[ राजीव सचान ]: आम जनता के लिए यह जानना कठिन है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच जारी संघर्ष में किसका पक्ष सही है? चूंकि इन दोनों शीर्ष अफसरों ने एक-दूसरे पर रिश्वत खाने के आरोप लगाए हैैं इसलिए कम से कम से सीबीआइ इसकी जांच न ही करे तो बेहतर। दोनों में कौन सही है और कौन गलत, इसकी जांच तो सीबीआइ से इतर किसी संस्था, जैसे दिल्ली पुलिस के जरिये होनी चाहिए और जब तक यह जांच हो तब तक उक्त दोनों ही अधिकारियों को छुट्टी पर भेज देना चाहिए। हालांकि सीबीआइ निदेशक का कार्यकाल तय होता है, लेकिन क्या संबंधित नियम यह भी कहता है कि संस्था की गरिमा गिराने में भागीदार निदेशक के खिलाफ कुछ नहीं किया जा सकता?

सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा की मानें तो विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने मांस निर्यातक मोइन कुरैशी के मामले की जांच रफा-दफा करने के लिए तीन करोड़ रुपये की घूस ली। पता नहीं इसमें कितना सच है, क्योंकि राकेश अस्थाना ने आलोक वर्मा को कठघरे में खड़ा करते हुए उन पर भी रिश्वत लेने और कुछ मामलों की जांच प्रभावित करने के आरोप मढ़े हैैं।

चर्चा है कि प्रधानमंत्री ने सीबीआइ के शीर्ष पर जारी जंग को थामने के लिए हस्तक्षेप किया है, लेकिन लगता नहीं कि दोनों की लड़ाई थमने वाली है। दोनों उच्च न्यायालय पहुंच गए हैैं। उच्च न्यायालय से उनकी लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंच जाए तो हैरत नहीं। अगर सीबीआइ के भीतर का झगड़ा जल्द शांत नहीं हुआ तो उसके साथ-साथ सरकार की भी फजीहत होते रहना तय है। पता नहीं दिल्ली उच्च न्यायालय सीबीआइ के शीर्ष अफसरों के बीच की लड़ाई खत्म करने में सक्षम होगा या नहीं? अगर वह सक्षम हो जाए तो भी सीबीआइ पर आम लोगों का विश्वास आसानी से बहाल होने वाला नहीं।

आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना में जिन कारणों से जंग छिड़ी है उनमें एक बड़ा कारण मांस निर्यातक मोइन कुरैशी से जुड़ा है। मोइन कुरैशी पर आयकर छिपाने के साथ हवाला कारोबार में लिप्त होने के आरोप हैैं। पिछले लोकसभा चुनाव के समय खुद नरेंद्र मोदी ने ऐसे आरोप लगाए थे कि सत्ता के संरक्षण के चलते मोइन कुरैशी के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है। क्या यह अजीब नहीं कि चार साल बीत गए और सीबीआइ अभी तक मोइन कुरैशी के खिलाफ जांच पूरी नहीं कर सकी है? आखिर यह जांच एजेंसी का नाकारापन नहीं तो और क्या है? इस नाकामी से तो यही लगता है कि मोइन कुरैशी अपने खिलाफ जारी जांच को प्रभावित करने में सक्षम हैैं। यह पहले भी लगता था, लेकिन अब और अधिक लगता है कि घूस देकर सीबीआइ जांच को प्रभावित किया जा सकता है।

इस पर गौर करें और हैरान भी हों कि मोइन कुरैशी से मिलीभगत के आरोप में राकेश अस्थाना तीसरे सीबीआइ अफसर हैैं जो संदेह के घेरे में हैैं। इसके पहले सीबीआइ के दो पूर्व निदेशकों-एपी सिंह और रंजीत सिन्हा के दामन पर भी मोइन कुरैशी के दाग लग चुके हैैं। यह हास्यास्पद है कि जो व्यक्ति 2014 से आयकर विभाग और सीबीआइ की निगाह में था उसका चार साल बाद भी बाल बांका नहीं हुआ। आखिर क्यों? क्या इसलिए कि सत्ता बदल जाने के बाद भी मोइन कुरैशी सीबीआइ में पैठ बनाने में सक्षम रहे? क्या उनके मामलों की जांच इतनी पेचीदा थी कि देश की शीर्ष जांच एजेंसी चार साल बाद भी एक तरह से खाली हाथ तो है ही, अपनी फजीहत भी करा रही है?

सीबीआइ को एक स्वायत्त जांच एजेसी के तौर पर जाना जाता है, लेकिन सच्चाई इसके उलट ही जान पड़ती है। आम धारणा यही है कि वह सरकार के रुख के हिसाब से काम करती है। उसकी छवि और कार्यप्रणाली में किसी तरह के उल्लेखनीय बदलाव के बारे में कुछ कहने के लिए कुछ भी नहीं, क्योंकि भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच में उसका रिकार्ड पहले की ही तरह खराब है और मोइन कुरैशी के मामले में उसकी छीछालेदर स्वत: सब कुछ स्पष्ट कर दे रही है। नि:संदेह मोइन कुरैशी का मामला इकलौता या अपवाद नहीं जो निस्तारित होने का नाम न ले रहा हो। ऐसे मामलों की संख्या अच्छी-खासी है।

कांग्रेसी नेता पी चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम की सीबीआइ जांच की गति देखकर इसी नतीजे पर पहुंचने का मन करता है कि यह जांच अनंतकाल चलती रहेगी। दरअसल अगर अपने देश में कोई रसूखदार है तो सीबीआइ भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। आज अगर सीबीआइ की छीछालेदर हो रही है तो महज इसलिए नहीं कि उसके दो आला अफसर आपस में उलझे हुए हैैं, बल्कि इसलिए भी हो रही है कि देश की इस सबसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसी के काम-काज के तौर-तरीकों में सुधार के कोई ठोस प्रयास नहीं हुए। जो थोड़े-बहुत हुए भी वे सुप्रीम कोर्ट की पहल पर।

जैसे सीबीआइ में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ वैसे ही पुलिस में भी नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद भी नहीं हुआ। पुलिस सुधारों के मामले में राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्र सरकार की हीलाहवाली से आजिज आकर कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट को राज्यों के पुलिस प्रमुखों का कार्यकाल नियत करने वाली व्यवस्था बनानी पड़ी।

सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस सुधार संबंधी सात सूत्रीय दिशा निर्देश जारी किए थे, लेकिन उनका पालन अब तक नहीं हो सका है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि ये दिशानिर्देश जटिल थे, बल्कि इसलिए हुआ कि सभी राजनीतिक दल इसके लिए तैयार ही नहीं हुए। आज जो राजनीतिक दल सीबीआइ में झगड़े को लेकर मोदी सरकार पर कटाक्ष कर रहे हैैं वे वही हैैं जो पुलिस सुधारों के बारे में बोलने से बचते हैैं। पुलिस सुधारों के मामले में जैसा रवैया मनमोहन सरकार का रहा वैसा ही मोदी सरकार का भी। समस्या केवल यह नहीं कि सीबीआइ और पुलिस में सुधार के उपाय ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैैं। समस्या यह है कि प्रशासनिक सुधार के उपाय भी ठंडे बस्ते में हैैं।

मनमोहन सरकार ने जब 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया था तब उसे इसलिए बेहद महत्वूपर्ण माना गया था, क्योंकि इसके पहले प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग 1967 में बना था। वीरप्पा मोइली ने तीन साल की मेहनत के बाद 2008 में अपनी सिफारिशें मनमोहन सरकार को सौंप दीं। उन्होंने उनकी सुधि नहीं ली। कहना कठिन है कि अब वे किसी ठंडे बस्ते में भी मिलेंगी या नहीं?

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]