[ संतोष त्रिवेदी ]: वे फिर से गिर गए। अबकी बार गहरे गड्ढे में गिरे। सड़क पर चलते हुए वे देश के प्रति चिंतन कर रहे थे। इस बीच बरसाती पानी से लबालब छोटे-मोटे गड्ढों ने कई बार उन्हें अपनी गोद में बैठाना चाहा, पर वे सफल नहीं हो पाए। वे जरा गहरे मिजाज के आदमी ठहरे, इसलिए गहराई में चले गए। दृढ़ निश्चयी इतने कि बारिश की तरह उनका चिंतन भी मूसलाधार बरस रहा था। वह बंद नहीं हुआ। वे सोचने लगे, उनके गिरने के पीछे भी कोई उद्देश्य है। ईश्वर ने कुछ सोचकर ही गिराया होगा। सरकार तो उनकी अपनी है। वह उन्हें कैसे गिरा सकती है। उनके गिरने में तो कोई साजिश भी नहीं है। यह संयोग है। सहमति से गिरना वैसे भी कोई अपराध नहीं है। वे गिरे हैं तो इसमें भी देश का ही भला है। गिरने में काहे की लाज और शर्म! वे तो फिर भी खुलेआम गिरे हैं। अब वे खुलकर चिंतन करने लगे।

बाजार में रुपया गिर रहा है। रोज गिर रहा है। पहले जब कभी-कभी गिरता था, खूब चिल्ल-पों होती थी। अब रोज गिरता है, कोई नोटिस नहीं लेता। रुपया भी चल रहा है, बाजार भी और सरकार भी। कोई दिक्कत ही नहीं। सब अपने-अपने ट्रैक पर सरपट हैं। जिसको लगता है कि गिरने से गति बाधित होती है, वे किताबी-दुनिया के जीव हैं। बाहरी दुनिया विज्ञान के भरोसे नहीं चलती। यहां सबके अपने-अपने ज्ञान हैं। सोशल मीडिया में खूब चलते भी हैं। गिरावट तो आदमी की मूल प्रकृति है। वह गिरकर ही उठता है। ऐसे में कोई समझदार आदमी गिरने का नोटिस नहीं करता। वह कितना उठा है, यह देखा जाता है। वे भले आज गड्ढे में हैं, पर गिरकर उठने के मामले में काफी वरिष्ठ हो चुके हैं। और ज्यादा दूर क्यों जाएं! पिछली बार साहित्य में गिरे थे। क्या गिरे थे!

पूरे साहित्य-जगत में हाहाकर मच गया था। सारे सम्मान उन्हीं के सिर पर आकर गिरे थे। उनके कलापक्ष की खूब तारीफ हुई थी। उन्होंने एक इंटरव्यू में ही एक स्थापित लेखक को उखाड़ फेंका था। ऐसी कलाबाजी एक दिन के कमाल से नहीं आती। इसके लिए निरंतर गिरना होता है। गिरना एक कला है, इसे उन्होंने ही स्थापित किया है। जब कलाबाजी विकसित हो जाती है, बुद्धिजीवी इसे कलावाद कहते हैं।

‘वाद’ से उन्हें याद आया कि गिरावट का यही प्राणतत्व है। यह ‘वाद’ सेफ्टी-वॉल्व का काम करता है। हमारी अर्थव्यवस्था बाजार के भरोसे रहती तो कब की बर्बाद हो जाती। जब से बाजारवाद आया, पीछे मुड़कर देखने का समय ही नहीं मिला। गिरता हुआ रुपया बाजारवाद की गोद में उसी तरह सुरक्षित है जैसे वे गड्ढे में। जब तक वे गड्ढे में हैं, साहित्य भी पूरी तरह सुरक्षित है। उनके बाहर आते ही सड़क की तरह साहित्य की भी पोल खुल जाएगी।

साहित्य के सम्मान के लिए वे अपना सम्मान दांव पर लगा देंगे। इस बार का गड्ढा गहरा है तो सम्मान भी गहरा होना चाहिए। सरकार ने ‘पद्म’ सम्मान के लिए खुलेआम आमंत्रण दिया है। कोई किसी का नाम भेज सकता है। सम्मान का हरण, माफ कीजिएगा, वरण वे ही करेंगे। गिरने को लेकर कभी उनके मन में दुविधा नहीं रही। जब मौका मिलता है, गिर लेते हैं। संयोग देखिए कि वे पहले से ही कीचड़ से भरे गड्ढे में हैं। उनसे अधिक सुपात्र कोई और कैसे हो सकता है!

अचानक गड्ढे के बाहर हलचल सुनाई देने लगी। उन्हें लगा कि उनके सम्मान में साहित्यिक-बिरादरी भी उनके साथ आ गई है। वे गड्ढे में थे, इसलिए दूर का दिख नहीं रहा था। आंखों में लगे चश्मे को उन्होंने ललाट पर चढ़ा लिया। उन्हें दूरदृष्टि की प्राप्ति हुई। वे मामले को समझने की कोशिश करने लगे। पता चला कि उन्हें उठाने के लिए क्रेन आई हुई है। वे साहित्य में अचानक इतना उठ जाएंगे, नहीं सोचा था। काश और पहले गड्ढे में गिरे होते। वे कुछ और चिंतन करते कि क्रेन के लंबे-लंबे हाथों ने उन्हें बाहर ला पटका। मगर यह क्या! यहां तो सांड़ और गायों का जमघट लगा था। वे इस बात के लिए आंदोलन कर रहे थे कि गड्ढे में आदमी ने कैसे घुसपैठ कर ली। कुछ सांड़ तो उन्हें सींग मारने वाले थे, तभी एक बूढ़ी गाय उनके सामने आ गई। उस समय उनकी दशा उससे भी जर्जर थी।

आखिरकार गाय को ही उन पर दया आ गई। बोली, ‘बेटा तुमने हमें घर से, जंगल से सब जगह से निकाल दिया है। अब सड़क के गड्ढे ही हमारा आसरा हैं। यहां भी तुमने कब्जा कर लिया तो हम कहां जाएंगे? पर तुम्हारी हालत देखकर तो मुझे तरस आ रहा है। तुम भले हमें भूल जाओ, मैैं तुम्हें गड्ढे में गिरा हुआ नहीं देख सकती।’ यह सब सुनकर उनका सारा चिंतन कीचड़ में मिल गया। वे घर की ओर भागे। इस समय उनको अपनी बूढ़ी मां की बहुत याद आ रही थी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]