[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: पंजाब एंड महाराष्ट्र बैैंक यानी पीएमसी बैंक घोटाले में यह सामने आया कि उसने घाटे में चल रही कंपनियों को कर्ज दिए और उन्हें फर्जी नाम से छुपा लिया। इसी तरह महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव बैंक ने घाटे में चल रही सहकारी चीनी मिलों को संदिग्ध कर्ज दिए। इन मिलों से शरद पवार का गहरा जुड़ाव रहा है। बैंक के निदेशक उनके भतीजे अजीत पवार थे। इसीलिए माना जा रहा है कि अजीत के दखल से ही ये कर्ज दिए गए। आखिरकार ये कर्ज खटाई में पड़ गए। ऐसी गड़बड़ियां बैंक अधिकारियों की जानकारी से होती हैं और रिजर्व बैंक चाहे तो उन पर नियंत्रण लगा सकता है।

उद्यमियों द्वारा बैंकों को गुमराह करना

दूसरी गड़बड़ियां वे हैं जो उद्यमियों द्वारा बैंकों को गुमराह कर अंजाम दी जाती हैं। जैसे आइएलएंडएफएस द्वारा देश के तमाम बैंकों को बड़ी चतुराई से पर्दे के पीछे सहायक कंपनियां बनाकर गुमराह किया गया। इन सहायक कंपनियों को सब्सिडियरी कहा जाता है। सब्सिडियरी के शत प्रतिशत शेयर मूल या प्रवर्तक कंपनी के हाथ में होते हैं। इन सहायक कंपनियों की स्थिति किसी व्यक्ति के स्वामित्व वाली फर्म के समान होती है। इन तिकड़मी उद्यमियों की मूल कंपनी पाक साफ रहती है। वह बैंकों से कम कर्ज लेती है, लेकिन सहायक कंपनियों द्वारा बैंकों से बड़े पैमाने पर कर्ज लेकर उसकी बंदरबांट की जाती है। सब्सिडियरी को होने वाला घाटा छिपा रहता है। मूल कंपनी लाभ में दिखाई जाती है जबकि असल में पूरे समूह की तस्वीर बदरंग होती है।

सब्सिडियरी कंपनियों के नाम पर भारी-भरकम कर्ज

मैंने आइएलएंडएफएस के समकक्ष एक बड़ी कंपनी का अध्ययन किया। इस कंपनी द्वारा स्वयं बैंकों से बहुत कम कर्ज लिया गया। उसके कर्ज का यह आंकड़ा महज 2,400 करोड़ रुपये है, पर उसकी सब्सिडियरी कंपनियों पर कर्ज का अंबार लगा है। यह बिल्कुल वैसे है जैसे किसी संयुक्त परिवार के मुखिया ने अपने पुत्र के नाम से दुकान बनाई। पिता ने स्वयं बैंक से कर्ज नहीं लिए, लेकिन पुत्र के नाम से भारी कर्ज उठा लिए। इसी प्रकार इस कंपनी के मुखिया ने अपनी मूल कंपनी के लिए तो उतने कर्ज नहीं लिए, लेकिन सब्सिडियरी कंपनियों के नाम पर 71,600 करोड़ रुपये का भारी-भरकम कर्ज ले लिया।

कर्ज मूल कंपनी को ठेकों के माध्यम से स्थानांतरित

बैंकों से ली गई रकम को ये सब्सिडियरी कंपनियां अपनी मूल कंपनी को ठेकों के माध्यम से स्थानांतरित कर देती हैं। जैसे पुत्र ने बैंक से कर्ज लिए और उस रकम को अपने पिता को ठेके के माध्यम से हस्तांतरित कर दिया। कर्ज तो पुत्र के नाम रह गया, जबकि पिता को भारी लाभ हुआ। इसी तर्ज पर इस कंपनी की सब्सिडियरी द्वारा बैंकों से 3,493 करोड़ रुपये का कर्ज लिया गया और इसमें 3,067 करोड़ रुपये अपनी मूल कंपनी को स्थानांतरित कर दिए। यहां कर्ज तो सब्सिडियरी के खाते में रह गया, पर मूल कंपनी की परिसंपत्तियां बढ़ गईं। ऐसी ही एक सब्सिडियरी कंपनी उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजना विकसित कर रही है। उसने परियोजना निर्माण के सभी अनुबंध अपनी मूल कंपनी को दिए हुए हैं। सब्सिडियरी द्वारा महीने में कुल 18 हजार यूनिट बिजली खपत की जा रही है जबकि मूल कंपनी इससे 80 गुना यानी 14 लाख यूनिट बिजली उपभोग कर रही है।

परियोजना को विकसित करती है मूल कंपनी और नाम सब्सिडियरी का होता है

स्पष्ट है कि मूल कंपनी ही मुख्य रूप से इस परियोजना को विकसित कर रही है और नाम सब्सिडियरी का है। यह कुछ वैसी बात हुई जैसे पिता ने स्वयं दुकान लगाई, लेकिन कागजों में दुकान बेटे के नाम कर दी। सब्सिडियरी के माध्यम से परियोजना को विकसित करने का उदेश्य यह है कि उसमें हो रहे घाटे को छुपाया जा सके। जैसे दुकान में घाटा हुआ तो भी पिता दिखा सकता है कि घाटा उसे नहीं, बल्कि बेटे को हुआ है।

घाटे पर पर्दा डाला जा रहा

इस जल विद्युत परियोजना की वास्तविक लागत 535 करोड़ रुपये है, लेकिन वर्तमान में यह लागत 2,000 करोड़ तक पहुंच गई है। परियोजना घाटे में आ गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ रकम नंबर 2 में निकाल ली गई है, लेकिन इस घाटे को सब्सिडियरी के खाते में छिपा दिया गया। जैसे संयुक्त परिवार द्वारा धंधा चलाया जा रहा है और उसमें घाटा हो रहा है, परंतु इस घाटे पर पर्दा डाला जा रहा है। कुछ ऐसी ही हालत उक्त कंपनी की दूसरी सब्सिडियरी की दिखती है। यह स्थिति कंपनी और सब्सिडियरियों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है।

सब्सिडियरियों के लाभ न्यून और उन पर कर्ज का अंबार

मूल कंपनी का वार्षिक लाभ 9,200 करोड़ रुपये है जबकि सभी सब्सिडियरियों का कुल लाभ केवल 5,400 करोड़ रुपये है, लेकिन मूल कंपनी द्वारा मात्र 2,400 करोड़ रुपये का कर्ज लिया गया है, जबकि सभी सब्सिडियरियों द्वारा कुल 71,600 करोड़ रुपये का भीमकाय कर्ज लिया गया। मूल कंपनी के लाभ अधिक और कर्ज शून्यप्राय हैं, जबकि सब्सिडियरियों के लाभ न्यून और उन पर कर्ज का अंबार लगा हुआ है। वहीं शेयर बाजार को यही दिखता है कि इस विशाल कंपनी ने केवल 2,400 करोड़ रुपये का कर्ज लेकर 9,200 करोड़ रुपये का लाभ कमाया है।

सब्सिडियरियों की कमजोर हालत किसी को दिखती नहीं

सब्सिडियरियों की कमजोर हालत किसी को दिखती नहीं है, लेकिन एक दिन इस साठगांठ का भंडाफोड़ हो ही जाता है। ऐसा ही आइएलएंडएफएस प्रकरण में हुआ, जहां पर्दे के पीछे का यह खेल ज्यादा दिनों तक छिप नहीं पाया। अंतत: इन्हीं घाटों के बोझ तले कंपनी डूब गई। आइएलएंडएफएस की तरह ऐसी तमाम मूल कंपनियों का यह खेल समाप्त होगा और उस समय देश के वे तमाम बैंक एक बड़े संकट में आ जाएंगे जिन्होंने सब्सिडियरियों को भारी मात्रा में कर्ज दे रखे हैं।

सब्सिडियरियों को कर्ज देते समय उनकी पूंजी का मूल्यांकन नहीं होता

बैंकों की गलती यह होती है कि वे सब्सिडियरियों को कर्ज देते समय उनकी स्वयं की पूंजी का मूल्यांकन नहीं करते। मूल कंपनी को हो रहे आकर्षक लाभ और उसकी पळ्रानी विश्वसनीयता पर भरोसा करके बैंक सब्सिडियरियों को लगातार कर्ज देते जाते हैं। यही प्रक्रिया बैंकों ने आइएलएंडएफएस के साथ अपनाई थी। यदि बेटे की दुकान पर निरंतर कर्ज चढ़ता जाए और बैंक उसके पिता की विश्वसनीयता के आधार पर कर्ज देते जाएं तो कहानी ज्यादा दिन नहीं चल सकती। देश में ऐसी तमाम कंपनियां हैं जिन पर केंद्र सरकार को ध्यान देना चाहिए जिससे आइएलएंडएफएस जैसा संकट दोबारा दस्तक न दे।

सब्सिडियरियों का चक्रव्यूह आसानी से नहीं दिखता

सरकार को चाहिए कि उन कंपनियों को चिन्हित करें जो खुद तो मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन उनकी सब्सिडियरी भारी घाटे में हैं। ऐसी कंपनियों की तत्काल गहन जांच करनी चाहिए। देश की बैंकिंग व्यवस्था को ऐसी बड़ी कंपनियों के चक्रव्यूह से निकालने की जरूरत है। पंजाब महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक एवं महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव बैंक द्वारा बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से घाटे में चल रही कंपनियों को कर्ज दिए जाने पर भी नियंत्रण करना होगा, परंतु यह नियंत्रण तुलना में आसान है। अनियमित कर्ज देने की गड़बड़ी दिख जाती है, जबकि सब्सिडियरियों का चक्रव्यूह आसानी से नहीं दिखता। इसे सुलझाना होगा।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )