[डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक]। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की विशालता और उदारता पूरी दुनिया को प्रेरित करती रही है। हजारों लोगों की कुर्बानी के बाद आजादी मिली भी, पर विभाजन की पीड़ा के साथ, जिसे रोका भी जा सकता था, लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना की जिद के आगे विवश तत्कालीन नेतृत्व ने विभाजन को स्वीकार कर लिया जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था। विभाजन के समय संसदीय भाषण में मोहम्मद अली जिन्ना ने भरोसा दिलाया था कि पाकिस्तान एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि जिन्ना ने पाकिस्तान बनते ही धोखा दिया और पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष देश न होकर इस्लामिक राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ।

1950 में किया गया नेहरू लियाकत समझौता

पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने अपनी पुस्तक ‘मैटर्स आफ डिस्क्रेशन’ में लिखा है- ‘मोहम्मद अली जिन्ना के ऐतिहासिक भाषण के अनुसार पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक व आधुनिक राज्य होगा।’ लेकिन दुर्भाग्य से यह एक अल्पकालीन भ्रम था। जब अल्पसंख्यकों के साथ बर्बर अत्याचार जारी रहा तो 1950 में नेहरू लियाकत समझौता किया गया जिसके अनुसार दोनों देशों को एक दूसरे के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करनी थी।

पाकिस्तान ने कभी भी अल्पसंख्यकों की चिंता नहीं की और उनसे सौतेला व्यवहार जारी रखा। इसी का परिणाम आज हमें देखने को मिल रहा है। अगर पाकिस्तान ने वादा-खिलाफी ना की होती और नेहरू लियाकत समझौता के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाई होती तो आज नागरिकता संशोधन अधिनियम की जरूरत न पड़ी होती।

पाकिस्तान में सिर्फ 3.7 फीसद रह गई अल्पसंख्यकों की आबादी

वर्ष 1947 में पाकिस्तान के अंदर अल्पसंख्यकों की आबादी 23 प्रतिशत थी जो वर्ष 2011 में घटकर 3.7 प्रतिशत रह गई। पूर्वी पाकिस्तान यानी वर्तमान बांग्लादेश में भी अल्पसंख्यकों की जनसंख्या वर्ष 1947 में 22 प्रतिशत थी जो वर्ष 2011 में घटकर 7.8 प्रतिशत रह गई। आखिर ये लोग कहां गए? या तो उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा दिया गया या फिर मारे गए या फिर मजबूर होकर शरणार्थी बन कर भारत आए।

पाकिस्तान के प्रथम कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल द्वारा हिंदुओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई गई तो उनकी एक न चली। प्रताड़ना के विरोध में विवश होकर त्यागपत्र देकर उन्हें शरणार्थी बनकर भारत आना पड़ा। जब एक कानून मंत्री के साथ यह व्यवहार हुआ हो तो आम जनता के साथ क्या हुआ होगा?

मानवता के हित में नागरिकता संशोधन कानून

ऐसी स्थिति में पीड़ित शरणार्थियों के जीवन, मान- सम्मान की रक्षा हेतु नागरिकता संशोधन कानून 2019 बनाना दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का ज्वलंत उदाहरण है। इतिहास साक्षी है कि भारत ने हमेशा से ही विश्व कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होकर मानवता के हित में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं।

अमेरिका में स्वामी विवेकानंद ने जहां ‘भाइयों और बहनों’ से अपने उद्बोधन की शुरुआत की वहीं उन्होंने कहा, ‘मुझे एक ऐसे देश का नागरिक होने पर गर्व है जिसने सभी धर्मों को आश्रय प्रदान किया है।’ देश का सौभाग्य है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश इस परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। अपनी समृद्ध संस्कृति, भाषाओं और परंपराओं के साथ भारत ने हमेशा मानवीय मूल्यों, सार्वभौमिक प्रेम व शांति के लिए संदेश दिया। युगों से भारत ने वसुधैव कुटुंबकम की भावना को प्रतिपादित किया है। 


एनआरसी से मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 दिसंबर 2019 को यह स्पष्ट रूप से कहा कि ‘सरकार ने एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं की है।’गृह मंत्री ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि भारत के मुसलमानों को इस अधिनियम से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में कुछ तथाकथित राजनीतिक दल भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को अस्थिर बनाकर उपद्रव फैलाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।

सबसे हास्यास्पद यह है कि भारतीय मूल्यों के अनुरूप प्रताड़ित शरणार्थियों की सहायता के लिए बनाए गए इस अधिनियम को सामाजिक सौहार्द और शांति के लिए खतरा बताया जा रहा है। यह भी पूछा जा रहा है कि इस नागरिकता संशोधन अधिनियम में इन तीन देशों को ही क्यों शामिल किया गया है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर हमारे कुछ असामाजिक तत्व संवैधानिक मूल्यों को बचाने की कवायद के तहत विद्यार्थियों को भ्रमित कर सड़कों पर उतार रहे हैं।

देश की जनता को भ्रमित कर रहा विपक्ष 

विपक्षी दल समानता के अनुच्छेद 14 का हवाला देकर संविधान के उल्लंघन की बात कहकर देश की जनता को भ्रमित कर रहे हैं। यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण का प्रावधान करता है। मानवाधिकारों के लिए मानवीय मूल्यों के संरक्षण और संवर्धन हेतु भारत की प्रतिबद्धता विश्वविख्यात है।

गृह मंत्री अमित शाह ने अत्यंत स्पष्टता से कहा है कि समुचित वर्गीकरण के कारण यह अधिनियम अनुच्छेद 14 का कोई उल्लंघन नहीं करता है। यह काननू न केवल हिंदुओं के लिए है, बल्कि बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई, पारसी प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के लिए है जिन्होंने विषम परिस्थितियों में अपना घर परिवार छोड़ा है।

भारतीय नागरिक को प्रभावित नहीं करता अधिनियम 

इस अधिनियम की मुखर विरोधी और वर्तमान में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मई 2005 में लोकसभा में अवैध घुसपैठियों के मामले को उठाकर नाराजगी व्यक्त करते हुए इसके समाधान की जोरदार मांग उठाई थी। कुछ लोग इस अधिनियम को मुस्लिमों के खिलाफ बता रहे हैं। यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि यह अधिनियम धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय, रंग के आधार पर किसी भारतीय नागरिक को प्रभावित नहीं करता है।

कुछ लोग व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण इस अधिनियम को उत्तर पूर्वी राज्यों के लिए खतरा बता रहे हैं। गृह मंत्री ने बार बार दोहराया है कि इस अधिनियम में संविधान की छठी अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर राज्यों के हितों की रक्षा की जाएगी और बंगाल पूर्वी सीमा नियमन, 1873 के ‘इनर लाइन’ प्रणाली के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को वैधानिक संरक्षण दिया गया है। 

(लेखक भारत सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री हैं।)