[ बद्री नारायण ]: भारत चुनावों का देश है। यहां कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। इसके लिए राजनीतिक दलों द्वारा रैली, सभा और घर-घर जाकर मतदाताओं से संपर्क आम बात होती है। जो दल रैलियों में जितनी भीड़ जुटा लेता है, उसे उतना ही मजबूत समझा जाता है, लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण से प्रभावित समय ने पार्टियों की गतिविधियों पर एक तरह से अंकुश लगा दिया है। इसीलिए दलों ने जनता से संपर्क साधने का वर्चुअल या ऑनलाइन तरीका निकाला है। आगामी कुछ दिनों तक बिहार विधानसभा, मध्य प्रदेश विधानसभा के उपचुनाव और अन्य चुनावों के प्रचार सीधे-साक्षात की जगह वर्चुअल तरीके से होंगे। भले ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता मास्क लगाकर और शारीरिक दूरी का ख्याल करके छोटी-छोटी बैठकें करें, लोगों से घर-घर जाकर संपर्क करें, कम लोगों के साथ रोड शो निकालें, परंतु इतना तो तय है कि प्रचार का मुख्य माध्यम वर्चुअल ही होगा। अब ऑनलाइन बैठकें होंगी और दल सोशल साइट्स एवं डिजिटल माध्यमों में प्रचार एवं ब्रांडिंग के नए-नए तरीके ईजाद करेंगे। इस प्रकार अब आने वाले कुछ दिनों तक चुनावों में संवाद एवं प्रचार की शक्ति इंटरनेट कनेक्शन एवं स्मार्टफोन में निहित हो जाएगी।

सूचना तकनीक ने संवाद को जनतांत्रिक बनाया

कुछ लोगों का मत है कि सूचना तकनीक ने संवाद को जनतांत्रिक बनाया है और जिसके पास भी स्मार्टफोन नामक जादुई डिबिया है, वह जनतांत्रिक शक्ति से लैस है। ऐसे में धन एवं बाहुबल से होने वाली गोलबंदी कमजोर होगी। यहां महान कवि ब्रेख्त की कविता याद आती है, जनरल! तुम्हारा टैंक बड़ा बलशाली है, वह जंगलों को रौंद डालता है और सैकड़ों लोगों को कुचल देता है, पर उसमें एक खामी है कि उसे एक ड्राइवर चाहिए।

तकनीक का राजनीतिक एवं व्यावसायिक फायदा उठाने की शक्ति सभी के पास नहीं 

कहने का तात्पर्य है कि आदर्श अर्थ में तकनीक हमें पूर्वाग्रह मुक्त कर सबके पास पहुंचने की शक्ति देती है, किंतु सच में तकनीक को संचालित करने एवं उसका राजनीतिक एवं व्यावसायिक फायदा उठाने की शक्ति सब में नहीं होती। वर्चुअल प्रचार के दौर में वे राजनीतिक दल आगे निकल जाएंगे, जिनके पास कार्यकर्ताओं की सुसंगठित फौज एवं आर्थिक शक्ति होगी। अगर किसी नेता की डिजिटल रैली हो रही है तो जनता को उससे जुड़ने के लिए सजग एवं सक्षम बनाना होगा। इस प्रक्रिया में उक्त रैली के बारे में फोन कर लोगों को सजग किए बिना किसी की डिजिटल रैली की सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। साथ ही कइयों को लिंक जोड़ने में मुश्किल भी हो सकती है। ऐसे में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता एवं समर्थक मददगार हो सकते हैं।

सभी के पास न तो स्मार्टफोन हैं, न ही इंटरनेट की सुविधा

भारतीय समाज अनेक स्तरों पर विभाजित समाज है। यहां सभी के पास न तो स्मार्टफोन हैं, न ही इंटरनेट की सुविधा। यदि नेशनल सैंपल सर्वे 2017-18 के आंकड़े को देखें तो लगभग 42 प्रतिशत शहरी एवं 15 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ही इंटरनेट की सुविधा मौजूद है। अगर महीने में एक बार इंटरनेट प्रयोग करने वाले को इंटरनेट की शक्ति से लैस माना जाए तो भारत में 34 प्रतिशत शहरी एवं 11 प्रतिशत ग्रामीण ही इंटरनेट की क्षमता से युक्त माने जाएंगे। स्मार्टफोन रखने एवं उसके संपूर्ण उपयोग की शक्ति भी भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के पास नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में टीवी भी सभी घरों में मौजूद नहीं है। ऐसे में इन सुविधाओं से वंचित भारतीय जनता चुनावी संवाद का हिस्सा कैसे बन पाएगी, यह विचारणीय प्रश्न है। प्रचार के डिजिटल मोड में भी लंबे समय से सत्ता से बाहर रहने वाले एवं तुलनात्मक रूप से र्आिथक रूप से कमजोर दल पिछड़ सकते हैं। जिन राजनीतिक दलों के पास दीर्घकालिक एवं चुनावी कार्यकर्ताओं की कमी है, वे भी इस कोरोना काल में चुनावी प्रचार में पिछड़ सकते हैं।

डिजिटल शक्ति के लिए राजनीतिक दलों के पास साइबर सैनिकों की फौज होनी चाहिए

बिहार चुनाव के संदर्भ में देखें तो नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग गठबंधन आर्थिक संसाधन एवं कार्यकर्ताओं के मामले में राष्ट्रीय जनता दल गठबंधन से आगे दिख रहा है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल एवं कांग्रेस लंबे समय से सत्ता से बाहर हैं। इसके कारण उनके आर्थिक कोष भी कमजोर हुए हैं। बहरहाल डिजिटल शक्ति सिर्फ स्मार्टफोन एवं इंटरनेट से ही प्रभावी नहीं हो जाती। इसके लिए राजनीतिक दलों के पास साइबर सैनिकों की एक प्रशिक्षित फौज भी होनी चाहिए। क्रिएटिव एवं डिजिटल इवेंट मैनेजर की एक सशक्त टीम ही तकनीक से बहुगुणित लाभ उठा सकती है।

कोरोना काल में चुनाव प्रचार पारंपरिक एवं अत्याधुनिक हमें प्रभावित कर सकते हैं

बिहार एवं मध्य प्रदेश के उपचुनावों में नारों की डिजिटल प्रस्तुति भी चुनावी विजय के रास्ते खोलेगी। बहुत संभव है कि कोरोना काल में होने वाले चुनावों में अत्याधुनिक प्रचार माध्यमों के साथ ही 1980 के दशक के कुछ पुराने एवं पारंपरिक प्रचार के तरीके भी लौट आएं। होर्डिंग्स के साथ ही बहुत संभव है कि दीवारों पर पर्चे भी कहीं-कहीं देखने को मिल सकते हैं। इसी तरह गाड़ियों पर लगे लाउडस्पीकर्स के माध्यम से एक कार्यकर्ता की आवाज आपके कानों में अपने उम्मीदवार का प्रचार करते सुनाई पड़ सकती है। इक्का-तांगा, ऑटो एवं मोटर गाड़ियों पर छठ के गीतों की तर्ज पर बनाए गए चुनावी गीत आविष्कृत होकर ग्रामीण इलाकों में सुनाई पड़ सकते हैं। इस प्रकार कोरोना काल में चुनाव प्रचार पारंपरिक एवं अत्याधुनिक, दोनों ही प्रचार माध्यमों का मिश्रित रूप होकर हमें प्रभावित करने हमारे सामने आ सकते हैं।

कोरोना के चलते लोग चुनावों के वक्त कहने और सुनने का अवसर पाने से भी वंचित रह जाएंगे

हालांकि भारतीय समाज में चुनाव जीत-हार के साथ ही जनतांत्रिक विमर्श के एक स्पेस के रूप में भी काम करते हैं। ऐसे में देखा जाए तो कोरोना काल में मेल-जोल पर लगे अवरोधों के कारण चुनावी संवाद का प्रसार तो प्रभावित होगा ही, कई लोग चुनावों के वक्त कहने और सुनने का अवसर पाने से भी वंचित रह जाएंगे। चैट बॉक्स में अपनी राय टाइप करने की क्षमता नहीं रखने वाले लोग इस बार जनतांत्रिक विमर्श में सिर्फ सुनते ही रहने को बाध्य होंगे। संवाद की यह एकपक्षता तभी टूटेगी, जब हमारे समाज में डिजिटल संवाद शक्ति, संसाधन एवं क्षमता बढ़ेगी।

( लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )