[ प्रदीप सिंह ]: रहीम का एक दोहा है- ‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय।’ निजी संबंधों की तरह ही राजनीतिक गठबंधनों के साथ भी ऐसा ही होता है। एक बार गांठ पड़ जाए तो उसका पहला शिकार आपस का भरोसा होता है। दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु बने रहते हैं। बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड यानी जद-यू और भाजपा के साथ ऐसा ही हो रहा है। किसी भी राजनीतिक गठबंधन की दो बुनियादी शर्तें होती हैं। एक, इसमें दोनों का फायदा हो। दूसरा, एक दूसरे पर भरोसा हो। गठबंधन की इस गांठ का मामला केवल इन दो राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं है। देश की पूरी राजनीति में ही अविश्वास का दौर चल रहा है। जद-यू और भाजपा का गठबंधन चलेगा या लोकसभा चुनाव से पहले टूट जाएगा, इस बारे में कोई भी पूरे भरोसे के साथ कुछ बोलने को तैयार नहीं है।

नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के नेताओं के बयानों को सुनें तो समझना मुश्किल है कि यह सब गठबंधन को चलाने के लिए बोला जा रहा है या तोड़ने के लिए? वैसे तो इसकी चर्चा पहले से चल रही थी, लेकिन जबसे कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल ने पटना में पत्रकारों से जो कहा उससे लग रहा है कि कुछ तो है। गोहिल ने पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में कहा कि नीतीश कुमार की तरफ से कोई महागठबंधन में शामिल होने का संदेश लेकर आया था।

नीतीश कुमार के खेमे में कुछ लोग हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो बाहर रहने के बाद फिर लौटे हैं। वे चाहते हैं कि यह गठबंधन टूटे। ऐसे लोग नीतीश कुमार को समझा रहे हैं कि भाजपा बिहार में नंबर एक की पार्टी बनने के लिए आपकी हैसियत घटाएगी। महाराष्ट्र में भी भाजपा और शिवसेना का गठबंधन अधर में है। दोनों जगह समस्या यह है कि जहां छोटा भाई बड़ा भाई बनने को तैयार है वहीं छोटा ऐसा होने से रोकने की कोशिश कर रहा है।

शिवसेना लोकसभा में तो भाजपा से कम सीटों पर लड़ने को तैयार है, लेकिन विधानसभा में वह न केवल भाजपा से ज्यादा सीटें, बल्कि उसके विधायक कम आने की दशा में भी मुख्यमंत्री का पद चाहती है। नीतीश कुमार उससे थोड़ा ज्यादा चाहते हैं। उन्हें लोकसभा में भी भाजपा से ज्यादा सीट चाहिए, चाहे वह एक ही सीट क्यों न हो। गठबंधन में आखिरकार बातचीत से मामले सुलट भी जाते हैं। बशर्ते दोनों पक्षों को गठबंधन फायदे का सौदा लग रहा हो। बिहार में भाजपा को तय करना है कि नीतीश कुमार उसके लिए असेट हैं या लायबिलिटी हो गए हैं। नीतीश कुमार अब 2010 वाले सुशासन बाबू नहीं रह गए हैं।

लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ जाकर उन्होंने काफी राजनीतिक पूंजी गंवा दी है। इसी तरह शराबबंदी से शुरुआती फायदे के बाद अब माहौल बदलता हुआ दिख रहा है। शराबबंदी को लेकर बना कानून और बिहार पुलिस के भ्रष्टाचार ने इस अच्छी नीयत वाले काम को राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा बना दिया है। नीतीश कुमार को पता है उनके सामने विकल्प बहुत ज्यादा नहीं हैं। 2014 में अकेले लड़कर देख चुके हैं। उस समय जो 17 फीसदी वोट मिले थे वे इस बार अकेले लड़ने पर नहीं मिलने वाले और उधर महागठबंधन के दरवाजे पर भतीजा लाठी लेकर खड़ा है कि चचा को घुसने नहीं देंगे।

विपक्षी खेमे में अविश्वास कुछ ज्यादा ही है। मोदी को हराने के लिए आओ सब एक हो जाएं का नारा तो लग गया है, लेकिन जमीन पर वैसा होता हुआ फिलहाल तो दिख नहीं रहा है। राजनीति की दृष्टि से देश के सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश को ही लें। चार उपचुनाव जीतकर विपक्ष बम-बम था, लेकिन समय के साथ उत्साह घटता दिख रहा है। कैराना लोकसभा उपचुनाव के बाद मायावती ने गोरखपुर और फूलपुर की तरह से न तो कोई बयान दिया और न ही अखिलेश यादव से मिलीं। कहते हैैं कि अखिलेश यादव ने मिलने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए। मायावती ने कैराना की नई सांसद तबस्सुम हसन को भी मिलने का समय नहीं दिया।

दरअसल मायावती के लोगों को इस बात का भरोसा नहीं है कि सपा अपने वोट बसपा उम्मीदवारों को दिलवा पाएगी। इसके अलावा सपा नहीं चाहती कि कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बने। अब यह पता नहीं कि यह 2017 के विधानसभा चुनाव के कड़वे अनुभव का नतीजा है या इसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कोई भूमिका है?

राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता के सूत्रधार माने जा रहे शरद पवार कह रहे हैं कि 2019 के चुनाव से पहले किसी गठबंधन की बात अव्यावहारिक है। ममता बनर्जी भी विपक्षी एकता के लिए सक्रिय हैं, लेकिन उनका फार्मूला क्षेत्रीय दलों का गठबंधन बनाने का है। जाहिर है कि उनकी रणनीति कांग्रेस को किसी भी गठबंधन से बाहर रखने की है।

तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ममता बनर्जी के साथ हैं। अखिलेश यादव भी उनसे सहमत हैं। मायावती से गठबंधन के लिए कांग्रेस बहुत आतुर थी। उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में तत्काल फायदा मिलता दिख रहा था, लेकिन मायावती इस बारे में अभी अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं हैं। यहां भी उनकी चिंता वही है जो अखिलेश यादव के साथ उत्तर प्रदेश में है। सिर्फ दो राज्य हैं जहां कांग्रेस का गठबंधन तय लग रहा है।

महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तो घोषणा कर चुकी है कि कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ेंगे। कर्नाटक में भी कांग्रेस को जनता दल-सेक्युलर के रूप में नया साथी मिला है। जद-एस के कुमारस्वामी और उनके पिता देवेगौड़ा मिलकर चुनाव लड़ने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन पिता-पुत्र को साधना आसान नहीं होगा।

गठबंधन को लेकर समस्याएं भाजपा और कांग्रेस दोनों के समक्ष हैं। इसके बावजूद कांग्रेस की स्थिति ज्यादा खराब दिख रही है और इसका कारण है दोनों दलों के नेता के नेतृत्व की वोट दिलाने की क्षमता। गठबंधन करने वाली पार्टी दो बातें देखती है। एक, क्या गठबंधन का हमारा साथी हमें अपने वोट दिला पाएगा? दूसरा, क्या सत्ता में भागीदारी मिलने की संभावना है? दूसरी बात तो बाद की बात है। पहले सवाल वोट का है।

चुनाव दर चुनाव साबित हो चुका है कि राहुल गांधी के नाम पर लोग वोट देने को तैयार नहीं हैं। गुजरात में वह 22 साल की एंटी इनकंबंसी के बावजूद वह अपनी पार्टी को जिता नहीं सके और कर्नाटक में अपनी सरकार की उपलब्धि को भुना नहीं सके। इसके बरक्स चार साल पहले राष्ट्रीय राजनीत में आए नरेंद्र मोदी ने साबित किया है कि भाजपा में आज तक उनसे बड़ा वोट दिलाने वाला नेता नहीं हुआ। इसमें अमित शाह के संगठन कौशल की अहम भूमिका है। केंद्र सरकार की चार साल की एंटी इनकंबंसी के बावजूद आम लोगों में मोदी की विश्वसनीयता के मुकाबले राहुल गांधी कहीं नहीं टिकते। इसके लिए किसी भाजपा नेता से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सवाल किसी भी विपक्षी दल के नेता से पूछ लीजिए, जवाब एक ही मिलेगा।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]