[ राजीव सचान ]: हीरा कारोबार के नाम पर हेराफेरी करने वाला नीरव मोदी अपने मामा मेहुल चोकसी के साथ बीते साल की शुरुआत में देश से बाहर भाग गया था। इन दोनों की फरारी के कुछ समय बाद यह सामने आया कि उन्होंने किन बैंकों से कितना कर्ज ले रखा था। सबसे ज्यादा चूना लगा पंजाब नेशनल बैंक को। पहले बताया गया कि इन मामा-भांजे ने पंजाब नेशनल बैंक से करीब 10 हजार करोड़ रुपये की ठगी की है, लेकिन फिर जब कुछ और बैंकों ने खुद को ठगे जाने की सूचना दी तो डूबी रकम बढ़कर 13 हजार करोड़ रुपये के आसपास पहुंच गई। इसके बाद रिजर्व बैंक भी सक्रिय हुआ और भारत सरकार भी।

रिजर्व बैंक ने आनन-फानन में सरकारी बैंकों के नियम बदले

रिजर्व बैंक ने आनन-फानन में सरकारी क्षेत्र के बैंकों के नियमन संबंधी नियम बदले और यह प्रतीति कराई कि अब सब कुछ नियंत्रण में आ गया है, लेकिन यह सच नहीं था और इसका प्रमाण मिला पंजाब एंड सिंध बैंक की ओर से दी गई इस सूचना से कि 44 करोड़ रुपये न चुकाने वाले मेहुल चोकसी को विल्फुल डिफॉल्टर घोषित किया जा रहा है। विल्फुल डिफॉल्टर यानी कर्ज चुकाने में मक्कारी करने वाला। सरकारी क्षेत्र के बैंक ऐसे मक्कार कर्जखोरों से त्रस्त हैं। इनमें से तमाम विदेश भाग गए हैैं। इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसी के साथ बढ़ रही है एनपीए की राशि। एनपीए यानी फंसा हुआ कर्ज। बैंक एक सीमा के बाद इस फंसे कर्ज को बट्टे खाते में डालने को मजबूर होते हैं।

सरकारी बैंकों ने कर्ज बट्टे खाते में डाल दिए

कुछ समय से ऐसी खबरें आ रही हैं कि बैंकों का एनपीए कम हो रहा है, लेकिन इन खबरों का आधार फंसे कर्जों की वसूली कम, बल्कि उन्हें बट्टे खाते में डालना अधिक है। यह खबर पिछले हफ्ते ही आई है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने पिछले तीन वर्षों में 2.75 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में डाल दिए। इन बैंकों में सबसे अव्वल रहा भारतीय स्टेट बैंक जिसने दो सौ से अधिक डिफॉल्टरों के 76,600 करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में डाले। जिनके फंसे कर्ज बट्टे खाते में डाले गए उन पर सौ करोड़ रुपये या इससे अधिक लोन बाकी था। लगता नहीं कि यह सिलसिला थमने वाला है। रिजर्व बैंक की तमाम चौकसी और सरकार की सख्ती के बाद भी बैंकों की हालत सुधरने का नाम नहीं ले रही है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे पहले कभी चाकू की नोक पर बैैंक लूटे जाते थे वैसे ही अब लोन के नाम पर बैैंक लूटे जा रहे हैैं। विडंबना यह है कि जो जितना बड़ा कर्जदार होता है उसके खिलाफ कार्रवाई उतनी ही मुश्किल होती है।

बैैंक अभी भी रिजर्व बैैंक से सूचनाएं छिपाने में लगे हुए हैैं

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि बैैंक अभी भी रिजर्व बैैंक से सूचनाएं छिपाने में लगे हुए हैैं। क्या यह संभव है कि पंजाब एंड सिंध बैंक को पिछले हफ्ते ही यह पता चला हो कि मेहुल चोकसी नामक कारोबारी 44 करोड़ का कर्ज चुकाने में आनाकानी कर रहा है? आखिर इस बैैंक ने तभी इस बारे में क्यों नहीं बताया जब मेहुल के देश से भाग जाने की खबर आई थी? क्या बैंक अधिकारियों को यह भरोसा था कि मेहुल भाई समय पर कर्ज चुका देंगे?

सहकारी बैंकों की कार्यप्रणाली पर जवाब

ये वे सवाल हैं जिनके जवाब सरकार के साथ ही रिजर्व बैंक को भी देने होंगे। सरकार और रिजर्व बैंक को सहकारी बैंकों की कार्यप्रणाली को लेकर भी जवाब देने होंगे, क्योंकि पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैैंक के खाताधारक सड़क पर हैैं। सब जानते हैैं कि नोटबंदी के समय ही यह सामने आ गया था कि सहकारी बैैंक नियम-कानूनों की अनदेखी करने में कहीं आगे हैैं। कायदे से तभी इन बैैंकों का नियमन दुरुस्त करने के कदम उठाए जाने चाहिए थे, लेकिन कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों नहीं किया गया? अब जब पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैैंक घपलेबाजी का शिकार हो गया तब सरकार के साथ रिजर्व बैंक की आंखें खुली हैैं। वित्त मंत्री की ओर से कहा गया है कि सहकारी बैैंकों के नियमन की खामियों पर रिजर्व बैैंक और वित्त मंत्रालय के अधिकारी जल्द ही चर्चा करने वाले हैैं।

सहकारी बैैंक में गड़बड़ी से खाताधारक प्रभावित

आखिर यह चर्चा इसके पहले क्यों नहीं की गई? यह सवाल इसलिए, क्योंकि यह पहली बार नहीं जब किसी सहकारी बैैंक में गड़बड़ी के चलते खाताधारक प्रभावित हुए हों। बीते दो सालों में अकेले महाराष्ट्र में कम से कम पांच सहकारी बैंकों की वित्तीय गड़बड़ियों के चलते रिजर्व बैैंक उन पर पाबंदियां लगाने को मजबूर हुआ है। समझना कठिन है कि जब इन सहकारी बैैंकों की गड़बड़ियां सामने आ रही थीं तब किसी को यह ख्याल क्यों नहीं आया कि उनके कामकाज को दुरुस्त करने के लिए कुछ करने की जरूरत है? नि:संदेह सवाल यह भी है कि सहकारी क्षेत्र के बैैंक रिजर्व बैैंक के वैसे ही अधिकार क्षेत्र में क्यों नहीं हैैं जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के बैैंक हैैं? क्या इसलिए, क्योंकि सहकारी बैैंकों पर नेताओं और उनके रिश्तेदारों का कब्जा है? यह ठीक है कि सरकार ने यह समझा कि सार्वजनिक क्षेत्र में इतने अधिक बैैंकों की जरूरत नहीं और उसने उनके विलय का फैसला किया, लेकिन क्या यह सही समय नहीं कि वह इस पर भी विचार करे कि क्या देश को इतने अधिक सहकारी बैैंकों की जरूरत है?

कर्ज के नाम पर लुटते बैैंक

आखिर उनकी संख्या घटाने की जरूरत क्यों नहीं समझी जा रही है? सहकारी बैैंक कर्ज देने के नाम पर किस तरह खुद को खुशी-खुशी लुटवा रहे हैैं, इसका ही उदाहरण पेश किया है कि पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैैंक ने। उसने एचडीआइएल नामक एक ऐसी कंपनी को कर्ज दे दिया जो अपना पिछला कर्ज नहीं चुका पाई थी। यह अंधेरगर्दी के साथ-साथ एक तरह की खुली लूट है। अगर इस तरह की लूट जारी रही तो बैैंकों के साथ-साथ रिजर्व बैैंक और सरकार के लिए अपनी साख बचाना मुश्किल होगा। इससे इन्कार नहीं कि बैैंकों की खराब स्थिति का एक कारण मनमोहन सरकार के दौरान बरती गई ढिलाई है, लेकिन अगर मोदी शासन के पांच साल बाद भी बैैंकिंग व्यवस्था दुरुस्त नहीं होे पा रही है तो यह चिंता की ही बात है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )