तसलीम अहमद। भाजपा की पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) और पार्टी की दिल्ली इकाई के मीडिया प्रभारी रहे नवीन जिंदल (Navin Jindal) की पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियों के विरोध में 10 जून को देश के विभिन्न हिस्सों में जुमे की नमाज के बाद व्यापक प्रदर्शन और हिंसा देखने को मिली। प्रयागराज, सहारनपुर, हावड़ा, रांची आदि शहरों में तो प्रदर्शनकारी सीधे सुरक्षा बलों से भिड़ गए और आगजनी एवं पथराव कर व्यवस्था को चुनौती देने पर उतर आए।

इन शहरों के अलावा दिल्ली स्थित शाही जामा मस्जिद से लेकर मुरादाबाद, फिरोजाबाद, बिजनौर लखनऊ, कोलकाता, अहमदाबाद, लुधियाना, औरंगाबाद, भद्रवाह, डोडा, किश्तवाड़ आदि शहरों में भी जुमे की नमाज के बाद प्रदर्शन हुए। कहीं-कहीं वे इतने उग्र थे कि या तो कर्फ्यू लगाना पड़ा या फिर धारा 144 लगानी पड़ी। इसके पहले 3 जून को जुमे की नमाज के बाद कानपुर में जो उग्र प्रदर्शन हुए, उसमें भी हिंसा भड़क उठी थी।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी मुद्दे को लेकर विरोध प्रदर्शन करना आम नागरिकों का संवैधानिक हक है, लेकिन जिस प्रकार जुमे की नमाज के बाद प्रदर्शन और वह भी उग्र प्रदर्शन करने का चलन हाल के दिनों में बढ़ा है, वह न तो देश के हित में है और न ही मुसलमानों के हित में। आखिर मुसलमान जुमे के दिन मस्जिदों से निकलकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करके क्या संदेश देना चाहते हैं? ऐसा तो एक समय कश्मीर में होता था। क्या शेष देश का मुसलमान भी पत्थरबाज होने के ठप्पे के साथ व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहता है?

मुसलमानों ने पहले ही दिन से नुपुर और नवीन की टिप्पणियों के खिलाफ मुखर होकर आवाज उठाई। इसके बाद कई इस्लामी देशों ने भी विरोध जताया। इस पर केंद्र सरकार ने न केवल अपने दोनों नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की, बल्कि देश की लोकतांत्रिक, सामाजिक एवं संवैधानिक व्यवस्था को विश्व के सामने स्पष्ट करते हुए कहा कि उसके नेताओं की ओर से जो कुछ कहा गया, उससे उसका कोई लेना-देना नहीं। इसी के साथ भाजपा ने अपने सभी नेताओं को धार्मिक मामलों में संभलकर बोलने की हिदायत दी।

नुपुर और नवीन के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने एफआइआर भी दर्ज की। इस सबके बाद भी मुसलमानों के एक वर्ग ने सड़कों पर उतरकर उग्रता दिखाई। ऐसा करके उन्होंने खुद को गलत राह पर ही चलते दिखाया। संवैधानिक व्यवस्था में किसी भी अपराध के लिए कानूनी तौर पर सजा का प्रविधान है। इसमें न तो सड़क की हिंसा काम करती है और न ही बेजा दबाव।

मस्जिदों को प्रदर्शनों का अखाड़ा बनाना तो बहुत ही खराब परंपरा है। इससे न केवल मुसलमानों के बारे में गलत राय कायम होगी, बल्कि वे अपने मकसद को हासिल भी नहीं कर पाएंगे। उनकी छवि बात-बात पर व्यवस्था को चुनौती देने वाले वर्ग की बनेगी। यही नहीं, मस्जिदों को शक की निगाह से देखा जाएगा। इसके चलते जुमे के दिन मस्जिदों के इर्द-गिर्द चौकसी बढ़ाना प्रशासन की मजबूरी बन जाएगी। क्या ऐसा होना अच्छी बात होगी? इससे भी अहम सवाल यह है कि क्या इससे मुस्लिम समाज की छवि बेहतर होगी?

यदि मुसलमानों को किसी मुद्दे पर विरोध जताना है और शासन-प्रशासन तक अपनी बात पहुंचानी है तो यह काम मस्जिदों के जरिये और खासकर जुमे की नमाज के बाद तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। सामाजिक, राजनीतिक अथवा व्यवस्थागत मुद्दों की लड़ाई उचित मंच के माध्यम से सही तरीके से ही लड़ी जानी चाहिए। धार्मिक स्थलों का सहारा लेकर अपनी बात कहना और उस दौरान हिंसा करना संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देना है।

किसी मुद्दे पर विरोध प्रकट करने के लिए जो ताकतें मुसलमानों को मस्जिदों से बाहर लाकर सड़क पर हिंसा करने को उकसाती हैं, उनसे मुस्लिम समाज को सावधान रहना होगा। उसे इस पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि उसकी रहनुमाई कैसे लोग कर रहे हैं? इसके पहले 2019-20 में नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध के नाम पर भी मुस्लिम समाज की दिशाहीनता देखने को मिली थी। दिल्ली में सीएए विरोधी आंदोलन का अंत दंगों के साथ हुआ, लेकिन लगता है कि इसके बाद भी जरूरी सबक नहीं सीखे गए।

पैगंबर मोहम्मद साहब पर अवांछित टिप्पणी को लेकर औसत मुसलमानों की प्रतिक्रिया देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे मुस्लिम समुदाय जानबूझकर या तो अलग-थलग रहना चाहता है या फिर उसके पास कोई दूरदृष्टि वाला नेतृत्व नहीं है। नुपुर शर्मा, नवीन जिंदल या अन्य लोगों द्वारा पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में की गईं अवांछित टिप्पणियों की हिंदू समाज के तमाम लोगों ने भी खुलकर आलोचना की है। बलिया, कानुपर समेत देश के कई हिस्सों में इंटरनेट मीडिया पर अनाप-शनाप लिखने वालों को पुलिस ने सलाखों के पीछे पहुंचाया है।

यदि मुस्लिम समाज किसी मसले पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाएगा, पुलिस को निशाना बनाएगा, सरकारी-निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाएगा और मस्जिदों की आड़ लेकर अव्यवस्था फैलाएगा तो इससे देश-दुनिया को गलत संदेश तो जाएगा ही, जिन लोगों का साथ मिल रहा है, वे भी किनारा करना पसंद करेंगे। इस्लाम में जुल्म पर सब्र को तरजीह दी गई है। 10 जून को देश के तमाम शहरों में जो हिंसा हुई, उसे लेकर मुस्लिम समाज को खुद से यह सवाल करना होगा कि क्या वे सही रास्ते पर हैं? मुसलमानों को इस पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर उनके ऐसे व्यवहार के बाद शेष देश को उनका साथ क्यों देना चाहिए?

(लेखक पत्रकार एवं मुस्लिम राजनीति के विश्लेषक हैं)