[ उदय प्रकाश अरोड़ा ]: आज भारत का पढ़ा-लिखा तबका भी यह मानने लगा है कि राजनीति एक गंदी चीज है। वह चूंकि साफ-सुथरी हो ही नहीं सकती, लिहाजा उससे बचकर रहना चाहिए। शायद इसी वजह से आज बोलचाल की भाषा में राजनीति शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में होने लगा है। सवाल यह खड़ा होता है कि क्या अब से पहले भी राजनीति शब्द का इस्तेमाल इसी प्रकार होता था? स्कूली जीवन में मैैंने सरदार पटेल पर एक कविता पढ़ी थी, जिसकी एक पंक्ति थी, ‘राजनीति’ का कुशल खिलाड़ी वह सरदार पटेल।’ पटेल की कुशल राजनीतिक निपुणता का ही फल था कि 565 रियासतों का भारत के साथ एकीकरण किया जा सका। जहां आज राजनीति करने के कारण नेताओं को सामान्यत: बुरी दृष्टि से देखा जाने लगा है वहीं सरदार पटेल की गणना राजनीति करने के कारण भारत के महापुरुषों में की जाती है। भले ही राजनीति को आज नकारात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा हो, लेकिन महात्मा गांधी और सरदार पटेल के समय में ऐसा नहीं था। राजनीति करना तब एक सकारात्मक कार्य माना जाता था। जो राजनीति करते थे, जनता उन्हें आदर की दृष्टि से देखती थी।

स्वतंत्र भारत के राजनीतिज्ञों की प्रथम पीढ़ी गांधी जी के नेतृत्व में विकसित हुई थी। गांधी जी ने जिस राजनीति को जन्म दिया, धर्म और नैतिकता के बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अत: हमारे नेताओं ने उस समय एक साफ-सुथरी स्वच्छ राजनीति बनाने की चेष्टा की। डॉ. आंबेडकर, डॉ. लोहिया, पं. नेहरू, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, कृपलानी, नरेंद्र देव, अशोक मेहता, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने नैतिक राजनीति के निर्माण के लिए पूरी कोशिश की। डॉ. लोहिया जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री थे तब उनकी पार्टी की सरकार केरल में बनी।

स्वतंत्र भारत की वह पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी। 1955 में सरकार के विरुद्ध मजदूरों का एक आंदोलन कुछ मांगों को लेकर प्रारंभ हुआ। आंदोलनकारियों का एक बड़ा प्रदर्शन त्रिवेंद्रम में हुआ। प्रदर्शन को रोकने के लिए अनियंत्रित भीड़ पर पुलिस को गोली चलानी पड़ी। सात लोग मारे गए। उस समय लोहिया जी इलाहाबाद में थे। घटना के बारे में जब उन्हें पता चला तब उन्होंने तुरंत कहा कि मुख्यमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल त्यागपत्र दे, घटना की उच्चस्तरीय जांच हो और दोषी लोगों को दंडित किया जाए।

लोहिया जी का कहना था कि आज स्वतंत्र देश की निहत्थी जनता पर चुनी हुई सरकार को गोली चलाना पड़े तो यह शर्मनाक बात है। उसके बाद पार्टी के सदस्यों ने बैठक की। विचार-विमर्श हुआ। लोहिया जी की बात उन्होंने नहीं सुनी। उनका मानना था कि चूंकि गैर-कांग्रेसी दल को पहली बार सरकार बनाने का मौका मिला है, लिहाजा उसे खोना नहीं चाहिए। लोहिया जी अपनी बात पर डटे रहे। मतभेद होने के कारण उन्होंने न केवल महामंत्री पद से, बल्कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। यह थी उनकी नैतिकता की राजनीति। लालबहादुर शास्त्री जब रेलमंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना में 140 यात्रियों की मृत्यु के कारण उन्होंने रेल मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। इसकी मिसाल आज भी दी जाती है।

सवाल है कि कहां विलुप्त हो गई भारतीय राजनीति की वह नैतिकता? कौन है इसका दोषी? क्या हमारा मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचा इसके लिए दोषी है? ऐसी उसमें क्या खामियां हैैं जिसके कारण देश में आज राजनीति हेय का विषय बनती जा रही है? कभी प्राचीन एथेंस के लोकतंत्र की आलोचना करते हुए प्लेटो ने लिखा था, ‘लोकतंत्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह एक आम आदमी को विदेश नीति, अर्थव्यवस्था और इसी तरह के दूसरे गंभीर मुद्दों पर सदन में बोलने, अपना मत देने और कार्यकारिणी में निर्वाचित होकर कार्यवाही करने की पूरी इजाजत देता है, जबकि ये विषय ऐसे हैं कि केवल विशेषज्ञ ही इनके बारे में सही दिशा में सोच सकते हैं।’

प्लेटो ने सरकार चलाने वालों में दार्शनिकों और चिंतकों के शामिल किए जाने पर सबसे अधिक जोर दिया था। लोकतंत्र का दूसरा बड़ा दोष उन्होंने यह माना कि इस व्यवस्था में नेताओं के चुने जाने में वे कारण प्रभावी हो जाते हैैं जिनका प्रशासन चलाने से कुछ लेना-देना नहीं होता, जैसे कि धन का खेल, वंश और परिवार की पृष्ठभूमि और जनता को बहकाने वाले लच्छेदार भाषण। उनके हिसाब से तीसरा दोष था कि लोकतंत्र देश को अराजकता (भीड़तंत्र) की दिशा में ले जा सकता है। आज प्राचीन एथेंस नहीं है, फिर भी प्लेटो की आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले कही गई ये बातें भारत के वर्तमान लोकतंत्र के संदर्भ में बहुत कुछ सच लगती है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम लोकतंत्र को तिलांजलि दे दें। विशेषज्ञों ने तमाम बुराइयों के बावजूद लोकतंत्र को मौजूदा किसी दूसरी व्यवस्था से बेहतर माना है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि विभिन्न कारणों से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कई खामियां हैैं। दरअसल हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की जिस व्यवस्था को चुना वह है संसदीय प्रजातंत्र। संसदीयव्यवस्था का आधार हैं राजनीतिक दल। एक स्वस्थ संसदीय व्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल प्रजातंत्र को मजबूत करें, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैैं। संसदीय कार्यवाही का गिरता स्तर गंभीर समस्या बन गया है तो राजनीतिक दलों के कारण ही। जब तक पार्टियां स्वयं जनतांत्रिक नहीं होंगी, उनके द्वारा लोकतंत्र कैसे स्थापित हो सकता है? भारत के लोकतंत्र की आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि पार्टियों के भीतर ‘आंतरिक लोकतंत्र’ का अभाव है। लगभग सभी पार्टियां परिवारवाद, वंशवाद, जातिवाद अथवा व्यक्तिवाद की शिकार हैं। पार्टियों के भीतर चुनाव नहीं होते। मुखिया द्वारा पदाधिकारी मनोनीत किए जाते हैैं।

भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है। चुनावों का उसे लंबा अनुभव है। इस अनुभव के बावजूद पार्टियों ने अपने को बदला नहीं। सुशासन के लिए जरूरी है कि पहले राजनीतिक दल अपने को सुशासित करें। परिवार, वंश और व्यक्ति पूजा छोड़कर दल के भीतर जनतंत्र लाएं। ऐसा होने पर ही सुशासन को महत्ता मिलेगी। आज देश में दलों की संख्या निरंतर बढ़ जा रही है। अब तक 600 से अधिक राजनीतिक दलों का पंजीकरण हो चुका है। यह एक हास्यास्पद स्थिति है। इस पर रोक लगनी चाहिए। इसके लिए पंजीकरण नियमों को कड़ा किया जाना चाहिए। ‘दलों में आंतरिक लोकतंत्र’ लाना इस समय भारतीय राजनीति में सुधार लाने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है। इसके लिए 2019 के आम चुनाव में जनता को चाहिए कि वह ‘दलों में आंतरिक लोकतंत्र’ को मुद्दा बनाए। इसके लिए पार्टियों पर दबाव डाले और जरूरत पड़े तो आंदोलन भी करे, क्योंकि अगर राजनीति नहीं सुधरी तो देश भी नहीं सुधरेगा।

( लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैैं )