[ संजय गुप्त ]: भारतीय लोकतंत्र के गौरवमयी इतिहास के कुछ स्याह पक्ष हैैं और उनमें से एक है चुनावों में धन का इस्तेमाल। चिंताजनक यह है कि चुनावों में धन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि खर्चीले चुनाव केवल भारत में ही होते हैैं। चुनाव प्रक्रिया अन्य अनेक देशों में भी खासी महंगी है, लेकिन ऐसे देशों और खासकर विकसित देशों में चुनावी चंदे की प्रक्रिया कहीं अधिक पारदर्शी है। इसके चलते इन देशों में राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों पर ऐसे आरोप बहुत कम लगते हैैं कि उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए काले धन या बिना हिसाब-किताब वाले पैसे का इस्तेमाल किया। भारत में ऐसा नहीं है।

चुनावी चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए जाने की तरफ सरकार ने उठाए कदम

चूंकि अपने यहां चुनावों में पैसे की भूमिका बढ़ती जा रही है इसलिए लोगों के मन में यह धारणा घर करती जा रही है कि राजनीति और चुनाव काले धन से संचालित हैैं। ऐसा नहीं है कि चुनावी चंदे यानी धन की जरूरत केवल लोकसभा या विधानसभा चुनावों में ही पड़ती हो। यह जरूरत पंचायतों, स्थानीय निकायों और यहां तक कि छात्रसंघ के चुनावों में भी पड़ती है। इस सच से सभी राजनीतिक दल भली भांति परिचित भी हैं। इस पर तमाम बार बहस हो चुकी है कि चुनावी चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? इस क्रम में समय-समय पर जो कदम उठाए गए वे भी चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं बना सके।

चुनावों में प्रत्याशी करोड़ों रुपये खर्च करते हैैं, लेकिन हलफनामे में खानापूरी होती है

वैसे तो चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को अपने चुनावी खर्च का विवरण हलफनामे के जरिये देना पड़ता है, लेकिन सब जानते हैैं कि यह केवल दिखावटी खानापूरी होती है। तय सीमा से अधिक खर्च करने वाले प्रत्याशी दस्तावेजों में यही दिखाते हैैं कि उन्होंने उतना ही पैसा खर्च किया जितने की अनुमति है। वर्तमान में बड़े राज्यों में प्रत्येक लोकसभा सीट के लिए चुनाव खर्च की सीमा 70 लाख और छोटे राज्यों के लिए 54 लाख रुपये है। इतना धन तो ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है। आम तौर पर विधानसभा और लोकसभा चुनावों में औसत प्रत्याशी करोड़ों रुपये खर्च करते हैैं, लेकिन समाजवादी सोच के तहत जानबूझकर यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि वे कम पैसे में चुनाव लड़ लेते हैैं।

चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए चुनावी बांड की व्यवस्था

दो वर्ष पहले चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए चुनावी बांड की व्यवस्था बनाई गई। हालांकि इस व्यवस्था का निर्माण होने के समय ही सरकार की ओर से यह कहा गया था कि यह पूरी तौर पर पारदर्शी नहीं, लेकिन अब उसे लेकर एक विवाद खड़ा हो गया है। इस विवाद का कारण विपक्ष का यह आरोप है कि इस व्यवस्था का लाभ सत्ताधारी दल यानी भाजपा को मिल रहा है। इस आरोप के साथ रिजर्व बैैंक की उस आपत्ति का भी जिक्र किया जा रहा है जो उसकी ओर से चुनावी बांड को लेकर जताई गई थी।

सरकार के तर्क से विपक्ष संतुष्ट नहीं

सरकार का तर्क है कि रिजर्व बैैंक की आपत्तियों का जवाब देकर उन्हें खारिज कर दिया गया था, लेकिन विपक्ष इससे संतुष्ट नहीं। रिजर्व बैैंक की आपत्ति पर हैरानी नहीं, क्योंकि खुद चुनाव आयोग का भी यह मानना था कि चुनावी बांड में कुछ खामियां हैैं। चुनावी बांड के मामले में विपक्ष के आरोपों की सच्चाई जो भी हो, इससे इन्कार नहीं कि चुनावी बांड की योजना को बेहतर बनाने की गुंजाइश का जिक्र खुद यह योजना जारी करते समय तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने किया था। उन्होंने कहा था कि अगर उपयुक्त सुझाव आए तो उन्हें इस योजना का हिस्सा बनाया जाएगा।

चुनावी बांड योजना में चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने की है व्यवस्था

अपने देश में आम तौर पर लोग अपने-अपने राजनीतिक रुझान के तहत राजनीतिक दलों को चंदा देते हैैं और इसे सार्वजनिक करने में उन्हें कोई समस्या भी नहीं होती, लेकिन बड़े उद्यमी और कंपनियां राजनीतिक दलों को चंदा देते समय यह जाहिर करने से बचती हैैं कि उन्होंने किसको कितना चंदा दिया? उन्हें भय होता है कि उनका नाम उजागर होने से वे राजनीतिक दल उन्हें निशाना बना सकते हैैं जिन्हें उन्होंने चंदा नहीं दिया होगा। उनकी इसी परेशानी को देखते हुए चुनावी बांड योजना में उनका नाम गोपनीय रखने की व्यवस्था की गई। इस बांड को खरीदने वालों की जानकारी सार्वजनिक नहीं होती, लेकिन बैंक को यह जानकारी रहती है कि किसने किसको चुनावी बांड के जरिये कितना चंदा दिया। जिस समय चुनाव बांड वाली व्यवस्था चालू हुई तब वैसा कोई शोर विपक्षी दलों ने नहीं मचाया जैसा बीते दिनों संसद में मचाया गया।

चुनावी बांड योजना की खामियों को दूर करने के उपाए बताने चाहिए

कांग्रेस की मानें तो चुनावी बांड योजना के जरिये सरकार भ्रष्टाचार कर रही है। इस पर भाजपा का कहना है कि इस योजना का विरोध वही लोग कर रहे हैैं जिन्हें वर्षों से भ्रष्ट तौर-तरीके से राजनीति करने की आदत लगी हुई है। सच्चाई जो भी हो, इस मामले में आरोप-प्रत्यारोप उछालने से बात बनने वाली नहीं है। वास्तव में जरूरत संसद के भीतर या बाहर शोर-शराबा करने की नहीं, यह देखने की है कि चुनावी चंदे की ऐसी पारदर्शी व्यवस्था कैसे बने जिससे चुनावों में धन बल का इस्तेमाल कम हो और जनता में यह भरोसा बढ़े कि चुनाव लड़ने के लिए कालेधन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। क्या यह अजीब नहीं कि चुनावी बांड पर सवाल खड़ा करने वाले यह नहीं बता पा रहे हैैं कि इस योजना की खामियों को कैसे दूर किया जा सकता है?

राजनीतिक दलों की साख पर मिलता है चंदा

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2018 से अक्टूबर 2019 के बीच 6128 करोड़ रुपये के 12,313 बांड बेचे गए। इनमें से एक बड़ी राशि भाजपा के पास गई। शायद कांग्रेस इससे चिढ़ी है कि उसे भाजपा के मुकाबले कहीं कम चंदा मिला, लेकिन उसे यह पता होना चाहिए कि राजनीतिक दलों को चंदा मिलने का एक बड़ा आधार उनकी साख होती है। यदि कोई राजनीतिक दल लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरता है अथवा अपनी विचारधारा से उन्हें प्रभावित करता है तो स्वाभाविक तौर पर उसे चंदा भी अधिक मिलता है।

पहले की तुलना में चुनावी बांड योजना कहीं अधिक पारदर्शी है

चुनावी बांड पर सवाल खड़े करने वालों को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि पहले की तुलना में यह व्यवस्था कहीं अधिक पारदर्शी है। पहले तो किसी को कुछ पता ही नहीं चलता था कि किसने किसको कितना चंदा दिया? चुनावी बांड योजना नोटबंदी के उपरांत कालेधन पर लगाम लगाने के लिए उठाए गए कई कदमों के बाद अमल में लाई गई थी। भले ही कालेधन पर पूरी तौर पर रोक न लग पाई हो, लेकिन इतना तो है ही कि उस पर एक बड़ी हद तक अंकुश लगा है।

कम चंदा मिलने का कारण कांग्रेस की गिरती साख तो नहीं है

बेहतर हो कि कांग्रेस यह देखे कि कहीं उसे कम चंदा मिलने का कारण उसकी गिरती हुई साख और सिमटता हुआ जनाधार तो नहीं है? यदि कांग्रेस यह मान रही है कि चुनावी बांड योजना में खामियां ही खामियां हैैं तो फिर उसे उसका बेहतर विकल्प बताना चाहिए। केवल शोर मचाने से न तो उसे कुछ हासिल होने वाला है और न ही भारतीय राजनीति और लोकतंत्र को।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]