की बात करता है उसे जातिवादी और सांप्रदायवादी बता दिया जाता है। यह सोवियत कम्युनिस्ट शैली की बंद, प्रचारात्मक मानिसकता है जो यहां प्रभावशाली बन गई है।

विचित्र यह है कि जिन सामाजिक समूहों का विचार-तंत्र जाति जैसी चीज मानता भी नहीं जैसे ईसाइयत और इस्लाम उन्हें भी जातिगत आरक्षण का लाभ मिल रहा है। अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष तरलोचन सिंह के अनुसार मुसलमानों में 58 जातियों और 14 जनजातियों को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। आखिर यह कौन सा तुक है कि एक ओर हिंदू धर्म-समाज को ‘जाति’ के लिए लांछित किया जाए और दूसरी ओर ‘जाति मुक्त’ समूहों को भी जातिगत आरक्षण दिया जाए? नि:संदेह यह दुर्भाग्यपूर्ण परिणति आंबेडकर की कल्पना नहीं थी। भारत में राजकीय तंत्र की भूमिका और आकार तो बेहद बढ़ते गए, किंतु पदधारियों की योग्यता की कोई परवाह न रही।

यदि महत्वपूर्ण स्थानों पर आधे लोग योग्यता के बजाय अन्य कारणों से नियुक्त हो रहे हैं तो यह संपूर्ण राज्यतंत्र को बेबस करेगा ही। आरक्षण का इतिहास दिखाता है कि अपवाद मानकर शुरू की गई चीज नियम को ही बर्बाद कर चुकी है। अब सारे आरक्षण को समय-बद्ध रूप से समाप्त करके दुर्बलों की सहायता के वैकल्पिक उपाय करना जरूरी है। ताकि दुर्बल भी योग्य बनें। न कि योग्यता का ही स्तर गिराकर पूरे समाज की हानि की जाती रहे। दुर्बल समूहों को योग्य बनाने के लिए सुविधाएं देनी चाहिए। कोई कुपोषण ग्रस्त है तो उसे विशेष भोजन दें। शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था नहीं, तो उसे अध्ययन या प्रशिक्षण के लिए रियायती या मुफ्त स्थान दें। शुल्क माफ कर दें। यदि कोई परिवार बच्चों के श्रम के बिना जीविकोपार्जन करने में कठिनाई महसूस करें तो उसे आर्थिक सहायता दें जिससे वे बच्चों को शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए मुक्त करें। ताकि जब काम, परीक्षण, प्रतियोगिता का समय आए तो सभी स्थानों पर केवल योग्य ही लिए जाएं। वही सकारात्मक कार्रवाई होगी। तभी हम विश्वस्तरीय बनेंगे।

आज यह कोई नहीं कहेगा कि आरक्षण की सुविधा दी गई जातियों की स्थिति 1947 की तुलना में अब बदतर हो गई है। उस समय अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के लोग बड़े पदों पर शायद ही दिखते थे, लेकिन आज जब सभी सत्ता निकायों, संसद, विधानसभाओं, सर्वोच्च पदों और राष्ट्रीय, राजकीय संस्थानों में उनकी उपस्थिति नियमित बन चुकी है तब भी विशेष अधिकारों का जारी रहना सब के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। ऐसी स्थिति में और भी नए-नए आरक्षण घातक ही सिद्ध होंगे। हमारे सभी नेताओं को पुराने आरक्षणों को भी अंतिम समय सीमा में बांधने पर विचार करना चाहिए।

देश की तमाम प्रतिभाओं को सामने लाने का उपाय सोचना चाहिए, न कि उन्हें कुंठित करते रहना। उन्हें ध्यान देना चाहिए कि भारत के युवा चाहे वे किसी भी जाति-समुदाय से हों, बाहर देशों में जाकर तरह-तरह की सफलता प्राप्त करते हैं। अमेरिका, यूरोप या अरब देशों में उन्हें कोई आरक्षण नहीं मिला, फिर भी वे अपनी जगह बना लेते हैं। तब यहीं भारत में ही उन्हें तरह-तरह से वंचित, प्रतिबंधित करना अंतत: देश की हानि है। इससे कुल मिलाकर सब को हानि होती है।

( लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैैं )