डा. एके वर्मा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा निगाहें उत्तर प्रदेश पर लगी हैं, जहां न केवल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सत्ता, बल्कि 2024 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे कार्यकाल की संभावनाएं भी दांव पर हैं। ममता बनर्जी की सफलता से उत्साहित होकर विपक्षी दल कुछ वैसी ही पटकथा यूपी में तैयार करने में लगे हैं, जैसी उन्होंने बंगाल में लिखी थी। पहले मोदी और योगी के बीच मनमुटाव, फिर योगी और केशव प्रसाद मौर्य का टकराव, उसके बाद भाजपा से ब्राह्मïणों की कथित नाराजगी और अब भाजपा से पिछड़े-दलितों के पलायन को उछाला जा रहा है, लेकिन यह पटकथा चुनावी बाक्स आफिस पर हिट होगी या फ्लाप?

कितना प्रभावी होगा चुनाव पूर्व पलायन

चुनावों के मौके पर स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान समेत करीब दस भाजपा नेता सपा में चले गए। इससे भाजपा के विरुद्ध 'माहौल' बना तो जरूर, लेकिन मतदाता जानता है कि ऐसे जो दलबदल हो रहे हैं, वे किसी सैद्धांतिक आधार पर नहीं, वरन निज स्वार्थ हेतु किए जाते हैं। क्या ऐसे नेताओं के निष्ठा परिवर्तन से उनके समर्थक भी अपनी दलीय निष्ठाएं बदलते हैं? ऐसे भ्रम का निवारण बीते आम चुनावों में हुआ, जब यूपी में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। तब अखिलेश और मायावती भी अपने समर्थकों को अपने साथ न रख सके थे तो छोटे नेताओं की क्या हैसियत?

पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले नेता भूल जाते हैं कि उन जातियों के युवाओं में भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं। क्या केवल एक नेता के परिवार के लोग ही आगे बढ़ेंगे या उस समाज से और लोगों को भी आगे बढऩे का अवसर मिलेगा? क्या यह सत्य नहीं कि भाजपा छोडऩे वाले नेता अपना और अपने संबंधियों को टिकट न मिलने को लेकर आशंकित थे? पिछले माह भाजपा संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने इसका संकेत यह कहकर दिया था कि अपने को बदलिए नहीं तो बदलाव होगा।

पिछड़ों को साधने का भाजपाई गणित

उप्र के पिछले चुनावों में भाजपा ने अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रदेश में उनकी जनसंख्या के अनुपात में टिकट दिया था। इस रणनीति में पार्टी संभवत: कोई परिवर्तन नहीं करेगी। यदि अति पिछड़ी जातियों जैसे कुशवाहा, कहार, मल्लाह, निषाद, लोहार, गड़रिया, मोची, विश्वकर्मा, बिंद, सैनी, मौर्या आदि को 'पिछड़ों में अगड़ीÓ जातियों जैसे कुर्मी, गिरी, गूजर, गोसाईं, लोध, यादव आदि संग संतुलन बना कर पार्टी टिकट बांटती है, जैसा कि अभी तक जारी सूची से लगता है तो पिछड़े वर्ग के नेताओं के पलायन के बावजूद संभवत: भाजपा के प्रति इस वर्ग की निष्ठा में कोई परिवर्तन नहीं होगा।अनेक समीक्षक विधायकों के भाजपा छोडऩे पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन वे भाजपा से जुडऩे वाले पिछड़ा वर्ग के विधायकों जैसे नरेश सैनी, हरीओम यादव और पूर्व सपा विधायक धर्मपाल सिंह का उल्लेख नहीं कर रहे। वे पार्टी से जुडऩे वाले नए सामाजिक वर्गों का भी संज्ञान नहीं ले रहे। 2014 से यूपी में भाजपा का जनाधार लगातार बढ़ रहा है। यदि 2007 और 2012 विधानसभा चुनावों में 15-16 प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा को 2014, 2017 और 2019 में 40 से 50 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं तो यह समझना जरूरी है कि विपक्षी दलों द्वारा सामूहिक रूप से आक्रामक होने के बावजूद भाजपा के जनाधार में लगातार वृद्धि क्यों हो रही है? प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने राजनीतिक स्पर्धा का व्याकरण बदल दिया है। काफी समय से यूपी में अस्मिता की राजनीति हावी थी और जातीय अस्मिता के आधार पर राजनीतिक दलों में स्पर्धा होती थी। आज भी जातियां अप्रासंगिक नहीं हैं, लेकिन राजनीतिक स्पर्धा में जाति का स्थान वर्ग ले रहा है। आज युवा, महिलाएं, किसान, मध्य वर्ग, मजदूर, कन्याएं, विद्यार्थी, ग्रामीण, गरीब, गरीबी रेखा से नीचे वाले, पटरी-ठेले वाले, वंचित, शोषित आदि विमर्श के केंद्र में हैं- न केवल यूपी में, बल्कि अन्य राज्यों में भी। इससे शासन-प्रशासन उनके कल्याण और विकास हेतु और प्रतिबद्ध हुआ है। इसने अस्मिता की राजनीति की जगह समावेशी राजनीति की शुरुआत की है। इससे समाज का निचला तबका खिसक कर भाजपा की ओर चला गया है।

सीधे लाभ से बदला मतदाताओं का मानस

वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने जीरो बैलेंस पर गरीबों का जनधन खाता खुलवाना शुरू किया था। तब से जनवरी 2022 तक 44 करोड़ जनधन खातों में डेढ़ लाख करोड़ रुपये जमा हैं। यह गरीबों का वह पैसा है जो विभिन्न योजनाओंं से सीधे उन्हें अपने खाते में मिला। जिन गरीबों, महिलाओं, कन्याओं, दिव्यांगों, किसानों, विधवाओं, श्रमिकों आदि को पैसे अपने खाते में नियमित मिल रहे हैं, उन्हें जाति दिखाई देगी या वित्तीय सुरक्षा? सरकारी योजनाओं का लाभ जाति, मजहब, क्षेत्र, भाषा आदि के भेदभाव के बिना सभी गरीबों को सच में मिला है। इसने समावेशी राजनीति के नारे 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वासÓ को वास्तविकता में बदल दिया है, पर अभी भी हम कुछ नेताओं के दलबदल के आधार पर लोगों के मतदान व्यवहार का विश्लेषण करने में लगे हुए हैं।

कोविड महामारी के कुप्रबंधन पर लोग सरकार से नाराज हुए थे, पर जैसे-जैसे विकसित देशों से विभीषिका की खबरें आईं तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी महामारी से कोई भी सरकार कुछ ऐसे ही निपटती। इस महामारी के दौरान सरकार, शासक दल और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा लोगों को राहत पहुंचाने में जो सक्रियता दिखाई गई, उससे गरीब मतदाता उनके प्रति कृतज्ञता महसूस करता है, जबकि विपक्षी दलों की निष्क्रियता से मतदाता उनके प्रति कुछ उदासीन है।

मुस्लिम समाज में भी तीन तलाक पर मुस्लिम महिलाएं, नई रोशनी योजना से मुस्लिम छात्राएं और विभिन्न विकास योजनाओं से पसमांदा मुस्लिमों ने भाजपा की ओर अपना झुकाव दिखाया है। यही बात दलितों के साथ हुई है। कानून-व्यवस्था पर योगी सरकार की सख्ती से गांव-देहात और छोटे शहरों में आए दिन होने वाली दबंगई और गुंडई से समाज के सभी लोगों, खासतौर से दलितों, गरीबों को बहुत राहत मिली है। भाजपा की चुनावी रणनीति के केंद्र में व्यापक जनाधार है, द्वितीय या तृतीय स्तर के नेता नहीं। इसलिए चुनाव के मौके पर अवसरवादी नेताओं का पलायन जनता के मतदान व्यवहार पर कोई विशेष प्रभाव दिखाएगा, इसमें संदेह है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)