[ प्रदीप सिंह ]: हर चुनाव में कई मुद्दे होते हैं। कुछ नए और कुछ पुराने। पार्टियों को लगता है कि मतदाता उनके मुद्दों और उनकी बात पर भरोसा करेगा और उसी के मुताबिक वोट करेगा। नरेंद्र मोदी से पहले देश में 13 प्रधानमंत्री (गुलजारी लाल नंदा को छोड़कर) हुए हैैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई प्रधानमंत्री खुद ही चुनाव का मुद्दा बन जाए। इससे पहले प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले नेता के राजनीतिक विरोधी तो रहे पर नफरत करने वाले नहीं। यह भी पहली बार हो रहा है कि मोदी के विरोध में खड़े ज्यादातर लोग उनसे नफरत करते हैं। इसलिए यह चुनाव नफरत बनाम प्रेम का हो गया है। मोदी से प्रेम करने वाले एक तरफ और नफरत करने वाले दूसरी तरफ।

आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी भी इस तरह मुद्दा नहीं बनी थीं। उस समय आपातकाल की ज्यादतियां और नसबंदी प्रमुख मुद्दे थे। इस लोकसभा चुनाव में यों तो बहुत से मुद्दे हैं, सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की तरफ से भी, लेकिन विपक्ष के न चाहने पर भी यह चुनाव राष्ट्रपति प्रणाली जैसा हो गया है। दरअसल यह चुनाव से ज्यादा मोदी पर जनमत संग्रह जैसा हो गया है। 1971 के बाद डा. मनमोहन सिंह अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने लगातार पांच साल के दो कार्यकाल पूरे किए, पर उन्हें भी दोनों बार पूर्ण बहुमत नहीं मिला। 1984 के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत वाली कोई सरकार और प्रधानमंत्री फिर से जनादेश मांग रहा है।

1984 के बाद यह भी पहली बार हो रहा है कि सत्तारूढ़ दल के समर्थक पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों की ओर देख ही नहीं रहे हैं। वोट न तो पार्टी के नाम पर पड़ रहा है और न ही उम्मीदवार के नाम पर। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘नाते सकल राम ते मनियत।’ वह एकनिष्ठ भक्ति के कायल थे। मोदी के साथ भी इस चुनाव में कुछ ऐसा ही हो रहा है। वोट मोदी को जिताने के लिए पड़ रहा है या हराने के लिए। दरअसल मोदी ने जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है। पांच साल में केंद्र सरकार की योजनाओं के जरिये उन्होंने जातियों को वर्ग में तब्दील कर दिया है।

जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनकी जाति गरीब है तो वे इसी वर्ग को संबोधित कर रहे होते हैं। जाति और इस नए वर्ग की की राजनीतिक जंग की असली और सबसे कठिन परीक्षा उत्तर प्रदेश में हो रही है। एक तरफ तीन दलों बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी एवं राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन और दूसरी तरफ भाजपा। कांग्रेस कहीं-कहीं लड़ाई को त्रिकोणीय बना रही है। गठबंधन को अपने अंकगणित पर भरोसा है। वह मानकर चल रहा है कि यह अंकगणित केमिस्ट्री में बदलेगा ही। सपा और कांग्रेस दो साल पहले यही गलती कर चुके हैं।

प्रधानमंत्री की जाति पर मायावती जिस कदर हमलावर हैं उससे लग रहा है कि सपा-बसपा के वोट दूसरे के उम्मीदवारों को पूरी तरह ट्रांसफर नहीं हो रहे हैं। आजमगढ़ में मायावती को दलितों से यह अपील करनी पड़ी कि यह समझो कि अखिलेश नहीं, मैं चुनाव लड़ रही हूं। मायावती प्रधानमंत्री पर जिस तरह से निजी हमले कर रही हैं उससे ऐसा लग रहा है कि उनका दलित (अब तो केवल जाटव बचा है) वोट भी खिसक रहा है। इस बात की संभावना बढ़ रही है कि यह मिथ टूट जाए कि मायावती अपना सौ फीसदी वोट सहयोगी दल को ट्रांसफर करा सकती हैं।

मोदी ने पांच साल में जाति धर्म से हटकर एक वर्ग तैयार किया है। इसे नई अस्मिता की राजनीति कहें, केंद्रीय योजनाओं का लाभार्थी वर्ग कहें, विकास के साथ खड़ा होने वाला वर्ग कहें या कुछ और नाम दें, लेकिन इस वर्ग को मोदी पर भरोसा भी है और उम्मीद भी। इस वर्ग का यही भरोसा मोदी की सबसे बड़ी ताकत है। यह वर्ग इस बात से कतई प्रभावति होने को तैयार नहीं है कि उसका सांसद कैसा था या कैसा होगा? वह देख रहा है कि उसका वोट मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाएगा। मोदी को वोट देने के साथ ही वह यह भी कहता है कि विधानसभा चुनाव में दूसरी पार्टियों और उम्मीदवारों को देखेंगे, लेकिन अभी मोदी के अलावा वह किसी के बारे में सोचने को तैयार नहीं है। इस वर्ग में हर जाति के लोग हैं। मुस्लिम महिलाओं का एक तबका भी इसमें शामिल है।

इन दिनों अमेरिका की टाइम पत्रिका की आवरण कथा की चर्चा हो रही है। इस आवरण कथा में मोदी को विभाजनकारी बताया गया है। भारत में मोदी विरोधियों ने इसे हाथों हाथ लिया। एक बार तो ऐसा लगा कि चुनाव नतीजे की घोषणा हो गई है, जबकि उसमें ऐसा कुछ नहीं लिखा है जो भारत में मोदी विरोधियों ने एक बार नहीं कई कई बार न लिखा हो। उसी पत्रिका में मोदी की आर्थिक नीतियों की सराहना करते हुए एक लेख छपा है, लेकिन इस लेख को उल्लेख योग्य नहीं माना गया। इससे यह पुन: रेखांकित होता है कि देश में मोदी की आलोचना या विरोध करने वाले नहीं, नफरत करने वाले हैं। अगर ये विरोधी होते तो आलोचना और प्रशंसा, दोनों मुद्दों पर चर्चा करते।

बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों का यह व्यवहार वास्तव में मोदी का नुकसान करने के बजाय फायदा ही पहुंचाता है। प्रधानमंत्री ने गलत नहीं कहा कि उनकी छवि लुटियंस दिल्ली या खान मार्केट गैंग के कारण नहीं 45 साल की तपस्या से बनी है। यही कारण है कि जनता को लगता है कि यह आदमी जरूर कुछ अच्छा काम कर रहा है जिससे कुछ लोग परेशान हैं। मोदी को देश का मतदाता विभाजनकारी मानता है या नहीं, यह तो 23 मई को पता चलेगा, लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि मोदी ने पिछले पांच साल में अपने सारे विरोधियों को मंदिर का रास्ता दिखा दिया है। पता नहीं कितने नेताओं को शिव भक्त बना दिया है।

नेताओं में यह बताने की होड़ सी लगी है कि कौन बड़ा हिंदू है। एक और बात पहली बार हो रही है। चुनाव का आखिरी चरण ही बचा है, लेकिन अभी तक धर्मनिरपेक्ष शब्द सुनाई तक नहीं दिया। उनके मुंह से भी नहीं जो हर चुनाव में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए चुनाव मैदान में उतरने का दावा करते थे। राहुल गांधी अपनी सारी उम्र में जितनी बार मंदिर गए होंगे उससे कई गुना ज्यादा बार वह पिछले डेढ़ साल में जा चुके हैं और तो और ओसामा लादेन को ओसामा जी कहने वाले दिग्विजय सिंह भी चुनाव जीतने के लिए भगवा वस्त्र धारण करने के अलावा सब कुछ कर चुके हैं।

इस चुनाव के नतीजे कई मिथक तोड़ेंगे और कई नए बनाएंगे भी। इस चुनाव में मोदी की जीत से यह भी तय होगा कि विकास का काम करके भी चुनाव जीता जा सकता है। यह भी कि भारतीय मतदाता जाति के खांचे से निकलने को तैयार नहीं है। आपातकाल के बाद की राजनीति में किसी नेता के प्रति इस तरह की आसक्ति नहीं दिखी।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

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