[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: वर्ष 2009 के आम चुनावों के बाद देश के कई राजनीतिक दलों का तेजी से पराभव हुआ। यह वे थे, जो अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए बहुसंख्यक वर्ग को कठघरे में खड़ा करते रहे थे। उनकी इस रणनीति को दोनों वर्ग समझ गए हैं। यह 2014 के आम चुनावों में स्पष्ट हुआ और 2019 में इस पर मुहर लग गई। इन दिनों तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी अल्पसंख्यकों को एकजुट होकर वोट देने का सार्वजनिक आह्वान कर रही हैं। देखा जाए तो वह सेक्युलर वर्ग, जो पांच-छह दशक सत्ता के साथ रहकर अपनी बौद्धिकता का उपयोग मुस्लिम संप्रदाय र्को ंहदुओं का भय दिखाने में करता रहा है, वह आज हिंदुओं के एकजुट हो जाने की संभावना से विचलित है। यह वर्ग और इनके राजनीतिक आका शाहीन बाग से लेकर किसान आंदोलन तक सामाजिक और पंथिक दूरियां बढ़ाने में संलग्न रहे हैं।

हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच समस्याएं राजनीति और कट्टरता के प्रोत्साहन से प्रारंभ हुईं

भारत के गावों, कस्बों और अधिकांश शहरों में हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर सद्भावना अनुकरणीय रही है। समस्याएं तो राजनीति के प्रचार-प्रसार और कट्टरता के प्रोत्साहन से प्रारंभ हुईं। ऐसे लोग सभी के समक्ष उजागर हो चुके हैं, जो पूर्व-नियोजित रणनीतियों के आधार पर सामाजिक समरसता के ताने-बाने को जर्जर कर रहे हैं। भारत में राजनीति का स्तर ऐसे लोगों के अपरिपक्व वक्तव्यों के कारण ही गिरता जा रहा है। ऐसे सभी विद्वानों और नेताओं से पूछना चाहिए कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकार में अन्य नागरिकों के अधिकारों को बेखौफ रौंदना तथा सामाजिक दुर्भावना को बढ़ाना भी सम्मिलित है? यदि मानवीय संवेदना राजनीति से तिरोहित हो जाएगी तो क्या उसका प्रभाव सामाजिक संबंधों पर नहीं पड़ेगा?

शाहीन बाग और किसान आंदोलन से भाईचारे की डोर कमजोर हुई

शाहीन बाग और किसान आंदोलन के उद्देश्य और मांगों का औचित्य या अनौचित्य जो भी हो, सामाजिक और पंथिक भाईचारे की डोर कमजोर अवश्य हुई है। दशकों पहले आचार्य जेबी कृपलानी ने ऐसी स्थितियों का अत्यंत सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया था। उन्होंने लिखा था, ‘मानव इतिहास का यह तथ्य है कि सभी काल में व्यक्तिगत और सामाजिक सदाचार राजनीतिक और विशेषकर अंतरदलीय सदाचार से कहीं उन्नत था। व्यक्तिगत और सामाजिक आचार का आधार पारस्परिक विश्वास, सहयोग, सत्य-अहिंसा रहा है, पर दलीय और राजनीतिक व्यवहार में स्वार्थ, अविश्वास, धोखेबाजी, हिंसा और युद्ध की छाप रही है। यहां जिसकी लाठी, भैंस उसी की हो रही है और सफलता का ही नाम सदाचार रहा है।’

भारत में दलगत राजनीति में चारित्रिक और सैद्धांतिक क्षरण तेजी से हुआ

भारत में दलगत राजनीति में चारित्रिक और सैद्धांतिक क्षरण तेजी से हुआ है। इसके प्रभाव से सामाजिक पारस्परिकता और सद्भावना तथा विविधता की स्वीकार्यता भी नकारात्मक दिशा में बढ़ी है। यह अस्वीकार्य स्थिति है। इसे बदलनी ही होगी। वस्तुस्थिति का ईमानदारी से विश्लेषण करना ही होगा और जो कारण और तत्व सद्भावना बढ़ाने में बाधक हैं, उन्हेंं उजागर करना आवश्यक है। देश के बहुसंख्यक समाज ने छह दशक तक लगातार यह देखा कि मुस्लिम समुदाय को ‘अपनी ओर’ मिलाने के लिए सत्तारूढ़ दल सदा ऐसे कार्य करता रहा, जिसे बड़ी ही ईमानदारी से डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने एक ऐतिहासिक वाक्य में न केवल स्वीकार किया, बल्कि उस पर मुहर भी लगा दी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिम समुदाय का है। विडंबना यह है कि मुस्लिम समुदाय की प्रगति और विकास में इस नीति ने कोई योगदान नहीं किया। वहां गरीबी, अशिक्षा और रूढ़िवादिता में कुछ भी उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हो पाया। हालांकि यह अच्छी बात है कि मुस्लिम समुदाय अब समझ गया है कि उसे लगातार मोहरा बनाया गया। उसका हित स्वघोषित ‘सेक्युलर’ वर्ग की प्राथमिकता में कभी नहीं था। यह सर्व-स्वीकार्य है र्कि ंहदू और मुस्लिम समुदाय के बीच सद्भावना बढ़ाकर ही देश का विकास किया जा सकता है। शाहीन बाग जैसे आंदोलन या सीएए जैसे कानूनों को समाप्त करने के वादे अब कोई राजनीतिक लाभ किसी को नहीं दे सकेंगे, बल्कि सिर्फ सामाजिक दूरियां बढ़ाते रहेंगे।

हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की, बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखता है

इस देश की मूल संस्कृति सनातन धर्म के वृहद आधार पर पुष्पित-पल्लवित हुई। उसमें सभी प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता थी। इसके बाद किसी भी मनुष्य के प्रति कोई दुर्भावना रखने का कोई आधार हो ही नहीं सकता है। इसे गांधी जी ने यंग इंडिया में 20 अक्टूबर, 1927 को इस प्रकार वर्णित किया था, ‘जितने धर्मों को जानता हूं, उन सबमें हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु है। इसमें कट्टरता का जो अभाव है, वह मुझे बहुत पसंद आता है, क्योंकि इससे उसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति के लिए अधिक से अधिक अवसर मिलता है। अहिंसा सब धर्मों में समान है, परंतु हिंदू धर्म में वह सर्वोच्च रूप में प्रकट हुई है और उसका प्रयोग भी हुआ है। हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की, बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखता है।’

सत्य, अहिंसा, शांति, सद्आचरण और प्रेम-भाईचारे के तत्व सभी धर्मों-पंथों में विद्यमान हैं 

सत्य, अहिंसा, शांति, सद्आचरण और प्रेम-भाईचारे के तत्व सभी धर्मों-पंथों में विद्यमान हैं। पंथिक सद्भावना के लिए यही आधार-स्तंभ बनते हैं। 29 अक्तूबर, 1931 को यंग इंडिया में लिखे अपने एक लेख में गांधी जी ने इसका रास्ता भी बताया है, ‘मुझे इस बात का पूरा निश्चय है कि यदि नेता न लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है। इसीलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएं कि हमारे देश में भी आपसी लड़ाई-झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्छेद कर दिया जाना चाहिए और वे जंगलीपन तथा अधार्मिकता के चिन्ह माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उसका अनुसरण करेगी।’ अपने को गांधी जी का वारिस घोषित करने वालों को इस पर गहराई से विचार विमर्श करना चाहिए।

( लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )