[ संतोष त्रिवेदी ]: पुस्तक मेले में घुसते ही ‘वह’ दिखाई दिए। मैं कन्नी काटकर निकलना चाहता था, पर उन्होंने मुझे पकड़ ही लिया और पन्नी में लिपटी अपनी किताब पकड़ा दी। फिर फुसफुसाते हुए बोले, ‘अब आए हो तो विमोचन करके ही जाओ। तुम मेरे आत्मीय हो। आपदा में अपने ही याद आते हैं।’ मैंने भी अनमने ढंग से कहा, ‘कोई वरिष्ठ नहीं मिला क्या? मैं तो आपसे कितना छोटा हूं।’

विमोचन के लिए कोई भी ‘डेट’ खाली नहीं

मेरी बात को ‘इग्नोर’ करते हुए उन्होंने लंबी आह भरी। बोले कि ‘बात यह है कि इस वक्त सीजन बड़ा ‘टाइट’ चल रहा है। ‘कर-कमलों’ वाले सभी वरिष्ठ एडवांस में ‘बुक’ हैं। कोई भी ‘डेट’ खाली नहीं है। बमुश्किल कल एक पेशेवर विमोचक ने हामी भरी थी, परंतु तेरहवीं पुस्तक लोकार्पित करते-करते वह स्वयं इस लोक से ‘वॉक-आउट’ होने से बचे।

कविताएं पानी के बताशे की तरह हैं, जुबान में पड़ते ही घुल जाती हैं

किताब के बारे में वह यह रहस्योद्घाटन भी कर गए कि इसमें लिखी गई कविताएं बिल्कुल पानी के बताशे की तरह हैं। जुबान में पड़ते ही घुल जाती हैं। साहित्य में यथार्थ के प्रयोग का इससे बेहतर उदाहरण फिलहाल नहीं मिलता। फिर क्या था, प्रकाशक ने इतना सुनते ही उनका गला पकड़ लिया और लेखक ने माथा। बड़ी मुश्किल से उन्हें सुरक्षित गले के साथ प्रशंसकों की भीड़ से बाहर निकाला गया।

तुम बस मेरे बारे में यह पढ़ देना

अच्छी बात यह हुई कि लेखक ने वहीं पर अपनी 56वीं पुस्तक आने की घोषणा कर दी। तब जाकर प्रकाशक संतुष्ट हुआ, लेकिन साहित्य तभी से सदमे में है।’ मैं अब कोई जोखिम नहीं लेना चाहता। उस ‘विमोचन-कांड’ से मैंने यही सीखा है। हालांकि दो-तीन बंदों को हमने ‘बुक’ किया हुआ है, पर बतौर ‘बैक-अप’ तुम्हें चुन रहा हूं। तुम भले ही वरिष्ठ नहीं हो, पर यह बात भीड़ नहीं जानती। तुम बस मेरे बारे में यह पढ़ देना। यह कहकर उन्होंने मुझे एक पर्ची थमा दी। मैंने उसे चुपचाप जेब में रख लिया और आगे बढ़ने लगा।

पुस्तक मेले में किताब का विमोचन

बड़े जतन से मुझे संभालते हुए वह घटना-स्थल तक ले गए। तीन चेहरे पहले से ही वहां कैंची लिए तैनात थे। इनमें एक पैदाइशी विमोचक थे और बाकी दोनों उनके चेले। गुरुजी को विमोचन का इतना अभ्यास था कि किसी भी किताब को देखते ही उनके ‘कर-कमल’ फड़फड़ाने लगते। मेले में यदि किसी दिन वह कोई विमोचन नहीं कर पाते तो उनका शुगर-लेवल बढ़ जाता। इधर किताब में बंधा फीता कटने के लिए तड़प रहा था। जैसे ही चार लोग इकट्ठे हो गए, मुक्ति पाने के लिए पुस्तक तैयार थी। मैंने बिना देरी किए कैंची चला दी। जल्दबाजी में मैंने बर्फी वाले पैकेट की जिल्द खोल दी थी। इस बीच अनुभवी विमोचक ने सही पैकेट पर वार किया। कई मोबाइल एक साथ चमक उठे। इस तरह किताब की मुंह दिखाई संपन्न हुई।

साहित्य में प्रयोगवाद की शुरुआत, स्थापित कवियों को करें दरकिनार

अब विमोचित किताब पर मेरा मुंह खुलने का समय हो गया। मैंने जेब टटोली, पर पर्ची नदारद थी। मैंने आंखों को सिकोड़कर एक चिंतनीय मुद्रा बनाई। फिर किताब को दो बार उलट-पुलट कर पूरी तरह ‘स्कैन’ कर लिया। खैर, इसके बाद मेरा वक्तव्य शुरू हो गया, ‘मित्रों, कवि ने बिल्कुल नई जमीन पकड़ी है। इसके शीर्षक से ही क्रांति झलकती है। कवि गहन अंधकार में भी आशा का दामन नहीं छोड़ता। वह सुराख जैसी सुरंग में आकाश जैसी स्वच्छंदता की कल्पना करता है। मैं चाहता हूं कि आप लोग स्थापित कवियों को दरकिनार कर इस कवि पर गौर करें। साहित्य में प्रयोगवाद की आज से शुरुआत हो रही है।’

समोसा हाथ में और विमोचित पुस्तक गायब

मैं आगे कुछ और बोलता, तभी भीड़ में से भी किसी ने ‘प्रयोग’ कर दिया। मेज के नीचे रखी समोसे की टोकरी पता नहीं किसने ऊपर रख दी! अचानक सभी साहित्य-प्रेमी समोसों पर टूट पड़े। जैसे-तैसे मेरे हाथ भी एक समोसा लगा पर विमोचित पुस्तक गायब मिली। समोसे और साहित्य दोनों एक साथ निपट रहे थे। दस मिनट की अफरा-तफरी के बाद पुस्तक-लेखक और प्रकाशक पाठकों के इस अप्रत्याशित हमले का जायजा ले रहे थे।

किताब समोसों से ज्यादा बिकी

मैंने धीरे से लेखक महोदय से पूछा ‘कुछ ज्यादा नुकसान हो गया क्या?’ अब लेखक जी चौंक पड़े। बोले ‘अरे नहीं मित्र, किताब ‘हिट’ हो गई है। समोसे तीस ही थे, जबकि किताबें पूरी पचास।। मतलब अपनी किताब समोसों से ज्यादा बिकी। तुम्हारा आभारी रहूंगा जीवन भर।’ मैं संकोच सहित उस ‘आभार’ को लेकर मेले से बाहर निकल आया।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]