[डॉ. स्वर्ण सिंह]। सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ समुद्र तट पर स्थित खूबसूरत शहर सोची में अनौपचारिक शिखर वार्ता में शामिल होंगे। विदेश मंत्रालय के अनुसार इस शिखर वार्ता में दोनों नेता अंतरराष्ट्रीय मामलों पर अपने दूरगामी दृष्टिकोण को साझा करेंगे और अपनी विशेषाधिकार प्राप्त सामरिक साझेदारी को सुदृढ़ कर प्रगति की ओर ले जाने की कोशिश करेंगे। इस शिखर वार्ता का फैसला अचानक नहीं हुआ। इसकी तैयारी काफी समय से चल रही थी।

पूर्व विदेश सचिव एस जयशंकर के मार्च में हुए रूस दौरे के बाद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के अलावा विदेश सचिव विजय गोखले के साथ ही भाजपा महासचिव राम माधव की रूस यात्राएं भी प्रधानमंत्री के इस दौरे को सिरे चढ़ाने के सिलसिले में हुईं। 10 मई को मॉस्को में विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और रूस की सुरक्षा परिषद के सचिव निकोलाई पेट्रोशेव के साथ भारत के विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की बातचीत में इस अनौपचारिक शिखर वार्ता की अंतिम रूपरेखा तैयार की गई।

सवाल है कि यह शिखर वार्ता इस समय क्यों? इसका जवाब यही हो सकता है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट नीति' के चलते भारत को चीन और रूस से अपने संबंध सुधारने की जरूरत महसूस हो रही थी। इसीलिए चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ वुहान में हुई अनौपचारिक शिखर वार्ता के ठीक तीन सप्ताह बाद सोची वार्ता होने जा रही है। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति पुतिन से सितंबर, 2017 में श्यामन में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान मिले थे और 2000 से चल रही सालाना औपचारिक शिखर वार्ता की शृंखला में जून, 2017 में सेंट पीटर्सबर्ग में मिले थे। उसके बाद दोनों नेताओं की कई बार फोन पर बातचीत हुई। आखिरी ऐसी बातचीत पुतिन के पुनर्निर्वाचन के बाद अप्रैल में हुई थी।

रासायनिक हथियारों के निषेध से संबंधित संगठन की सीरिया में बशर अल असद के रासायनिक हथियारों की जांच से जुड़ी बैठक में भारत शामिल तो रहा, लेकिन उसने प्रस्ताव के पक्ष-विपक्ष में कोई मतदान नहीं किया। तबसे भारत लगातार रूस से तालमेल बढ़ाने में सक्रिय रहा है। एक ऐसे समय जब भारतीय प्रधानमंत्री दो सप्ताह बाद सिंगापुर में हो रहे एशिया प्रशांत देशों के शांग्रीला डायलॉग में पहली बार शामिल होंगे तब रूसी राष्ट्रपति से उनकी मुलाकात काफी उत्सुकता जगाने वाली है। यह भी ध्यान रहे कि दोनों नेता अगले माह चीन के शहर छिंगताओ में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में, जुलाई में दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में और फिर नवंबर में अर्जेंटीना में हो रहे जी-20 शिखर सम्मेलन में मुलाकात करेंगे। इसके अलावा राष्ट्रपति पुतिन वर्ष 2000 से चल रहे भारत-रूस शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने अक्टूबर में भारत आएंगे। इन सभी पूर्व नियोजित मुलाकातों के बावजूद सोची शिखर सम्मेलन के पीछे भारत की क्या जरूरत हो सकती है?

पहली बात तो यह है कि भारत और रूस की विदेश नीतियों की दिशा में बढ़ता अंतर चिंता का कारण बना हुआ है। रूस का चीन और पाकिस्तान की ओर बढ़ता हालिया रुझान भारत को दक्षिण एशिया में भी हाशिये की ओर धकेल रहा है। रूस हमेशा से भारत के लिए रक्षा उपकरणों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है, परंतु अब वह चीन और पाकिस्तान को हथियार मुहैया करा रहा है। एक बेहद जटिल तकनीक वाली लंबी दूरी की वायु रक्षा मिसाइल, एस400ट्रायंफ पाकिस्तान को मिलने की संभावना भारत के लिए सामरिक अस्थिरता बढ़ाने वाली साबित हो सकती है। भारत भी इस मिसाइल को लेने की कोशिश में है, लेकिन अगस्त 2017 में बनाए गए अमेरिकी कानून ‘काउंर्टंरग अमेरिकन एडवर्सरीज थ्रू सेंक्शंस एक्ट’ के चलते यह सौदा अधर में लटक गया है। इस कानून का असर दो अरब डॉलर वाले अकूला-क्लास पनडुब्बी सौदे के साथ-साथ रूसी फ्रिगेट, हेलीकॉप्टरों और हाल में शुरू किए गए संयुक्त उपक्रमों पर भी पड़ सकता है। इसके अलावा रूसी रक्षा उपकरणों के 48 कलपुर्जों को भारत में बनाने की योजना भी खटाई में पड़ सकती है।

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का रूस से रक्षा उपकरणों का आयात पिछले पांच वर्षों में 79 प्रतिशत से घटकर 62 प्रतिशत रह गया है। पश्चिमी देशों से किए गए कई रक्षा सौदों के चलते रूस से रक्षा सामग्री का आयात और कम हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में रूस से रक्षा उपकरण आयात की कोई भी बड़ी योजना क्रियान्वित नहीं हो पाई है। अमेरिका के उक्त कानून का असर रूस की हथियार निर्माता कंपनियों पर भी पड़ेगा। जाहिर है कि इस अनौपचारिक सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय मामलों के साथ-साथ भारत और रूस की सदाबहार दोस्ती में पुरानी गर्मजोशी लाना ही सबसे ऊपर होगा। इसके लिए रक्षा सहयोग में नई जान फूंकना जरूरी हो जाएगा। इसके अलावा दोनों नेताओं की निजी नजदीकी और आपसी तालमेल पर भी जोर रहेगा। दुनिया की बड़ी शक्तियों के दमदार नेता अब अनौपचारिक वार्ता के जरिये ही मामलों को सुलझाने को वरीयता देने लगे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में इसकी शुरुआत उनके शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही हो गई थी जिसमें दक्षिण एशिया के सभी नेताओं को निमंत्रित किया गया था। इस साल गणतंत्र दिवस समारोह पर भी दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के दस नेताओं को एक साथ आमंत्रित किया गया। 2015 में साल की शुरुआत राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ ‘चाय पर चर्चा’ से हुई तो साल के अंत में क्रिसमस पर प्रधानमंत्री काबुल से लौटते वक्त अचानक लाहौर में रुक गए। वहां नवाज शरीफ की नाती की शादी में शामिल होना उनकी व्यक्तिगत कूटनीति वाली शैली का ही उदाहरण था। सोची में भी उनका यही अंदाज देखने को मिलेगा। इसमें भले ही सभी मामले न सुलझें, लेकिन व्यक्तिगत गर्मजोशी और तालमेल का प्रदर्शन जरूर देखने को मिलेगा। दोनों देशों के बदलते रुख के कुछ परिणाम तो पहले ही देखे जा सकते हैं।

पिछले कुछ वर्षों से शिथिलता के शिकार हुए भारत-रूस द्विपक्षीय व्यापार व्यापार में बीते वर्ष 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और इसका भारत के यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन से रिश्तों पर अच्छा असर पड़ रहा है। हाल में राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा एकाएक ईरान परमाणु समझौते को खारिज कर देने और इजरायल में अपना दूतावास यरूशलम स्थानांतरित कर देने से पश्चिम एशिया में रूस की अहमियत अचानक और बढ़ गई है। साफ है कि इन बदलते हुए भू-राजनीतिक समीकरणों में भारत सामरिक स्वायत्तता के सिद्धांत पर चलते हुए रूस के साथ रिश्तों को नए सिरे से साधने की कोशिश करेगा।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कूटनीति के प्रोफेसर हैं)