बिहार, आलोक मिश्रा। Bihar Politics: माना जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी दुश्मन होता है और न ही दोस्त। मौकापरस्ती अगर पास लाती है तो वही एक-दूसरे से दूर भी कर देती है। बिहार में बजट सत्र के दौरान एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जा रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद के तेजस्वी यादव की लगातार दो दिन बंद कमरे में हुई मुलाकात से फिर कुछ ऐसे ही स्वर उठने लगे हैं। हालांकि दोनों ही दल इसे औपचारिक ठहरा रहे हैं, लेकिन मन मुताबिक विश्लेषण करने वालों को अर्थ निकालने से भला कौन रोक सकता है?

भाजपा में बेचैनी बढ़ी: सो उनकी बैठकों में इसे लेकर तरह-तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं। इस चर्चा का किसी को कोई फर्क पड़े या न पड़े, लेकिन जदयू के साथ सरकार में बैठी भाजपा में बेचैनी जरूर बढ़ गई। सफाई का दौर शुरू हो गया। भले ही यह राजनीतिक बुलबुला दो दिन उठा और बैठ गया, लेकिन गणितबाजों को बहुत कुछ दे गया। बिहार में पिछले चुनाव में नीतीश महागठबंधन में थे।

नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर: भाजपा के खिलाफ प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई। नीतीश मुख्यमंत्री बने और तेजस्वी उप मुख्यमंत्री। फिर बाजी पलटी, नीतीश तो भाजपा का साथ लेकर मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन तेजस्वी बाहर हो गए। तबसे एकदूसरे के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां जारी थीं। लेकिन 25 फरवरी को बजट सत्र में सुबह से शाम तक चले घटनाक्रम ने कुछ नया हो रहा है, ऐसी सोच को धार दे दी। हुआ यूं कि बजट सत्र के दौरान नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) व नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर विपक्ष कार्यस्थगन प्रस्ताव लाया। माना जाता है कि इसे बमुश्किल स्वीकार किया जाता, लेकिन थोड़ी ही देर में इसे मंजूरी दे दी गई।

बिहार में एनआरसी लागू नहीं होगा: तेजस्वी ने बोलना शुरू किया और इसे काला कानून बता दिया। बस, फिर क्या था भाजपाई विरोध कर बैठे। दोनों दलों में हाथापाई की नौबत आ गई। सदन पंद्रह मिनट के लिए स्थगित हो गया। बाहर निकल कर तेजस्वी ने भाजपा के खिलाफ तो बोला, लेकिन नीतीश पर कोई कड़ा बयान नहीं दिया। उन्होंने इस पर दो दिन पहले नीतीश की ओर से एनपीआर के 2010 वाले प्रारूप का समर्थन किए जाने को याद दिलाया। इसके बाद विधानसभा में ही दोनों की एकांत में मुलाकात हुई और प्रस्ताव लाया गया कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होगा व एनपीआर 2010 के आधार पर ही होना चाहिए।

सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हो गया। भाजपा को भी साथ देना पड़ा। इसे लेकर राजनीतिक हलके में तरह- तरह की चर्चाएं शुरू हो गईं। राजद इसे अपनी जीत मान रहा था और सत्ता पक्ष इसे विपक्ष के मुद्दे की हवा निकालने वाला करार दे रहा था। भाजपा में भी दो मत नजर आने लगे। एक पक्ष कार्यस्थगन प्रस्ताव से लेकर एनआरसी व एनपीआर पर हुए निर्णय को सदन पूर्व तय की गई रणनीति करार देने में जुटा था तो दूसरा पक्ष इसे संदेह की दृष्टि से देख रहा था। उसका कहना था कि अगर ऐसा था तो विधायकों को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया। तरह-तरह के बयान आने लगे।

तटस्थ भाव में रहकर विवेचना करने वाले इसे राजद व जदयू के भावी गठबंधन के रूप में देखने लगे और वोटों का समीकरण समझाने लगे। इसी बीच दूसरे दिन फिर नीतीश-तेजस्वी की अकेले में मुलाकात हो गई। सदन में तेजस्वी ने नीतीश को पीएम मैटेरियल बता दिया। इससे चर्चा को और पंख लग गए। शाम होते-होते दोनों दलों के वरिष्ठ नेताओं को स्पष्ट करना पड़ा कि यह औपचारिक है, इसका कोई और अर्थ नहीं निकाला जाए।

बहरहाल इसके बाद तेजस्वी यादव फिर अपनी बेरोजगारी के विरोध में यात्रा पर निकल चुके हैं। वे जिस बस से यात्रा कर रहे हैं, जदयू उसे लेकर हमलावर है, क्योंकि बस का मालिकाना हक जिसके नाम है, जदयू के अनुसार उसकी हैसियत ही नहीं है बस खरीदने की। पत्रकार वार्ता में जदयू के मंत्रियों ने तमाम कागजात रखकर इसे साबित करने की कोशिश की और यह चेतावनी दी कि जो भी बस में बैठेगा, उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। इसी तरह इस समय लोजपा के चिराग पासवान भी यात्रा पर हैं।

दोनों में साम्य यह है कि दोनों ही नकारात्मक प्रचार से दूर हैं। एक बेरोजगारी और महंगाई को मुद्दा बना रहे हैं तो दूसरे ‘बिहार फस्र्ट-बिहारी फस्र्ट’ का नारा देने निकले हैं। आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चल निकला है। सर्दी बीत गई है। धूप अब तल्ख होने लगी है। मौसम बदल रहा और उसके साथ बिहार की राजनीति में भी गर्मी आ रही है। इस बदलते मौसम में कौन कैसे बदल जाएगा, इसका ठिकाना नहीं।

[स्थानीय संपादक, बिहार]