नई दिल्ली, जेएनएन। पुलवामा में हुआ आतंकी हमला कश्मीर घाटी के तीन दशकों के रक्तरंजित इतिहास का सबसे वीभत्स हमला है। यह पाकिस्तान की उन आतंकी नीतियों का ही हिस्सा है जिन्हें अंजाम देकर वह भारत को रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर करता आया है।

ऐसे में भारत की प्रतिक्रिया केवल इसी हमले के आलोक में ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान इस दिशा में ही संकेत करता है। कोई भी कड़ी कार्रवाई जनाक्रोश को शांत कर देगी, लेकिन भारत को यह भी सोचना होगा कि वह केवल ‘जैसे को तैसा’ वाली कार्रवाई से संतुष्ट होना चाहेगा या फिर पाकिस्तान में आतंक की जड़ों को उखाड़ने का लक्ष्य तय कर उसे प्राप्त करने की कोशिश करेगा? 

स्वाभाविक रूप से उसे दूसरा रास्ता ही अपनाना चाहिए, भले ही यह कितना ही मुश्किल क्यों न हो और इसमें चाहे कितना ही समय क्यों न लगे। आखिर भारत ने पाकिस्तानी आतंकवाद को इतने लंबे अर्से तक पनपने ही क्यों दिया, इस प्रश्न पर मंथन करने से पहले हमें कुछ कड़वी सच्चाइयों को भी स्वीकार करना होगा। बीते 25 वर्षो के दौरान भारत के राजनीतिक वर्ग और सुरक्षा प्रतिष्ठान ने पाकिस्तानी आतंक को एक रणनीतिक चुनौती के रूप में ही नहीं लिया।

इसे एक राजनीतिक एवं कूटनीतिक प्रबंधन के मसले के रूप में ही देखा गया। जब भी कोई आतंकी हमला होता है तो भारतीय जनता क्रुद्ध हो जाती है और नेता उसे संयत करने की कोशिश करते हैं और कूटनीतिक अभियान शुरू कर देते हैं। इस कवायद में जनता का गुस्सा कुछ समय बाद शांत हो जाता है और समय के साथ भारत-पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य नकारात्मकता वाले स्तर पर आ जाते हैं। यह तब तक कायम रहते हैं जब तकअगला आतंकी हमला नहीं हो जाता और फिर यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

किसी रणनीतिक चुनौती से निपटने और राजनीतिक एवं कूटनीतिक मसले से जूझने में भारी अंतर होता है। रणनीतिक चुनौती वह होती है जिसमें किसी देश की सुरक्षा या उसकी क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती मिलती है या फिर उसकी अर्थव्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाता है। यदि किसी बाहरी या आंतरिक गतिविधि से सामाजिक शांति और सौहार्द खतरे में हो तो यह भी रणनीतिक चुनौती ही कही जाएगी।

ऐसे खतरे जो कानून एवं व्यवस्था को अस्थाई रूप से प्रभावित करने के साथ अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाएं, लेकिन उनसे आर्थिक वृद्धि की गाड़ी पटरी से न उतरे और न सामाजिक ढांचे को चोट पहुंचे तो उन्हें रणनीतिक चुनौतियों से कम ही आंका जाता है। इनकी तुलना में रणनीतिक खतरों से निपटने के लिए पूरे देश के संसाधन इस्तेमाल होते हैं। इस क्रम में व्यापक राजनीतिक सहमति बनती है जो सरकारों के बदलने के बावजूद कायम रहती है जिसमें एक-एक कदम समग्र योजना का हिस्सा बन जाता है। यह योजना भी लचीली हो सकती है, लेकिन इसके लक्ष्य और उद्देश्य कभी नहीं बदलते।

पाकिस्तानी आतंक एक रणनीतिक चुनौती है, क्योंकि इसके कारण हमें न केवल प्रत्यक्ष रूप से भारी कीमत चुकानी पड़ती है, बल्कि निरंतर सैन्य तैनाती, वित्तीय प्रतिबद्धताओं के अलावा सामाजिक तनाव और राजनीति एवं कूटनीति के मोर्चे पर भी अप्रत्यक्ष रूप से खामियाजा भुगतना पड़ता है। पाकिस्तान ने आतंकवाद को भारत के खिलाफ रणनीतिक सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल किया है। परंपरागत सैन्य बलों का इस्तेमाल और परमाणु हथियारों की धमकी इस सिद्धांत के दूसरे पहलू हैं। 

1998 में परमाणु परीक्षण के बाद जिम्मेदारी से पेश आने के बजाय पाकिस्तान ने उसकी आड़ में भारत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। उसने यह धारणा बना दी कि अगर भारत ने उससे मजबूत अपनी रक्षा क्षमता के दम पर आतंकी हमले का जवाब दिया तो इससे परमाणु युद्ध तक की नौबत आ सकती है। बीते 20 वर्षो से पाकिस्तान भारत और पूरी दुनिया को अपने परमाणु हथियारों की धौंस दिखाता आया है कि भारत के हमले के जवाब में वह उसे अपंग बना सकता है।

2016 में नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक कर इस वर्जना को ध्वस्त कर दिया। उनसे पहले किसी भारतीय सरकार ने सेना का ऐसा इस्तेमाल नहीं किया और किया भी तो उसे सार्वजनिक नहीं किया। पाकिस्तान ने सर्जिकल स्ट्राइक से साफ इन्कार इसलिए किया, क्योंकि इससे उस सिद्धांत की हवा निकल जाती कि भारत द्वारा सैन्य बल इस्तेमाल करने से हालात बेकाबू हो सकते हैं।

सेना के इस्तेमाल पर भारत को हिचक नहीं होनी चाहिए। हालांकि किसी एक अभियान से पाकिस्तानी आतंक की कमर नहीं टूटने वाली। खुद मोदी यह स्वीकार करते हैं। हाल में उन्होंने कहा भी था कि पाकिस्तान आसानी से सुधरेगा नहीं। इसका अर्थ है कि सीमित सैन्य कार्रवाई से आतंक खत्म नहीं होगा। इसका यह मतलब भी नहीं कि अगर सरकार को जरूरी लगे तो इससे बचा जाए, लेकिन यह भी नहीं सोचा जा सकता कि पाकिस्तान बदल जाएगा। तमाम खतरों और नुकसान को देखते हुए कोई भी पूर्ण युद्ध नहीं चाहता। तब क्या समाधान हो सकता है?

सबसे पहले तो हमें इस विचार को तिलांजलि देनी होगी कि एक स्थिर पाकिस्तान ही भारत के हित में है। तमाम बुद्धिजीवी मानते हैं कि पड़ोस में अशांति मुश्किलों का कारण बनती है। आमतौर पर यह सही भी है, लेकिन अगर आपका पड़ोसी लगातार बेलगाम होकर अपनी नीचता से बाज न आए तो उसका स्थायित्व किसी काम का नहीं। खासतौर से पाकिस्तान के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं जिसकी स्थापना ही भारत विरोध के रूप में हुई हो।

भारत को सिर्फ इस वजह से शांत नहीं बैठना चाहिए कि वह पकिस्तान की स्थिरता को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। उस देश में तमाम नस्लीय, धार्मिक और प्रांतीय विभाजन की दरारें हैं। भारत ने कभी इनका फायदा उठाने के बारे में नहीं सोचा। भारत के पास ऐसा करने की पूरी वजह है और अब उसे इससे हिचकना भी नहीं चाहिए। पाकिस्तान के मित्र और तमाम अन्य देश जरूर भारत को ऐसा करने से रोकेंगे। भारत को इन देशों की सुनने के बजाय उन्हें समझाना चाहिए कि वे पाकिस्तान को अपना रवैया बदलने के लिए कहें।

पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था भी बेहद कमजोर है। वह सऊदी अरब के बाद अन्य देशों से विदेशी निवेश के लिए प्रयास कर रहा है। सीपैक में चीन भी 60 अरब डॉलर का निवेश कर रहा है, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था केवल विदेशी सहयोग के भरोसे आगे नहीं बढ़ सकती। उसे आंतरिक मजबूती भी चाहिए। यह तभी संभव है जब वहां शांति होगी।

भारत के पास वह क्षमता है जिससे वह पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को चुनौती दे सकता है। पाकिस्तानी आतंकवाद को चुनौती देने की पूर्व निर्धारित शर्त यह भी है कि भारत की राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द भी अक्षुण्ण रहे। इतिहास गवाह है कि विदेशी आततायियों ने धर्म और जाति के आधार पर बांटकर ही हमारा फायदा उठाया। पाकिस्तान भी हमारे संवेदनशील इलाकों में लगातार समस्याएं पैदा कर रहा है। ऐसे में यह सभी दलों और नेताओं का दायित्व बन जाता है कि वे पाकिस्तान के इन मंसूबों को कामयाब न होने दें।