[ डॉ. एके वर्मा ]: लोकसभा चुनावों की आहट तेज होते ही राजनीतिक दलों में मतदाताओं को रिझाने हेतु ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ की प्रवृत्ति बढ़ गई है। जहां सत्तारूढ़ भाजपा अनेक योजनाओं का लोकार्पण, शिलान्यास और घोषणा कर रही है, वहीं कांग्र्रेस किसानों की कर्ज माफी को अपने ट्रंप कार्ड के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणामों में कांग्र्रेस ने कर्ज माफी की मेहरबानी से जीत का स्वाद चख लिया है। भाजपा भी इसका आनंद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों और कांग्र्रेस 2009 के लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। पार्टियों को लगता है कि कर्ज माफी चुनाव जीतने का आसान तरीका है, क्योंकि देश की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या खेती-किसानी में लगी है, लेकिन क्या वास्तव में कर्ज माफी किसानों, कृषि और देश की अर्थव्यवस्था के हित में है?

अगर किसानों में यह भाव घर कर गया कि सरकारें आज नहीं तो कल कर्ज माफी कर ही देंगी तो वे उस कर्ज को क्यों चुकाएं? उसे वे गैर-कृषि कार्यों और अनुत्पादक मदों जैसे शादी-विवाह, तीज-त्योहार, मकान-वाहन आदि में खर्च करेंगे। कृषि जरूरत के लिए वे सेठ-साहूकार से उधार लेंगे और गैर-सरकारी कर्ज के मकड़जाल में फंसे रहेंगे। कर्ज माफी पिछली देनदारी का तो आंशिक हल है, पर किसान की भावी कृषि जरूरतों का समाधान नहीं। अत: जो फार्मूला बैंक उद्योगपतियों के संबंध में अपनाते हैं, वही किसानों के लिए भी अपनाएं।

बैंक उद्योगपतियों के कर्ज को माफ नहीं करते, बल्कि उसे अपने बहीखाते में फंसे हुए कर्ज के रूप में दिखाते हैं जिसकी देनदारी उद्योगपतियों पर बनी रहती है। ऐसे ही किसानों को भी कर्ज से मुक्त न किया जाए, पर आगे बेहतर कृषि उत्पादन और बिक्री के लिए बीज, खाद, बिजली, पानी और विपणन सुविधाओं आदि के रूप में कर्ज दिया जाए। इससे कृषि उत्पादन बेहतर होगा, क्योंकि कृषि ऋण खेती केलिए वांछित संसाधनों केरूप में मिलेगा जिससे किसानों को कृषि की ओर आकृष्ट किया जा सकेगा और कृषि ऋण के दुरुपयोग या अनुत्पादक प्रयोग पर रोक लग सकेगी।

चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने और उनके मतों को भुनाने की होड़ सी लग जाती है। जिस दल के सत्ता में आने की जितनी कम उम्मीद होती है उसमें मतदाताओं को उतने ही उदार और विशालकाय ‘पॉलिटिकल-लॉलीपॉप’ देने की प्रवृत्ति होती है, क्योंकि उन्हें चिंता नहीं होती कि सत्ता में आने पर उसे पूरा कैसे करेंगे। उन्हें न तो देश की राजकोषीय सेहत की चिंता होती है, न ही आम नागरिक के ऊपर टैक्स के बोझ की। चूंकि देश में गरीबी है, इसलिए निम्न आर्थिक वर्ग को ‘पॉलिटिकल लॉलीपॉप’ बहुत लुभाता है, लेकिन इससे अनेक राज्य कर्ज में डूब गए।

भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2016 तक पंजाब जैसे कृषि संपन्न राज्य पर 1.95 लाख करोड़ करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश पर 3.85 लाख करोड़ रुपये, महाराष्ट्र पर 3.51 लाख करोड़ रुपये और पश्चिम बंगाल पर 3.14 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। कृषि कर्ज माफी का सिलसिला वर्ष 1989 से शुरू हुआ जब देवीलाल देश के उप-प्रधानमंत्री बने। दक्षिणी राज्यों में मुख्यत: आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ ने जोर पकड़ा जिससे उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता चला गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने सुब्रमण्यम बनाम तमिलनाडु मामले (2013) में द्रमुक और अन्नाद्रमुक द्वारा अपने घोषणापत्रों में रंगीन टीवी, मिक्सर, फैन और लैपटॉप देने के वायदों को भले ही जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(1) के अंतर्गत ‘भ्रष्ट आचरण’ नहीं माना, पर स्वीकार किया कि इससे मतदाता प्रभावित होता है जो ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव पर कुठाराघात है। उसने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि राजनीतिक दलों से परामर्श कर ‘आदर्श आचार संहिता’ में संशोधन किए जाएं। आयोग ने इस संबंध में कुछ संशोधन जरूर किए हैं, परंतु वे प्रभावी नहीं हो सके।

राजनीतिक दल लोक-कल्याण का सहारा लेकर ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ करते हैं जो जनता को ठगने का नायाब तरीका है। पिछले 72 वर्षों में राजनीतिक दलों ने सुशासन के बजाय जनता को केवल ठगा है। सरकारी दफ्तर, अस्पताल, स्कूल और प्रतिष्ठान सड़ी-गली व्यवस्था के प्रतिमान हो गए हैं जिसे कोई नागरिक मजबूरी में ही प्रयोग करना चाहता है। क्यों है यह गिरावट? यदि दल और सरकारें अपने दायित्वों का निर्वहन करें और जनहित को लक्ष्य कर शासन करें तो क्या ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ की जरूरत होगी? आज जनता को यदि कर्ज माफी लुभा रही है तो कल उसे टैक्स माफी चाहिए और परसों न जाने क्या-क्या।

अकाली दल ने 2007 में पंजाब में एक रुपये किलो गेहूं, बाद में कांग्र्रेस ने पांच रुपये में खाना और भाजपा ने घी-चीनी आदि देने का वायदा अपने घोषणा-पत्रों में किया। इसी राह पर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने तमिलनाडु की भूतपूर्व मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा 2013 में शुरू ‘अम्मा कैंटीन’ की तर्ज पर ‘इंदिरा कैंटीन’ शुरू की जिसने पांच रुपये में नाश्ता और 15 रुपये में खाना दिया और उसे ‘फूड फॉर ऑल’ की दिशा में एक कदम बता कर न्यायोचित ठहराया गया। मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, दिल्ली और ओडिशा में सरकारें पहले ही इस दिशा में पहल कर चुकी हैं। जब सरकारें ऐसे प्रयोग शुरू करतीं हैं तो भूल जाती हैं कि उससे जनता पर न केवल टैक्स का बोझ बढ़ता है, बल्कि नौकरशाहों को भ्रष्टाचार का नया मौका मिलता है और भावी सरकारों के लिए नई समस्या खड़ी हो जाती है।

लेकिन मोदी सरकार के कुछ निर्णय ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ से अलग रहे। नोटबंदी से जनता में कुछ नाराजगी रही, लेकिन उससे मुद्रा का बड़ा हिस्सा औपचारिक अर्थव्यवस्था में शामिल हुआ जो पहले समानांतर अर्थव्यवस्था का हिस्सा था। जीएसटी ने भी व्यापारियों को रुलाया, लेकिन पहले जो टैक्स चोरी होती थी उस पर विराम लगा। इससे सरकारी राजस्व बढ़ा है। कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान से आयकरदाताओं की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है जो आगे उन पर करों का बोझ कम कर सकती है। ऐसे ही अनेक उपायों की वजह से आज वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी के बावजूद भारत 7.2 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। सफाई, शौचालय, स्त्री-शिक्षा और सामाजिक और पर्यावरण सुधार को एजेंडे पर लाना भी ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ के विरुद्ध ही रहा। इनसे भाजपा को चुनावी नफा-नुकसान होगा या नहीं, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन ये मुद्दे देशहित में जरूर रहे और आज दुनिया में भारत को तरजीह मिल रही है।

लोकतंत्र में जनता का समर्थन जुटाना एक चुनौती जरूर है, लेकिन उसके लिए ‘शॉर्ट कट’ और सरल रास्ता अपनाने से समर्थन तो मिल सकता है, पर उस जनता का प्यार और आशीर्वाद नहीं, क्योंकि अंतत: उससे जनता का भला नहीं होता। ऐसे में राजनीतिक दलों को लंबी राजनीतिक पारी खेलने हेतु ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ छोड़कर सच्ची जन-हितकारी राजनीति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए चाहे उसके लिए उन्हें आज कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े। उसी से समाज, देश, राजनीतिक दलों और भारतीय लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल होगा।

[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]