[ सी उदयभास्क ]: पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा हाशिये पर चली गई। उसे हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। इस जनादेश के कुछ घंटों बाद ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने 2019 में होने जा रहे आम चुनाव में भाजपा की संभावनाओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। उन्होंने मोदी के उस आभामंडल को भी कसौटी पर कसना शुरू कर दिया जिसने उनकी ऐसी छवि गढ़ी थी कि उन्हें हराना बेहद मुश्किल है। बीबीसी ने सवाल किया कि क्या इन नतीजों से मोदी को चिंतित होना चाहिए? वहीं न्यूयॉर्क टाइम्स का कहना है कि क्या भारत के प्रधानमंत्री मुश्किल में फंस गए हैं? यह उस अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के एकदम उलट है जो 2017 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली करिश्माई जीत के बाद सामने आई थी। तब प्रधानमंत्री कार्यालय के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया था कि राष्ट्रपति ट्रंप ने चुनाव नतीजों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी से बात की है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अलग-अलग पैमानों पर मतदान करते हैं, फिर भी यह भी हकीकत है कि राजनीतिक हार बड़े संकेत देती है।

चुनाव नतीजे वाले दिन इसकी बानगी भाजपा मुख्यालय पर देखने को मिली। 2014 में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद जीत के सिलसिले के बीच अब हार से उसकी गाड़ी हिचकोले खाने लगी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की अजेय होने की छवि को आघात पहुंचा है और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी भारतीय राजनीति के इस मर्म पर कान लगा रही है।

हालांकि राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्र्रेस को लेकर कोई निर्णायक निष्कर्ष निकालना एक तरह से भ्रमित करने वाला होगा, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारतीय मतदाताओं ने तमाम परंपरागत परिपाटियों को ताक पर रखते हुए एक बार फिर अपनी बुद्धि का परिचय देते हुए भारतीय लोकतंत्र के सही स्वरूप को दर्शाया है। जहां पीएम मोदी ने वैश्विक स्तर पर राजनीतिक वर्चस्व और आत्मविश्वास से ओतप्रोत अपनी एक सशक्त छवि बना ली है वहीं इन पांच राज्यों के जनादेश को लेकर मोदी-अमित शाह की चुनावी रणनीति को लेकर उपजी निराशा का संदेश भी उतना ही मजबूत है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के प्रमुख राज्यों में मतदाताओं ने भाजपा को खारिज कर दिया। यहां उसका सीधा मुकाबला कांग्र्रेस से था। इन राज्यों में एक-डेढ़ दशक से सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री भी जनता की नाराजगी की एक वजह रहे होंगे, लेकिन भाजपा से जनता के मोहभंग की जड़ें तीन बिंदुओं में तलाशी जा सकती हैं। एक तो देश भर में किसान नाराजगी जता रहे हैं जिसकी झलक हाल में देश के विभिन्न इलाकों में किसानों के तमाम आंदोलनों में देखने को मिली।

युवाओं में बेरोजगारी को लेकर असंतोष पनप रहा है और निकट भविष्य में रोजगार की कोई आस भी नहीं दिख रही। लोगों को हिंदुत्व की ऐसी विचारधारा भी रास नहीं आ रही जो हिंसक भीड़ के रूप में बदल रही है जिसके हालिया शिकार उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी बने।

यह एक तथ्य है कि 2014 में भाजपा और प्रधानमंत्री पद के उसके उम्मीदवार मोदी विकास के नारे के दम पर सत्ता में आए थे। मोदी ने जनता से अच्छे दिनों का वादा किया था जो महज एक नारा बनकर रह गया। इससे गुस्साई जनता ने अब अपने वोट से इसका जवाब दिया है। एक विरोधाभास यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी को जनता के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त है, लेकिन जनता के लिए यह समर्थन उतना फलदायी नहीं रहा। इसी जनता ने आनन-फानन नोटबंदी जैसे मोदी के कदम का पुरजोर समर्थन किया, लेकिन आम आदमी को इस कवायद का कोई लाभ मिलता नहीं दिखा। देश के प्रमुख संस्थानों को लेकर मोदी के रवैये ने भी उनकी छवि को प्रभावित किया है। या तो इन संस्थानों की साख पर प्रहार करने की कोशिश की गई या फिर नियुक्तियों में पेशेवर योग्यता पर वैचारिक प्रतिबद्धता को तरजीह दी गई।

बीते एक वर्ष के दौरान ही शीर्ष न्यायपालिका और भारतीय रिजर्व बैंक में हुए अप्रत्याशित घटनाक्रम इसके उदाहरण हैं। इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाई। इसके माध्यम से उन्होंने न्यायपालिका में कायम तमाम खामियों की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। मोदी के नेतृत्व वाली राजनीतिक कार्यपालिका यदि पूरी संवेदनशीलता के साथ इन मामलों को संभालती तो ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता था, लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर पाई।

हाल के महीनों में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर वृहद आर्थिक और राजकोषीय प्रबंधन को लेकर भी सवाल उठे हैं। इस अनपेक्षित स्थिति पर भी वैश्विक समुदाय नजर बनाए हुए है। इन्हीं परिस्थितियों में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन ने अपने पद से इस्तीफा देने में ही भलाई समझी और फिर समय के साथ सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तलवारें खिंचती गईं जिसका नतीजा भी आरबीआइ गवर्नर के इस्तीफे के रूप में निकला। कई नीतिगत मुद्दों के साथ ही अपनी स्वायत्तता को लेकर सरकार से संघर्ष कर रह रिजर्व बैैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के त्यागपत्र पर इसीलिए किसी को अचरज नहीं हुआ। पटेल ने बेहद असाधारण परिस्थितियों में इस्तीफा दिया है जो एक तरह से अपवाद ही है और देश के 70 वर्षों में इससे पहले ऐसा वाक्या तब हुआ था जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। ऐसी स्थिति में किसी सेवानिवृत्त नौकरशाह को कमान सौंपने से संस्था की प्रतिष्ठा बहाल होने की संभावना कम ही है-वह भी ऐसे व्यक्ति को जो नोटबंदी जैसी कवायद के केंद्र में रहा हो। इसमें संदेह है कि वैश्विक वित्तीय बाजार इससे उत्साहित हों।

चुनाव नतीजों पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम पूरी विनम्रता से जनादेश को स्वीकार करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन परिणामों के बाद भाजपा में आंतरिक स्तर पर गहन मंथन होगा और इसका दारोमदार भी मोदी और अमित शाह की जोड़ी पर ही होगा कि वे 2019 के आम चुनाव से पहले हालात को दुरुस्त करने के लिए उपाय करें।

हिंदुत्व कार्ड, गाय से जुड़े भावनात्मक मसले और राम मंदिर जैसे मुद्दे मतदाताओं को उम्मीद के मुताबिक प्रभावित नहीं कर पाए। यहां यह स्मरण कराना उपयोगी होगा कि 2014 में मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने संविधान के प्रति निष्ठा जताते हुए कहा था कि सरकार इस किताब से चलेगी। देश और दुनिया को इस प्रतिबद्धता को लेकर कुछ निष्ठा की अपेक्षा थी, लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाया। ऐसे में यह कहने में कोई हिचक नहीं कि देश और दुनिया में मोदी की छवि प्रभावित होगी।

( लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैैं )