[ राजनाथ सिंह सूर्य ]: सत्ता में बने रहने के लिए संवैधानिक संस्थाओं पर जिस निरंकुशता का हथियार चलाकर आपात स्थिति लगाने का काम पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था, सत्ता में आने के लिए उनके पौत्र कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इन दिनों वैसा ही कुछ उपक्रम करते प्रतीत हो रहे हैं। उस समय इंदिरा गांधी ने भय का सहारा लिया था, राहुल गांधी झूठ और असभ्य भाषा का सहारा ले रहे हैं। राहुल गांधी ने बहन प्रियंका वाड्रा को राजनीति के मैदान में उतार तो दिया, लेकिन इसका एक परिणाम यह हुआ है कि अब उनकी ही क्षमता पर अविश्वास उभरकर सामने आ रहा है। पूर्व विदेश मंत्री एमएस कृष्णा ने एक हालिया कार्यक्रम में कहा कि मात्र सांसद होते हुए भी राहुल गांधी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में जिस तरह हस्तक्षेप करते थे उससे ऊब कर ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ी। वहीं जिस प्रकार से प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति में इजाफे के खुलासे हो रहे हैैं उससे नेपथ्य से कांग्रेस और सरकार के कामों में उनके हस्तक्षेप की बात भी साफ होती है। स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में कांग्रेस में प्रियंका का दबाव बढ़ेगा। सवाल है कि क्या यह कांग्रेस को मजबूत बनाने का काम करेगा या पारिवारिक कलह का कारण बनेगा?

वर्ष 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल करने के लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहकर जिस अभियान की शुरुआत की थी उसकी निरंतरता बनी हुई है और उसका लाभ भी मोदी को मिल रहा है। तहजीब और अदब के शहर लखनऊ में भी अपनी बहन प्रियंका वाड्रा को स्थापित करने के लिए राहुल गांधी ने जो रैली की उसमें भी उन्होंने कार्यकर्ताओं से चौकीदार चौर है के नारे लगवाकर यह साबित कर दिया कि कुत्सित अभिव्यक्ति का उनका सिलसिला जारी रहेगा।

इसी प्रकार आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिलाने के लिए एक दिवसीय अनशन पर बैठे मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र भवन में स्थापित नंदी की प्रतिमा पर यह वाक्य लटकाकर कि ‘जिस चाय बेचने वाले को झूठे कप-प्लेट पकड़ाना चाहिए था उसे जनता ने देश पकड़ा दिया’ यह साबित कर दिया कि चाहे कांग्रेस हो, ममता बनर्जी हों, चंद्रबाबू नायडू हों या अन्य नेता, वे प्रधानमंत्री मोदी के प्रति कुत्सित भाषा के प्रयोग को अभी और परवान चढ़ाएंगे। हालांकि अभी तक इस प्रकार का अभियान मोदी की प्रतिष्ठा बढ़ाने में ही सहायक हुआ है।

जहां तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को स्थापित करने के राहुल गांधी के प्रयास की सफलता का आकलन है तो 2017 के विधानसभा चुनाव के पूर्व देवरिया से खाट पंचायत शुरू करने के बाद जिस तरह लखनऊ पहुंचते-पहुंचते वह साइकिल के कैरियर पर बैठ गए थे उसी स्मृति को ताजा कर परिणाम निकाला जा सकता है। गत दिनों जिन प्रियंका वाड्रा को स्थापित करने के लिए लखनऊ में रैली हुई थी उसमें वह मौन रहीं। इससे विभिन्न जिलों से आए कांग्रेस कार्यकर्ता अवश्य निराश हुए होंगे जो उन्हें देखने के साथ सुनना भी चाहते थे।

बेंगलुरु, कोलकाता, नई दिल्ली और पटना में मंचीय एकता दिखाने के लिए खड़े होने वालों की संख्या में जो गिरावट आई है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए भाजपा विरोधी दल तैयार नहीं हैं और महागठबंधन में जो अलग-अलग दिशाओं से आकर शामिल हुए थे उन्होंने पहले अपने-अपने घरों को मजबूत करने के लिए रणनीति अपना ली है।

उत्तर प्रदेश में कोई कांग्रेस का साथ लेने को तैयार नहीं है। जिस प्रकार कर्नाटक में अपने से चौथाई संख्या वाले दल के नेता को कांग्रेस को मुख्यमंत्री बनाने को विवश होना पड़ा कुछ उसी प्रकार उसे पश्चिम बंगाल में माकपा से समझौता करना पड़ रहा है। तमिलनाडु में कांग्रेस का द्रमुक के साथ समझौता जरूर है, लेकिन सीटें कितनी मिलेंगी, यह सामने आना बाकी है। यही स्थिति लगभग बिहार की भी है। देश के अधिकांश राज्यों में कांग्रेस के साथ कोई भी दल खड़ा होने को तैयार नहीं है।

जाहिर है मोदी विरोधी राजनीतिक एकजुटता वर्चस्व के अहंकार से ग्रस्त होने के कारण तार-तार हो रही है। भाजपा विरोधी यह आकलन पेश कर रहे हैैं कि लोकसभा चुनाव में उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, लिहाजा मोदी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने में क्षेत्रीय दल सहयोग कर सकते हैं। इसका असर सत्तारूढ़ भाजपा में निजी महत्वाकांक्षाओं के टकराव रूप में कहीं देखने को नहीं मिल रहा है, लेकिन अन्य अनेक झूठ और अफवाहों के समान इसे भी हवा देने का प्रयास किया जा रहा है।

ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, मायावती या अखिलेश यादव के सत्ता में रहने के दौरान हुए घोटालों के खुलासे से देश के जनमानस को भ्रमित करने का प्रयास यह कहकर किया जा रहा है कि यह सब चुनाव के समय ही क्यों हो रहा है। इसकी आड़ में भाजपा विरोधी दल और खासकर कांग्रेस द्वारा संवैधानिक संस्थाओं यथा सर्वोच्च न्यायालय, कैग, चुनाव आयोग और सेना के खिलाफ देश में अविश्वास की लहर फैलाने की कोशिश हो रही है।

दूसरी ओर भाजपा का यह प्रचार भी जोर पकड़ रहा है कि जो भ्रष्टाचार के आरोप से ग्रस्त हैं उन्हें लालू यादव के समान अपना जीवन जेल में बिताना पड़ेगा। रक्षा क्षेत्र में बिचौलियों के खत्म होने से भ्रष्टाचार के उन्मूलन से बौखलाए लोग भी मोदी विरोधी अभियान में सक्रिय हैैं। संभवत: ये वही हैैं जिनके बारे में प्रधानमंत्री ने संसद में कहा कि ऐसे हजारों एनजीओ जो विदेशी सहायता से विकास कार्यों में बाधक बन रहे थे, हिसाब मांगने पर कारोबार बंद कर चुके हैं।

बहरहाल अभद्र भाषा की बौछार और बदनाम करने के लिए साजिशों के नए-नए अवतार के बावजूद तथ्यों के आधार पर नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा और उनकी विश्वसनीयता का कोई क्षरण नहीं हुआ है। जैसे-जैसे यह अभियान बढ़ता जा रहा है, एक प्रश्न भी जनमानस को कुरेदने लगा है कि यदि मोदी नहीं तो कौन देश को आगे ले जाने का काम करेगा? इसका जवाब देने के लिए विपक्षी चाहे जो उपक्रम कर रहे हों, जनमानस में यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि नरेंद्र मोदी का विकल्प कोई नहीं। क्या इस धारणा का लाभ अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी को मिलेगा या अफवाहों के सहारे विरोध को मजबूत करने वाले सफल होंगे? 2019 के चुनाव का मुख्य मुद्दा यही होगा कि ‘मोदी बनाम और कौन’।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैैं )